उत्पादन कम होने के कारण
1970 तक देश के अधिकांश भागों में औसत उत्पादन स्तर अधिकांश विकसित व कई विकासशील देशों (इण्डोनेशिया, फ़िलिपीन्स, मेक्सिको, ब्राजील, ईसीएम के देश आदि) से भी काफ़ी कम रहा, किन्तु 'हरित क्रान्ति' एवं निरन्तर सरकार द्वारा कृषकों को लाभप्रद मूल्य दिलाने की प्रवृत्ति से कृषक अनेक प्रकार की नई तकनीकि अपनाते रहे हैं। रबी की फ़सल काल में सरसों एवं खरीफ मेंसोयाबीन व मूंगफली का बढ़ता उत्पादन सरकार द्वारा ऊँची कीमतें निर्धारित करने से ही सम्भव हो सका है। आज राजस्थान सरसों एवं तिल, गुजरात मूंगफली एवं मध्य प्रदेश सोयाबीन उत्पादक प्रमुख प्रदेश बन गये हैं। भाग्यवादी भारतीय किसान कृषि उत्पादन संबंधी उसे पर्याप्त अनुभव नहीं हैं, किन्तु अनेक बार शीत लहर, पाला व अनेक बार ओले अथवा सर्दी फ़सल नष्ट कर देते हैं। उसे अपने श्रम का उचित प्रतिफल प्राप्त नहीं हो पाता। अतः वह कृषि को व्यवसाय के रूप में नहीं बल्कि, जीवन-यापन की प्रणाली के रूप में अपनाता है। स्वभवतः वह वांछनीय मात्रा में उत्पादन उपलब्ध नहीं कर सकता। किसान की इसी भाग्यवादी प्रवृत्ति में परिवर्तन करने की एक रीति यह है कि उसे अधिकाधिक शिक्षित करने का प्रयत्न किया जाए। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक संकटों का सामना करने के लिये वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करने की चेष्टा करनी चाहिए। खाद का दुरुपयोग भारत में पशुओं की संख्या अत्यधिक है और उनके गोबर तथा मूत्र से प्रतिवर्ष 2.89 करोड़ टन खाद प्राप्त की जा सकती है। इसके अतिरिक्त कम्पोस्ट तथा अन्य बेकार वस्तुओं से लगभग 93 लाख टन खाद उपलब्ध हो सकती है। दुर्भाग्य से गोबर का अधिकांश भाग ईंधन के रूप में जला दिया जाता है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य सस्ते ईंधन का अभाव है। फलतः खेतों को पर्याप्त मात्रा में खाद नहीं मिल पाती, जिससे उत्पादन की स्थिति अच्छी नहीं है। वर्तमान में कृषि के विकास में रासायनिक उर्वरकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पोषण की दृष्टि से उर्वरकों की प्रति-हेक्टेअर खपत वर्ष 2005-2006 के 10.5 किग्रा. से बढ़कर 2008-2009 में 128.6 किग्रा. हो गई। तथापि, मृदा की सीमांत उत्पादकता अभी भी चुनौती बनी हुई है। इसके लिये मृदा विश्लेषण के आधार पर वर्धित एनपीके के अनुप्रयोग और उचित पोषणों के अनुप्रयोग की आवश्यकता है। अब दस लाख से ऊपर जनसंख्या वाले महानगरों में ठोस अपशिष्टों के निपटान एवं सीवेज अपशिष्ट निपटान के लिए विशेष यान्त्रिक प्रणालियां नगरों की सीमा से दूर विकसित की जा रही हैं। कम्पोस्ट खाद घरेलू गैस, सिंचाई का उपयोगी जल, अन्य उपयोगी पदार्थ व गैस विभिन्न प्रक्रियांओं द्वारा प्राप्त की जाती हैं। इससे खेतों की उत्पादकता बढ़ने, भू-अपरदन घटने एवं ईंधन की आपूर्ति होने से लकड़ी व वनों पर दबाव भी घटता है। सिंचाई के साधनों का सीमित विकास भारतीय कृषि प्रधानतः मानसून पर निर्भर है, क्योंकि आज भी कुल कृषि योग्य भूमि के 41 प्रतिशत में सिंचाई होती है। देश में वृहत और मध्यम सिंचाई योजनाओं के जरिए सिंचाई की पर्याप्त संभवनाओं का सृजन किया गया है। देश में सिंचाई की कुल संभावना वर्ष 1991-1992 के 81.1 मिलियन हेक्टेअर से बढ़कर मार्च 2007 तक 102.77 मिलियन हेक्टेअर हो गई है। मानसून पर इतनी अधिक निर्भरता का प्रभाव यह होता है कि देश के अधिकांश भाग की कृषि प्रकृति की दया पर निर्भर है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब तक सिंचाई की व्यवस्था नहीं होती, तब तक भूमि में खाद देना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि खाद का यथोचित प्रयोग करने के लिये काफ़ी जल चाहिए, अन्यथा सामान्य खेती के सूखने का भी भय रहता है। सिंचाई की यह कमीं कम वर्षा वाले पठारी भागों एवं सारे उत्तर पश्चिमी भारत में विशेष रूप से महसूस की जाती है, क्योंकि औसत वर्षा 100 सेण्टीमीटर से भी कम एवं वर्षा की अनिश्चितता 35 प्रतिशत से भी अधिक रहती है।