उपेक्षा का दंश झेलते किसान
कभी खाद्यान्न संकट से गुजरने वाला भारत आज इतना आत्मनिर्भर हो चुका है कि अब वह दूसरे देशों को भी इसका निर्यात करता है। इस उपलब्धि के बावजूद हम देश को कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने वाले किसान को ही भूल गए हैं जो आज भी आत्मनिर्भरता की बजाय गुरबत की जिन्दगी गुजारता है। देश का पेट भरने वाला यह किसान स्वयं का पेट भरने के लिए जिन्दगी भर संघर्ष करता रह जाता है और कभी-कभी इतना मजबूर हो जाता है कि उसके सामने आत्महत्या के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता।
तरक्की एवं विकास के तमाम दावों के बावजूद अगर किसान विपन्न हो और उसे कर्ज के बोझ व प्रकृति की मार के कारण आत्महत्या करनी पड़ रही हो तो कृषि की दुरावस्था का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
1990 के दशक से भारत में गरीबी और आर्थिक कमजोरी के कारण किसानों की आत्महत्या की रिपोर्ट प्रकाशित होना शुरू हुई थी जो अब तक थमी नहीं है। आर्थिक तंगी के चलते मुख्य रूप से महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, पंजाब, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्य किसानों की आत्महत्या का केन्द्र बनते गए।
कृषि मन्त्रालय एवं राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के मुताबिक, साल 2009 में 17, 368, 2010 में 15,694, 2011 में 14,027 और साल 2013 में 11,772 किसानों के अत्महत्या की स सूचना मिली।
यक्ष प्रश्न यह है कि इन आत्महत्याओं का जिम्मेदार कौन है? किसानों द्वारा आत्महत्या करने के पीछे एक ओर जहाँ सरकार जिम्मेदार है, वहीं दूसरी ओर बड़ी कम्पनियों और व्यापारियों की मुनाफाखोर प्रवृत्ति भी। उर्वरकों की खरीदारी से लेकर कृषि उत्पाद को मण्डियों में लाने तक, हर जगह किसानों का शोषण होता है।
नेशनल और इंटरनेशनल कम्पनियों ने बाजार पर अपना एकाधिकार जमा लिया है, जिन पर सरकारों का कोई नियन्त्रण नहीं है। दुर्भाग्य से शासन द्वारा इन पर नियन्त्रण की कोई पहल करना तो दूर, इस दिशा में अब तक विचार-विमर्श भी नहीं किया गया है। आँकड़ों के अनुसार किसानों की संख्या में कमी आई है।
वर्ष 1991 में देश में जहाँ 11 करोड़ किसान थे, वहां 2001 में उनकी संख्या घटकर 10.3 करोड़ रह गई जबकि 2011 में यह आँकड़ा सिकुड़कर 9.58 करोड़ हो गया। इसका अर्थ यही है कि रोजाना 2,000 से ज्याद किसानों का खेती से मोहभंग हो रहा है। आजादी के बाद से आज तक कृषि क्षेत्र सरकार द्वारा हमेशा उपेक्षित रहा है।
पंचवर्षीय योजनाओं में भी कृषि उपेक्षित रही है। भारत में कृषि की कीमत पर औद्योगिक विकास को तरजीह दिया गया लेकिन अब देश के नीति-निर्माताओं को यह समझना होगा कि औद्योगीकरण से देश का पेट नहीं भरने वाला है। कृषि से जुड़े लोगों के निरन्तर संसद में रहने के बावजूद न तो सिंचाई सुविधाओं का पर्याप्त विस्तार हुआ, न कृषि उपजों को उचित दाम मिला और न ही आधुनिक तकनीक से कृषि करने में किसान समर्थ हो पाया।
कारण साफ है कि किसाने होने के बावजूद सांसदों ने कृषि के बारे में सोचा ही नहीं। किसानों के लिए आन्दोलन भी उभरे लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। शरद जोशी, महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों के अधिकारों के लिए लम्बा संघर्ष किया। उनका आन्दोलन देश के कई राज्यों में भी फैला।
