लहसुन कि आर्गनिक ,जैविक, उन्नत खेती व शल्क कंदीय सब्जिया
: जलवायु -
लहसुन को ठंडी जलवायु कि आवश्यकता होती है वैसे लहसुन के लिए गर्म और सर्दी दोनों ही कुछ कम रहें तो उत्तम रहता है अधिक गर्म और लम्बे दिन इसके कंद निर्माण के लिए उत्तम नहीं रहते है छोटे दिन इसके कंद निर्माण के लिए अच्छे होते है इसकी सफल खेती के लिए 29.76-35.33 डिग्री सेल्सियस तापमान 10 घंटे का दिन और 70 % आद्रता उपयुक्त होती है समुद्र तल से 1000-1400 मीटर तक कि ऊंचाई पर इसकी खेती कि जा सकती है .
: भूमि -
इसके लिए उचित जल निकास वाली दोमट भूमि अच्छी रहती है भारी भूमि में इसके कंदों का समुचित विकास नहीं हो पाता है इसकी तैयारी प्याज कि खेती के समान ही कि जाती है .
: प्रजातियाँ -
भारत में लहसुन कि अधिकतर स्थानीय किस्मे ही उगाई जाती है क्योंकि उसकी उन्नत किस्मों के विकास पर कम ध्यान दिया गया है लहसुन कि गांठों कि संख्या और नाम के आधार पर किस्मों के नाम दिए जाते है गांठों के आधार पर एक गांठ और अनेक पुत्तियों वाली किस्मे प्रमुख है अनेक पुत्तियों वाली किस्मों में मदुराई पर्वतीय लहसुन , मदुराई मैदानी लहसुन , जामनगर लहसुन , पूना लहसुन , नासिक लहसुन आदि प्रमुख है .
लहसुन दो प्रकार का होता है एल सफ़ेद और दूसरा लाल , खाने के लिए सफ़ेद लहसुन का ही इस्तेमाल किया जाता है जबकि लाल लहसुन में अधिक कड़वाहट होने के कारण इसका औषधियों में इस्तेमाल किया जाता है सफ़ेद लहसुन कि किस्मों को उनके कंदों को छोटे व बड़े आकार के आधार पर दो भागों में विभक्त किया गया है जिनकी प्रमुख किस्मे नीचे दी गई है .
छोटी गांठो वाली : किस्मे -
तहीती , टाइप -56-4 : -
बड़ी गांठो वाली : किस्मे -
रजाली गद्दी , फावरी सोलन , उत्तरी भारत में विशेष रूप से निम्न किस्मे उगाई है जाती -
नासिक लहसुन , हिसार स्थानीय , सोलन , अगेती कुवारी , 56टाइप -4 , को . 2, उत्तरी भारत में उगाई जाने वाली कुछ उन्नत किस्मों के चारित्रिक गुणों का उल्लेख नीचे किया है .
56-4 टाइप : -
इस किस्म का विकास पंजाब कृषि वि . वि . द्वारा चयन विधि द्वारा किया गया है इस किस कि गांठे आकार में छोटी और सफ़ेद रंग कि होती है प्रत्येक गांठ में 25-34 पुत्तियाँ होती है यह प्रति हे . 150-200 क्विंटल तक उपज दे देती है .
: सोलन -
इस किस्म का विकास हिमाचल प्रदेश कृषि वि . वि . द्वारा किया गया है पौधों कि पत्तियां अन्य किस्मों से काफी चौड़ी , लम्बी और गहरे रंग कि होती है इस किस्म कि गांठे आकार में बड़ी और सफ़ेद रंग कि होती है प्रत्येक गांठ में चार ही पुत्तियाँ होती है जो काफी मोटी होती है अन्य किस्मों कि तुलना में यह अधिक उपज देने वाली किस्म है .
नवीनतम उन्नत : किस्मे -
को . 2: -
इस किस्म का विकास कोयाम्बुर स्थित तमिलनाडूकृषि वि . वि . द्वारा किया है इसके कंद सफ़ेद होते है जो देखने में आकर्षक लगते है यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है .
आई . सी . - 49381 : -
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है यह किस्म अधिक उपज देती है इसकी 160-180 दिन में फसल तैयार हो जाती है .
