बिना पानी का कल ! कितना विकट है जल संकट?
पानी के बिना जीवन की कल्पना बेमानी है। जल जीवन की मूलभूत जरूरतों में से एक है, जिसका उपयोग पीने, भोजन बनाने, सिंचाई, पशु-पक्षियों के साथ औद्योगिक इकाइयों के लिए बेहद जरूरी है। बहुत ज्यादा वक्त नहीं बीता है, जब मालदीव में जल संकट उत्पन्न हो गया था। जिसमें भारत की तरफ से 12 सौ टन से ज्यादा ताजा जल भेजा गया। जल संकट का यह तो केवल संकेत मात्र है। पूरे विश्व में हालात कितने विकराल होंगे, यह कह पाना बेहद मुश्किल है।
ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) एवं जल संसाधन मंत्रालय द्वारा इंडिया हैबिटैट सेन्टर, दिल्ली में आयोजित भारतीय जल गोष्ठी के उद्घाटन भाषण में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा 'बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के चलते जल-प्रबंधन के क्षेत्र में नई चुनौतियां सामने हैं, जिनका मुकाबला प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए, इन स्थितियों को देखते हुए आज हमें जल संसाधनों में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।' ओट्टावा में कनेडियन वाटर नेटवर्क (सीडब्लूएन) द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय बैठक में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग और बढ़ती जनसंख्या के कारण आगामी 20 सालों में पानी की मांग उपलब्धता से 40 प्रतिशत ज्यादा होगी। मतलब यह कि 10 में से 4 ही लोगों के लिए पानी होगा। अगले दो दशकों में दुनिया की एक तिहाई आबादी को अपनी मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए भी जरूरी जल का सिर्फ आधा हिस्सा ही मिल पाएगा। सबसे ज्यादा आफत तो कृषि क्षेत्र पर आएगी, जिस पर कुल आपूर्ति का 71 फीसदी जल खर्च होता है, इससे दुनियाभर के खाद्य उत्पादन पर जबरदस्त असर पडग़ा।
वैसे तो पानी की समस्या सारे विश्व के सामने है लेकिन हमारे देश में यह कुछ ज्यादा ही विकट है। तिब्बत के पठारों पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर सारे एशिया के करीब 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराते हैं। इनसे भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल की नौ नदियों में पानी की आपूर्ति होती है, जिनमें गंगा और ब्राह्मपुत्र भी शामिल हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन व ब्लैक कार्बन जैसे प्रदूषक तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों से बर्फ की मात्रा घटा दी है। माना जा रहा है कि इनमें से कुछ तो इस सदी के अंत ही तक खत्म हो जाएंगे। इन तेजी से पिघलते ग्लेशियरों से समुद्र का जलस्तर भी बढ़ जाएगा जिससे तटीय इलाकों के डूबने का खतरा भी है।
अब एक नजर इस सिक्के के दूसरे पहलू पर भी डाल लेते हैं, बिना इस सच्चाई से मुहं मोड़े कि पानी के बिना इस दुनिया की कल्पना करना भी नामुकिन है, कुछ अहम सवाल है जिनके जवाब जानने बाकी हैं, जैसे कि हमारे वैज्ञानिक लगातार कह रहे हैं कि हिमालयी ग्लेशियर पिघल रहे हैं। अगर ये ग्लेशियर पिघल रहे हैं तो नदियों और नहरों का जल स्तर क्यों नहीं बढ़ रहा? कहा जाता है कि कुल स्वच्छ पानी का सत्तर प्रतिशत खेती के काम आता है। सवाल है कि देश में खेती योग्य जमीन लगातार घट रही है, वहां जो पानी लगता था वह कहां गया? मान लिया कि उस अनुपात में आबादी बढ़ गई, पर क्या आबादी खेती जितना पानी इस्तेमाल कर सकती है? हरित क्रांति के बाद दुनिया भर के वैज्ञानिक लगातार ऐसे बीज तैयार करने में जुटे हैं जो कम समय और कम पानी में ज्यादा फसल दे सकें। उनका यह प्रयास बहुत हद तक कामयाब भी रहा है, जिसका एक प्रमाण गेहूं के नए बीज हैं जो 90 से 100 दिन और मात्र दो ही पानी में पक जाते हैं।
