Aksh's blog

भारत में बदहाल पशुधन और कृषि

भारत में बदहाल पशुधन और कृषि

सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने में कृषि प्रधानता और पशुधन की परिकल्पना प्राचीन समय से ही रही है। किसी भी समाज में खाद्य-सुरक्षा के लिए कृषि उत्पाद और पशुधन उत्पाद की उपल्बधता आवश्यक मानी जाती है। इस चीज को अगर हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो पता चलता है कि ग्रामीण भारत में कृषि के साथ ही साथ पशुपालन की परंपरा भी समानांतर ढ़ंग से चलती रही है। ग्रामीण जीवन में पशुपालन ही वो जरिया है जो किसानों की नियमित आय का साधन बनता है और यही वजह है कि कृषि के साथ ही साथ लगभग 72 फीसदी ग्रामीण घरों में पशुपालन किया जा रहा है। पूरे देश में पशुपालन ने उन लोगों के लिए संजीवनी का काम किया है जो भूमिहीन या

किसान का गौरवशाली अतीत था, आज किसान को मार्गदर्शन चाहिए

आज किसान को मार्गदर्शन चाहिए

आज किसान बहुत दुविधा में पड़ा है। वह चाहता है कि वह रासायनिक खाद से कैसे छुटकारा पाए ताकि उसकी धरती फिर से उपजाऊ हो। वह भुल सा गया है कि उनके पुरखे गोबर और गोमूत्र से खाद बनाकर इतने सम्पन्न थे कि उन्होंने आजादी की लड़ाइयों अर्थात 1857, 1905 और 1930 स्वतंत्रता आंदोलनों में सबसे अधिक भाग ही नहीं लिया बल्कि उसमें दिल खोलकर धन भी खर्च किया। उस समय के किसान सम्पन्न थे और देश-भक्त तो थे ही। अंग्रेजी शासकों ने ये सब जानते हुए किसान को खत्म करने की एक साजिश रची। उन्होंने एक कानून पास किया जिसका नाम रखा ‘लैण्ड एक्यूसाईज़ेशन एक्ट’ जिससे हर रोज अत्याचारों के माध्यम से किसानों की खड़ी-

प्राकृतिक आपदा से हुए कृषि विनाश में कृषिक संरक्षण हेतु कुछ विचार

प्राकृतिक आपदा से हुए कृषि विनाश में कृषिक संरक्षण हेतु कुछ विचार

चल रही महती प्राकृतिक आपदा से कृषिक त्राहि त्राहि कर रहा है, क्यूँकि आने वाला वर्ष उसके लिए निःसन्देह बहुत ही कठिन सिद्ध होने वाला है । ऐसी भीषण समस्या का समाधान क्या हो, इस पर गम्भीर विचार विमर्श करने की आवश्यकता है । इस लेख के माध्यम से लेखक उक्त विषय पर अपने विचार प्रस्तुत कर रहा है । लेखक के विचार में यह कठिन परिस्थिति एक स्वर्णिम अवसर है, जिसमें न केवल हम भारतीय जन अपने कृषिकों के संरक्षण हेतु कुछ कर सकते हैं, अपितु सम्पूर्ण समाज के नैतिक उत्थान की दिशा में भी कुछ प्रगति कर सकते हैं ।

उपाय

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