यमुना (-1 जी ) सफ़ेद : -
यह किस्म १५० -१६० दिनों में तैयार हो जाती है इसके प्रत्येक शल्क कंद ठोस और बाह्य त्वचा चांदी कि तरह सफ़ेद , गुदा क्रीम रंग का होता है शल्क कंदों का विकास ४ -४ .५ से . मी . होता है २५ -३० शल्क कंद एक क्लोव में पाए जाते है यह जाति रोग के प्रति सहन शील है १५० - १७५ क्विंटल प्रति हे उपज . हो जाती है यह किस्म सम्पूर्ण भारत में उगाने के लिए अखिल भारतीय सब्जी सुधार परियोजना के द्वारा संस्तुति कि जा चुकी है |.
एग्री फाउंड व्हाईट (41 जी :) -
यह किस्म १५० - १६० में तैयार हो जाती है शल्क कंद ठोस त्वचा चांदी जैसी , गुदा क्रीम के रंग , ग्लोब बड़े और दिनों २० -२५ प्रत्येक शल्क कंद में पाया जाता है औसत ३ .५ लहसुन - ४ से . मी . व्यास वाले कंद होते है यह किस्म गुजरात , मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र , कर्नाटक आदि प्रदेशों के लिए अखिल भारतीय समन्वित सब्जी सुधार परियोजना के द्वारा संस्तुति कि जा चुकी है इसकी उपज १३० - १४० क्विंटल प्रति हे . हो जाती है | .
यमुना सफ़ेद 2 ( जी 50 :) -
शल्क कंद ठोस , त्वचा सफ़ेद गुदा , क्रीम रंग का होता है यह किस्म 165-170 दिन में तैयार हो जाती है रोगों जैसे बैंगनी धब्बा ( पर्पिल ब्लांच ) और झुलसा रोग के प्रति सहन शील होती है इसकी 150-155 उपज क्विंटल प्रति हे . हो जाती है यह किस्म मध्य प्रदेश के लिए अच्छी पाई गई है | .
जी -282 : -
शल्क कंद सफ़ेद , बड़े आकार ( 5.87 से.मी. व्यास ) ठोस होते है प्रत्येक क्लोव 1.04-1.05 मोटा होता है एक क्लोव 205 ग्राम से 2.8 ग्राम तक का होता है 15-18 क्लोव प्रति शल्क कंद पाए जाते है यह किस्म 140-150 दिनों में तैयार हो जाती है यह किस्म निर्यात कि दृष्टि से उत्तम है 175-200 क्विंटल प्रति हे उपज . मिल जाती है .
एग्रीफाउंड पार्वती ( जी 313 :) -
इसकी बुवाई सितम्बर अक्टूम्बर में करते है यह किस्म पहाड़ों में उगाने के लिए उपयुक्त है यह दिनों में तैयार हो जाती है इसके शल्क कंद बड़े , हल्का सफ़ेद बैंगनी रंग मिश्रित और 250-170 किस्म 10-12 क्लोव वाले होते है शल्क कंदों का व्यास 5 -7 से.मी. होता है 4-5.5 ग्राम वाले क्लोव क्रीम रंग के होते है यह किस्म भी निर्यात के लिए उत्तम पाई गई है इसकी उपज 175-200 तक मिल जाती है .
आई . सी . 42891 : -
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है यह किस्म अधिक उपज देती है यह फसल 160-180 दिन में तैयार हो जाती है , |
1 सेलेक्शन : -
इस किस्म का विकास चौधरी चरण सिंह हरियाणा वि . वि . द्वारा किया गया है यह किस्म अधिक उपज देने वाली है .
नवीनतम : किस्मे -
वी .एल . जी . 7 : -
जम्मू कश्मीर , हिमाचल पदेश उत्तर प्रदेश कि पहाड़ियों , बिहार पंजाब में उगाने कि सिफारिश कि गई है | .
बीज बुवाई / पौध : रोपण -
लहसुन कि बुवाई का समय इस बात पर निर्भर करता है कि उसे कहाँ उगाया जा रहा है
- मैदानी क्षेत्रों में सितम्बर से नवम्बर तक .
- पहाड़ी क्षेत्रों में मार्च से मई तक .
: बीजोपचार -
बीज को बोने से पहले कैरोसिन या गोमूत्र द्वारा उपचारित करके बोना चाहिए |.