एक और सच्चाई यह भी कि पृथ्वी का पानी किसी भी सूरत में यहां से बाहर नहीं जा सकता। हमारा 97 प्रतिशत पानी जो पीने योग्य नहीं है, का सबसे बड़ा हिस्सा समन्दर हैं। इसी समन्दर से गर्मी की वजह से बरसात होती है। बरसात से खेती सदियों से होती आ रही है और हमारी जमीन भी दुबारा पानी से भर जाती है, जिससे कुओं में पानी आता है। हमारी बरसाती नदियां, तलाब, बावडियां, पोखर सब बरसात से ही भरते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में बरसात, ठडें मौसम में बर्फ की सूरत बरसती है, जिससे ग्लेशियर बनते हैं और जिसके पिघलने से साल भर नदियां बहती हैं, नहरें चलती हैं। यानी अगर हम बरसात को सहेजना सीख जाएं तो पानी की समस्या सदा के लिए खत्म हो सकती है। इन तथ्यों पर विचार करने के बाद एक बड़ी अहम शंका उठती है कि- क्या ये वैज्ञानिक दावे झूठे हैं? यह कैसे संभव है कि दुनिया भर के वैज्ञानिक और पानी की चिन्ता करने वाले एक साथ झूठ बोल रहे हैं? इसकी एक वजह तो यह समझ आती है कि दुनिया के सभी देशों में पर्याप्त मात्रा में बरसात नहीं होती, इस वजह से वहां का जलस्तर भी काफी गहरा होगा। उन देशों के बारे में दिए गए बयानों को हमने भी अपने लिए मान लिया। इसका यह अर्थ न लिया जाए कि हमारे यहां पानी की किल्लत नहीं है। देश का एक बड़ा क्षेत्र केवल बरसात और कुओं पर ही निर्भर है। जहां पानी है वहां भी सौ तरह के झंझट हैं। उदाहरण के लिए हम बात करते हैं पंजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान के उस हिस्से की जो विगत सत्तर-अस्सी सालों से नहरों पर ही निर्भर है। इस क्षेत्र में पानी की तथा-कथित कमी के कारण हैं- इन राज्यों के राजनैतिक झगड़े, भ्रष्टाचार, नहरों की जर्जर हालत और सिंचाई क्षेत्र में वृद्धि।
ऐसे में, हाल ही में घोषित राष्ट्रीय जल अभियान की सफलता की उम्मीद करना बेमानी है। यह तभी संभव है जब हर व्यक्ति पानी का महत्व समझे। इस दिशा में कार्यरत मंत्रालयों और विभागों को एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के बजाय समन्वित तरीके से समस्या के समाधान हेतु प्रयास करें। यदि हम कुछ संसाधनों को और विकसित करने में कामयाब हो जाएं तो काफी मात्रा में पानी की बचत हो सकती है। उदाहरण के लिए यदि औद्योगिक संयंत्रों में अतिरिक्त सावधानी से करीब बीस से पच्चीस प्रतिशत तक पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है। बहुत से देशों में इन कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी को शोधित कर खेती में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन दुर्भाग्य से हमारे देश में औद्योगिक क्षेत्रों में ही सबसे ज्यादा पानी की बर्बादी होती है। दूसरा वर्षा जल को सहेजने और पुन: भूमि में प्रविष्ट करवाने के लिए घरों, खासतौर पर बड़े-बड़े भवनों और स्कूलों आदि में जल-संग्रहण (वाटर हार्वेस्टिंग) व्यवस्था अनिवार्य हो तो यह जल की बचत में एक अहम कदम होगा। हालांकि इस बारें में कानून है कि सौ वर्गमीटर से बड़े सभी भवनों में जल-संग्रहण प्रणाली लगाना जरूरी है, लेकिन सरकार के जो विभाग इस कानून की पालना के जिम्मेदार हैं, खुद उनके अपने बड़े-बड़े भवनों में यह प्रणाली नदारद है। सार यह है कि बरसात और औद्योगिक इस्तेमाल के पानी को सावधानी से सम्भाल लिया जाए तो कम से कम तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए तो नहीं लड़ा जाएगा।