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आखिर किसान किस पर विश्वास करे ?

किसान

आजकल गेहूं, चावल, मक्का, कॉटन आदि अनेक फसलों के ऐसे बीज उपलब्ध हैं जो प्राकृतिक नहीं होते बल्कि प्रयोगशालाओं में तैयार किये जाते हैं. ये बीज Genetically Modified अथवा जी-एम् कहलाते हैं. अप्रैल 3, 2014 एक खबर के अनुसार केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका पर जवाब देते हुए प्रार्थना की है कि उसे जी-एम् बीजों को खेतों में प्रयोग की अनुमति दी जाए. सन 2004 से यह मामला सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में है. जुलाई 2013 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेषज्ञ कमेटी ने कहा था कि जी-एम् बीजों के परीक्षण केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित रखे जाएँ.

खेती में विदेशी निवेश की क्या आवश्यकता?

खेती में विदेशी निवेश

अपनी सरकार से यह सवाल कभी क्यों नहीं पूछा कि आखिर खेती में विदेशी निवेश की जरूरत क्यों है? सरकार ने पिछले 10 वर्षों में कर्ज और बीमा आधारित ऐसी तकनीकें अपनाई हैं, जिनसे किसान कंपनियों का बंधुआ बन गया है. किसान को संरक्षण देने का तर्क देकर कृषि बीमा योजना शुरू की गई. पर यह एक सामूहिक बीमा योजना है, जिसके अब तक के क्रियान्वयन से पता चला है कि किसानों को 80 प्रतिशत नुकसान की तो भरपाई का प्रावधान ही इसमें नहीं है.

आखिर कैसे रुकेगी कृषकों की आत्महत्त्याएं ?

कृषकों की आत्महत्त्याएं

एक) कृषकों की आत्महत्त्याओं को घटाने के लिए।

प्रायः ६० करोड की कृषक जनसंख्या, सकल घरेलु उत्पाद का केवल १५ % का योगदान करती है। और उसीपर जीविका चलाती है।विचारक विचार करें।अर्थात, भारत की प्रायः आधी जनसंख्या और, केवल १५% सकल घरेलु उत्पाद? बस? जब वर्षा अनियमित होती है, तब इन का उत्पाद घट कर १३% ही हो जाता है।
अब सारे कृषक भी भूमि के स्वामी नहीं होते।
लगभग आधी ५० % जनसंख्या अपने हिस्से का ५० % सकल घरेलु उत्पाद नहीं पर मात्र १५% का उत्पाद ही प्रदान करती है। इसका अर्थ: ३७% की जनसंख्या अपने हिस्सेका उत्पाद कर नहीं रही है।

जैविक खेती से पायें उत्तम पैदावार

 जैविक खेती से पायें उत्तम पैदावार

खेतों में रसायनडालने से ये जैविक व्यवस्था नष्ट होने को है तथा भूमि और जल प्रदूषण बढ़ रहा है खेतों में हमे हमारे पास उपलब्ध जैविक साधनों की मदद से खाद, कीटनाशक दवाई,चूहा नियंत्रण हेतु दवा बगैरह बनाकर 

मॉनसून नहीं रहा भाग्य विधाता

kisanhelp.in

आजादी के इन साढ़े छह दशकों में देश में रह-रह कर यह सवाल उठता रहा है कि अगर किसी साल मॉनसून की चाल ठीक न रही तो क्या होगा?

देश को एक कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था बताकर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि जून से सितम्बर के बीच चार महीने की अवधि में अगर मॉनसूनी वर्षा में जरा भी ऊंच-नीच हुई, तो हमारी आर्थिक तरक्की ठिठक जाएगी और अनाज के लिए हम विदेशों के मोहताज हो जाएंगे.

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