गन्ने का घासीय प्ररोह रोग
भारत की एक प्रमुख नकदी फसल है। इसकी व्यापक रूप से भारत के विभिन्न प्रान्तों में खेती की जाती है। देश में गन्ना शर्करा उत्पादन का मुख्य स्रोत है। भारत में गन्ने की फसल को कई रोग प्रभावित करते हैं, जिनमें ग्रासी शूट रोग मुख्य हैं। यह फायटोप्लाजमा द्वारा होता है। यह रोग प्रायः एल्बिनो, ग्रासी शूट, विवर्ण रोग तथा घासीय प्ररोह आदि नामों से भी जाना जाता है। भारत में सर्वप्रथम यह रोग महाराष्ट्र में वर्ष 1955 में देखा गया। विश्व में यह रोग थाईलैण्ड, वियतनाम, श्रीलंका, बांग्लादेश, चीन एवं पाकिस्तान देशों में गन्ने की फसलों को प्रभावित करता है। बावक फसलों की अपेक्षा इस रोग का आपतन पेड़ी फसलों को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है।
भारत में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, मध्य एवं पश्चिम उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा के विभिन्न चीनी मिल परिक्षेत्रों में फायटोप्लाज्मा जनित घासीय प्ररोह रोग का आपतन अधिक देखा जाता है। इसके कारण समय से प्रभावी नियंत्राण न होने की स्थिति में मिल योग्य गन्नों की संख्या में काफी कमी आ जाती है एवं उपज अत्यधिक प्रभावित होती है।
लक्षण
बुआई के कुछ दिनों के बाद ही इस रोग के लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं। विशेष रूप से इस रोग का आपतन वर्षाकाल में अधिक होता है। रोगी पौधे के अगोले की पत्तियों में हरापन बिल्कुल समाप्त हो जाता है, जिससे पत्तियों का रंग दूधिया हो जाता है। नीचे की पुरानी पत्तियों में मध्य शिरा के समानान्तर दूधिया रंग की धारियां पड़ जाती हैं। रोगग्रसित पौधों में अनेक पतले-पतले कल्ले निकलते हैं और उनकी पत्तियों का हरापन लगभग समाप्त हो जाता है। रोगग्रसित पौधों की वृद्धि रुक जाती है तथा गन्ने के तने बौने व पतले हो जाते हैं। इसके कारण रोगग्रसित पौधा (झाड़ीनुमा) घास की तरह दिखाई पड़ता है। रोगी पौधे में रोग की भीषणता के कारण मात्रा 1 या 2 गन्ने ही बन पाते हैं या कभी-कभी पूरे थान में एक भी गन्ना मिल में पेरने योग्य नहीं बन पाता है। रोगी गन्नों में आंखें अपरिपक्व अवस्था में ही अंकुरित हो जाती हैं तथा उनमें से सफेद पत्तियां निकलती हैं। रोगी पौधों में जड़ें अविकसित रह जाती हैं। इस रोग के कारण पौधों का हरापन कभी-कभी बिल्कुल गायब हो जाता है। इसके फलस्वरूप कल्ले सूख जाते हैं तथा खेत खाली हो जाता है। इसके अतिरिक्त इस रोग के कारण फसल में मिल योग्य गन्ने कम तथा पतले बनते हैं, जिससे उपज में खासी गिरावट आ जाती है। इस रोग से ग्रसित गन्नों में सुक्रोज कम होता है। इसके साथ ही रिड्यूसिंग शुगर बढ़ जाती है, जिससे सुक्रोज के क्रिस्टल नहीं बनते हैं। अत्यधिक प्रकोप की स्थिति में प्रायः 30-40 प्रतिशत तक जमाव व उत्पादकता प्रभावित होती है।
प्रसार
भारत में यह रोग डेलिटोसिफेलस बलगेरिस नामक भुनगा (प्लांट हॉपर) एवं एक्सिनियेटस साइटिस, पाईरिला परप्यूसिला नामक पर्णपफुदकों की प्रजाति के कीटों द्वारा फैलता है। ये इस रोग के प्रमुख वाहक हैं। गन्ने का यह रोग रोगी गन्नों को बीज के रूप में प्रयोग करने से फैलता है।
प्रबंधन
रोगरोधी प्रजातियों को बोना, इस रोग की रोकथाम का उचित उपाय है। गन्ने के टुकड़ों को 520 सेल्सियस तापमान पर गर्म जल से उपचारित करने व 0.1 प्रतिशत टेट्रासाइक्लिन का बोने से पूर्व बीज उपचार करने पर रोग का प्रकोप काफी कम हो जाता है। यह रोग लीफ हॉपर एवं प्लांट हॉपर द्वारा ग्रसित खेतों से स्वस्थ गन्ने के खेतों में फैलता है। इमेडियेलोप्रिड एवं थाईमेक्सान कीटनाशक दवाओं का उपयोग कर इस रोग को फैलने से रोका जा सकता है। समय-समय पर गन्ने के खेतों का निरीक्षण कर रोगी गन्ने के थानों को नष्ट कर देना एवं उन्हें मिट्टी से ढक देना भी रोग प्रबंधन में कारगर उपाय है। रोगी गन्नों को बीज के रूप में उपयोग न करना एवं पेड़ी फसल न लेकर फसल चक्र अपनाना भी इस रोग की रोकथाम का उचित उपाय है। गन्ने की फसलों में फायटोप्लाज्मा रोगों से मुक्ति के लिए संक्रमित गन्ने के टुकड़ों को 4 घंटे तक 540 सेल्सियस पर गर्म हवा एवं इसके बाद 2 घंटे तक 540 सेल्सियस तापमान पर गर्म जल के साथ उपचारित करने की संस्तुति की गई है।