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जैविक खेती का अर्थशास्त्र

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हम यह मानते रहे हैं कि जैविक खेती और इसके उत्पाद सीधे खेत और किसानों से हमारी रसोई में आयेंगे परन्तु अब यह सच नहीं है। जैसे-जैसे यह तर्क स्थापित हुआ है कि हमें यानी उपभोक्ता को साफ और रसायनमुक्त भोजन चाहिये; वैसे-वैसे देश और दुनिया में बड़ी और भीमकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने जैविक खेती और जैविक उत्पादों के व्यापार को अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया। भारत में पारम्परिक रूप से जैविक उत्पाद सामान्यतः सीधे खेतों से लोगों तक पहुंचे हैं। हमारे यहां हाईब्रिड और देशी टमाटर या लोकल लौकी जैसे शब्दों के साथ ये उत्पाद बाजार में आते रहे हैं पर अब बड़ी कम्पनियों ने इस संभावित बाजार पर अपना नियंत्रण जमा

जैविक खेती और भारत

 जैविक खेती और भारत

जैविक खेती समग्र रूप से एक उत्‍पादन प्रबंध प्रणाली है जो जैविक विविधता , पोषक जैविक चक्र और मिट्टी से जुड़ी जैविकीय और सूक्ष्‍म जीव क्रिया को बढ़ावा देती है और उसे चुस्‍त -दुरूस्‍त रखती है। इसे आमतौर से कृषि की एक प्रणाली के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें रासायनिक खादों/कीटनाशकों का इस्‍तेमाल नहीं किया जाता और यह मुख्‍य रूप से गोबर की खाद, पत्‍तियों की खाद, खली के इस्‍तेमाल और प्राकृतिक जैविक कीट नियंत्रण और पौधों के संरक्षण के सिद्धांत पर आधारित होती है।

 

बढ़ते क्षेत्र

जीन संवर्द्धित फसलें: बर्बादी या उन्नति ?

जीन संवर्द्धित फसलें:

एक और जहाँ किसानों की आत्महत्या की बढती घटनाओं ने कृषि प्रधान देश भारत को बहुत व्यथित किया हैं वही देश की सरकार हरित क्रान्ति के नाम पर जीएम फसलों के लिए मंजूरी के रास्ते बनाने में लगी हैं

क्या हैं जीएम फसलें (जीन संवर्द्धित फसलें) ?

खेती क्यों छोड़ते जा रहे हैं किसान?

 खेती क्यों छोड़ते जा रहे हैं किसान?

क्या भारत कृषि प्रधान देश है ?

हमारे देश में हजारों भूमिपुत्र आज भी केवल बारिश के पानी के सहारे खेती करने पर निर्भर रहते हैं। इसके पीछे कारण साफ है वर्तमान में खेती लाभ का धंधा नहीं है। जितनी उपज मिलती है, उसके अनुपात में लागत और मेहनत का आंकलन किया जाए तो उससे ऊपर ही होती है। यानी किसान को कुछ भी नहीं मिलता। आज किसान मजबूरी में खेती करने के लिए बाध्य हो रहा है। क्योंकि खेती के अलावा उसके पास जीविकोपार्जन का अन्य माध्यम नहीं है।

किसानो का सत्याग्रह हल सत्याग्रह

हल सत्याग्रह

खेती की लागत बढ़ती जा रही है पर उपज नहीं बढ़ रही है। फसल के दाम नहीं बढ़ रहे हैं। कर्ज बढ़ता जा रहा है। ऊपर से कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी अनियमित बारिश से फसल बर्बाद हो जाती है। फसल का मुआवजा नहीं मिलता। फसल बीमा से भी किसान को बहुत मदद नहीं मिलती। किसान के कंधे पर सरकार का हाथ नहीं है। उसे पूरी तरह बाजार के भरोसे छोड़ दिया है, जो उसका शोषण करता है।

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