शरद जोशी और टिकैत ने अपने-अपने राज्यों में किसानों को संगठित कर उन्हें पहली बार निर्णायक राजनीतिक शक्ति बनाया। कालान्तर में जोशी और टिकैत के आन्दोलन राजनीति की भेंट चढ़ गए तथा कृषि क्षेत्र और किसान बदहाल ही रहा।
आज भी किसानों की आत्महत्या के मामले नियन्त्रित नहीं हो पा रहे हैं। और उनकी कोई खैर-खबर पूछने वाला भी नहीं है। प्राकृतिक आपदाओं की मार भी इन किसानों को झेलनी पड़ती है। कभी अत्यधिक बारिश तो कभी बारिश की कमी से फसलों को काफी नुकसान पहुँचता है, ऐसे में पूरे देश पर इसका असर पड़ता है।
खेती चौपट होने से देश के नागरिकों को जहाँ महँगाई का सामना करना पड़ता है, वहीं किसानों को भी आर्थिक रूप से नुकसान उठाना पड़ता है। कुल मिलाकर यदि देश का किसान परेशान है तो देश के लोगों पर भी इसका सीधा प्रभाव पड़ता है। प्राकृतिक आपदा आने पर किसानों की सबसे ज्यादा फजीहत होती है। किसानों को उतना मुआवजा नहीं मिल पाता जितना कि उनका नुकसान होता है।
कई बार संसद में भी किसानों की बातों को नहीं उठाया जाता है। प्राकृतिक आपदा ही नहीं, ऐसी कई समस्याएँ हैं जिनका निराकरण नहीं पाता है। आज भी कई किसान ऐसे हैं जो पुराने ढर्रे पर ही खेती करते हैं, ऐसे में वे उतनी पैदावार नहीं ले पाते, जितनी होनी चाहिए। पैसे के अभाव में आज भी कई किसान आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं।
उन्नत किस्म की खाद व बीज की किल्लत तो हमेशा ही बनी रहती है। बुआई के बाद खेती के लिए जरूरी खाद भी किसानों को महँगे दामों में खरीदनी पड़ जाती है। जनप्रतिनिधि भी उनकी नहीं सुनते। मजबूरन किसानों को महंगे दामों पर बीज, खाद की खरीदी करनी पड़ती है लेकिन फसल तैयार होने के बाद इसका मनमाफिक दाम उन्हें नहीं मिल पाता है।
दुखद है कि 10 किसान परिवारों में से प्रति एक परिवार को अक्सर भूखे पेट ही रहना पड़ता है। लगभग 36 प्रतिशत किसानों को रहने के लिए आशियाना तक मयस्सर नहीं है। उन्हें झुग्गी-झोपड़ियों में अपना जीवन बसर करना पड़ रहा है।
कभी खाद्यान्न संकट से गुजरने वाला भारत आज इतना आत्मनिर्भर हो चुका है कि अब वह दूसरे देशों को भी इसका निर्यात करता है। इस उपलब्धि के बावजूद हम देश को कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने वाले किसान को ही भूल गए हैं जो आज भी आत्मनिर्भरता की बजाय गुरबत की जिन्दगी गुजारता है।
देश का पेट भरने वाला यह किसान स्वयं का पेट भरने के लिए जिन्दगी भर संघर्ष करता रह जाता है और कभी-कभी इतना मजबूर हो जाता है कि उसके सामने आत्महत्या के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता।
यदि सरकार ने किसानों को खेती से लाभ दिलाने के लिए दीर्घकालिक उपायों पर गम्भीरता से विचार नहीं किया तो स्थिति भयानक हो जाएगी। यदि किसान रोजी-रोटी के लिए अन्य क्षेत्रों की ओर रुख कर जाएँ, तो भारत को फिर से खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि केन्द्र में आसीन मोदी सरकार किसानों के हित में जल्द-से-जल्द क्रान्तिकारी कदम उठाएगी ताकि किसानों के अच्छे दिन आ सकें।