बुवाई किविधि : -
लहसुन कि बुवाई कुढ़ों में छिटकवां डबलिंग विधि से कि जाती है अच्छी उपज के लिए लहसुन कि बुवाई डबलिंग विधि से करनी चाहिए इसके लिए दुरी निम्न प्रकार से रखनी चाहिए -
से पंक्ति कि 15 दुरी पंक्ति से.मी.
पौध से पौध कि 7.5 दुरी से.मी.
बोने कि गहराई - 5 से.मी.
आर्गनिक : खाद -
लहसुन कि अधिक पैदावार लेने के लिए उसमे एक एकड़ के हिसाब से 20-25 टन गोबर कि सड़ी हुई खाद को समान मात्रा में बिखेर दें
25-30 फसल दिन कि हो जाए तब उसमे मैनिशियम वजन 100 ग्राम . 400 पानी मिलाकर अच्छी तरह घोल बनाकर पम्प द्वारा छिडकाव करें और प्रति 15 - 20 दिन के अंतर से दूसरा व तीसरा छिडकाव करना चाहिए | लीटर .
: सिचाई -
गांठों के समुचित विकास के लिए भूमि में पर्याप्त नमी का होना अत्यंत आवश्यक है बुवाई के तुरंत बाद सिचाई कर दें उसके बाद 10-15 दिन के अंतर से सिचाई करें . |
खरपतवार : नियंत्रण -
खरपतवारों कि रोकथाम के लिए इसकी - निराई गुड़ाई अवश्य करें पहली निराई - गुड़ाई हैण्ड हैरो या खुरपी द्वारा बोने के 20-25 दिन बाद करें इसके बाद दूसरी निराई - गुड़ाई इसके पहली के 20-25 दिन ( 40-50 दिन ) बाद करें इसके बाद - निराई गुड़ाई कि क्रिया नहीं करनी चाहिए .
कीट नियंत्रण : -
: थ्रिप्स -
ये कीड़े छोटे और पीले रंग के होते है जो पत्तियों पर सफ़ेद धब्बा बना देते है ये कीड़े पत्तियों का रस चूसते है .
: रोकथाम -
इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को नीम तेल के साथ मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर मि.ली. 250 प्रति पम्प द्वारा तर - बतर कर खेत में छिडकाव करें .
रोग : नियंत्रण -
बैंगनी ( पर्पिल ब्लांच ) धब्बा : -
यह रोग आल्टरनरिया पोरी द्वारा होता है पत्तियों और तने पर - छोटे छोटे गुलाबी रंग के धब्बे पड़ जाते है .
: रोकथाम -
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर मि.ली. 250 प्रति पम्प द्वारा - तर बतर कर खेत में छिडकाव करें .
प्याज का कंडुआ : रोग -
यह रोग यूरोसाईटिस सपुली नामक फफूंदी के कारण होता है बीज के स्थान पर काले रंग के पिंड बन जाते है जो इस रोग के जीवाणु होते है .
: रोकथाम -
इसकी रोकथाम के लिए बीज को कैरोसिन या गोमूत्र द्वारा उपचारित कर बोना चाहिए .
स्टेमफिलियम ब्लाईट : -
यह पत्तियों का प्रमुख रोग है आर्द्र मौसम में यह रोग अधिक लगता है यह रोग फफूंदी के कारण होता है .
: रोकथाम -
रोकथाम इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को नीम तेल के साथ मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर छिड़काव तर बतर करे |
: खुदाई -
इसकी फसल 4 4 1 / 2 महीने में तैयार हो जाती है फसल तैयार हो जाने पर पत्तियां पिली पड़कर मर जाती है कंदों को पौध सहित भूमि से - उखाड़ लिया जाता है इसके बाद पत्तियों के ऊपर से बांध कर - छोटे छोटे बण्डल बनाकर रख दिया जाता है 2-3 दिन में धुप में सुखाकर तत्पश्चात ऊपर का भाग काट दिया जाता है | जिन्हे
: उपज -
लहसुन कि उपज उसकी जातियों , भूमि और फसल कि देख - रेख पर निर्भर करती है प्रति हेक्टेयर 100 से 200 क्विंटल उपज मिल जाती है जूनागढ़ में लहसुन कि उपज जी.जी. 2 कि अधिकतम उपज 8.8 टनप्राप्त हुयी |