Organic Farming

उर्वरक की मात्रा को प्रभावित करने वाले करक

फसल की किस्म :- अलग-अलग फसलों कि पोषक तत्व संम्बधी आवष्यकता अलग-अलग होती हैं। उदाहरण के लियें दलहनी फसलों की नत्रजन की आवष्यकता गेहॅू या गन्नों की फसल की तुलना में कम होती हैं। 

मृदा उर्वरता व गठन :- जो मृदाएं कमजोर अथवा कम उर्वरा होती हैं उन में अधिक खाद की आवष्यकता होती हैं। जैसे बलुई भूमियों में दोमट मृदाओं की अपेक्षा एक ही फसल को अधिक खाद देना पड़ता हैं। 
शस्य चक्र :- फसल चक्र में यदि हरी खाद उगा रहें हैं या दलहनी फसल उगा रहें है, तो इसके बाद बाली फसलों को नत्रजन के खादों की कम आवष्यकता हैं। 

केसर की खेती एक लाभकारी खेती

केसर (क्रोकस साटिवस) को ठंडा ,सूखा और धूप जलवायु पसंद है और समुद्र स्तर से ऊपर 1500 से लेकर 2500 मीटर ऊंचाई में बढ़ता है. ठंडा और गीला मौसम फूल आना रोकता है लेकिन माँ corms की बेटी corms की एक बड़ी संख्या में उत्पादन करने की योग्यता बढ़ जाता है. इसकी खेती औसत वर्षा 100 सेमी के क्षेत्रों में और जहां सर्दियों के दौरान कुछ बर्फ गिरता है वहाँ की जाती है.

भूमि

केसर का विकास मिट्टी के विभिन्न प्रकार रेतीले चिकनी बलुई मिट्टी से लेकर दोमट मिट्टी में कर सकते हैं. हालांकि, corms की सड़ से बचने के लिए उचित जल निकासी की जरूरत है .

 

भूमि की तैयारी

जैविक कचरा बनेगा फसलों के लिए वरदान

घरों-होटलों से निकलने वाले सब्जियों-फलों, अनाज के कचरे-छिलके, जानवरों के मलमूत्र, सिरदर्द बनते हैं फार्म अवशेष का सदुपयोग करने के लिए वर्मी कंपोस्ट तैयार करना एक अच्छा विकल्प है। वर्मी कंपोस्ट से मिट्टी में जैविक पदार्थ की मात्रा में वृद्धि होती है तथा पौधों को आवश्यक तत्त्व की संतुलित मात्रा में मिलते हैं।
स्थान

खस-खस है बहुत खास

खस भारत में प्राचीनकाल से ज्ञात है। खस यानी वेटीवर (vetiver)। यह एक प्रकार की झाड़ीनुमा घास है, जो केरल व अन्‍य दक्षिण भारतीय प्रांतों में उगाई जाती है। वेटीवर तमिल शब्‍द है। दुनिया भर में यह घास अब इसी नाम से जानी जाती है। हालांकि उत्‍तरी और पश्चिमी भारत में इसके लिए खस शब्‍द का इस्‍तेमाल ही होता है। इसे खस-खस, khus, cuscus आदि नामों से भी जाना जाता है। इस घास की ऊपर की पत्तियों को काट दिया जाता है और नीचे की जड़ से खस के परदे तैयार किए जाते हैं। बताते हैं कि इसके करीब 75 प्रभेद हैं, जिनमें भारत में वेटीवेरिया जाईजेनियोडीज (Vetiveria zizanioides) अधिक उगाया जाता है।

तोरई की उन्नत खेती

लगानें का समय 

ग्रीष्म कालीन फसल के लिए  -  जनवरी से मार्च 

वर्षा कालीन फसल के लिए  -    जून से जुलाई 

 जलवायु

यह हर प्रकार  की जलवायु में हो जाती  है  तोरई के सफल उत्पादन के लिए उष्ण और नम जलवायु उतम मानी गई है भारत में इसकी खेती केरल, उड़ीसा, बंगाल, कर्नाटक और उ. प्र. में विशेष रूप से की जाती है |

भूमि

उर्वरकों का सही फसल उपयोग क्षमता बढ़ांए

फसल के अछ्छे उत्पादन पाने के लिए  अधिक उर्वरकों  की आवश्यकता नही बल्कि उनका शी मात्रा एवं सही समय पर प्रयोग फसल उन्पदन को लाभकारी बना देता है  कई बार हम लोग  अच्छी उपज के लालच में उर्वेर्कों  का अंधाधुंध प्रयोग करने लगते है जो हानिकारक हो जाता है

नीचे प्रमुख उर्वेर्कों  के बारे में जानकारी दी जा रही है 

हल्दी की उन्नत खेती

हल्दी एक महत्वपूर्ण मसाले वाली फसल है जिसका उपयोग औषिध से लेकर अनेकों कार्यो में किया जाता है. इसके गुणों का जितना भी बखान किया जाए थोड़ा ही है, क्योंकि यह फसल गुणों से परिपूर्ण है इसकी खेती आसानी से की जा सकती है तथा कम लागत तकनीक को अपनाकर इसे आमदनी का एक अच्छा साधन बनाया जा सकता है. यदि किसान भाई इसकी खेती ज्यादा मात्र में नहीं करना चाहते तो कम से कम इतना अवश्य करें जिसका उनकी प्रति दिन की हल्दी की मांग को पूरा किया जा सकें. निम्नलिखित शास्त्र वैज्ञानिक पद्धतियों को अपना कर हल्दी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है.

भूमि का चुनाव

मौसम के अनुसार अपनाएं कृषि प्रबंधन

इस वर्ष मौसम विभाग द्वारा लगातार यह सूचित किया जा रहा है कि मॉनसून में औसत से कम वर्षा होगी. स्वाभाविक है इस स्थिति से निबटने और इससे होने वाले नुकसान को रोकने के लिए कई तरह की पहल की गयी हैं. इसके तहत भूमिगत जल के दोहन की रोकने की भी पहल शामिल है. भूमि के अंदर पानी को वापस भरने, वर्षा के जल का संचय सही तरीके से करने की जरूरत अब भी है. इसके बगैर समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता. जल प्रबंधन के अभाव में हर साल वर्षा का ज्यादातर पानी बह कर नदियों-नालियों के रास्ते दूर चला जाता है. राज्य के 85 से 90 प्रतिशत भागों में भूमिगत जल का स्तर लगातार गिर रहा है.

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