किसान आज भी गुलाम
प्रथम विश्व युद्ध के समय केन नामक पाश्चात्य अर्थशास्त्री ने विकास की नई अवधारणा प्रस्तुत की जिसके अनुसार, कृषि को अर्थव्यवस्था के मूलाधार होने को नकारते हुए उद्योगों के आधार पर नई विश्व अर्थव्यवस्था को महत्व दिया गया। कारण कि प्रथम विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड की माली हालात काफी पतली हो चुकी थी ऐसे में इस अवधारणा या सिध्दांत पर इंग्लैण्ड ने अमल करना प्रारंभ किया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद इंग्लैण्ड ने अपने कब्जे वाले देशों के प्राकृतिक संसाधनों के बूते पर केन की इस अवधारणा को अमलीजामा पहनाना प्रारंभ कर दिया। भारत जैसे कई देशों से विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चा माल मनमाने मूल्य पर खरीदा गया और इंग्लैण्ड की फैक्ट्रियों में तैयार गुणवत्ताहीन माल मनमाने मूल्य पर इन्ही गुलाम देशों में खपाया गया यानि क्रय और विक्रय दोनों में ही लाभ ही लाभ तो फिर दिनों में आर्थिक रूप से धराशायी दिखाई देने वाले इंग्लैण्ड के दिन फिरने लगे उसकी आर्थिक स्थिति में चमत्कारिक परिवर्तन दिखाई देने लगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तो लगभग सारे विश्व के देशों ने केन के इस विचार को मानो स्वीकार ही कर लिया, 1945 के बाद तो विश्व के सभी देशो में कृषि की उपेक्षा करके उसकी कीमत पर भारी-भरकम उद्योग लगने प्रारंभ हो गए। विकास की इस अंधी दौड़ में पूरी दुनिया के देशो को तीन श्रेणियों में बांटा गया जिसके अनुसार, (1) जहां उद्योगो की बहुतायत है — विकसित देश (2) जहां कुछ कम औद्योगिक विकास है या उद्योग लग रहे है — विकासशील देश (3) जहां नाम मात्र के उद्योग है अविकसित देश। स्वयं को विकसित देश साबित करने के लिए अपने अधीनस्थ गुलाम देशों के प्राकृतिक व अन्य भौतिक संसाधनों का भरपूर शोषण किया गया जिससे शासक और अमीर हुआ।
कहने को तो भारत 15 अगस्त 1947 को विदेशी दासता की बेड़ियों से मुक्त हो गया था किंतु वास्तव में नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ जिससे कहा जा सकता है कि मात्र सत्ता का हस्तांतरण हुआ था यानि मात्र तंत्र हमारा था किंतु उसमें से स्व के भाव का लोप था। इस कारण से हमारे स्वतंत्र भारत में विभिन्न क्षेत्रों के विकास के लिए जो नीतियां बनी वो विदेशों से प्रेरित थी और वर्तमान में दम तोड़ती दिखाई देती है।
1945 से आज तक मात्र 65 सालों के अल्प समय में ही भौतिकतावादी नीतियों के कारण पूरी मानवता पर संकट के बादल मण्डराते दिखाई दे रहे है, प्रकृति के अत्यधिक शोषण के कारण आज पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, हिम गलेशियर तेजी से पिघल रहे है, समुद्रों को जलस्तर बढ़ रहा है, विभिन्न प्रकार के जलवायुवीय परिवर्तन हो रहे है, कई प्रकार के जीव-जंतु विलुप्त हो चुके है, फसलों के उत्पादन कम होने लगे है, रायायनिक खादों के प्रयोग के कारण उर्वरा भूमि बंजर होती जा रही है। ऐसे में पूरी दुनियां के देश यह महसूस करने लगे है कि अगर शीघ्र कुछ नहीं किया गया तो आने वाले समय में पृथ्वी से मानवता का नामो-निशान मिट जायेगा। आज पाश्चात्य देश कृषि में रायायनिक खादों, कीटनाशको के प्रयोग, जैव-विविधतायुक्त (जीएम) उत्पादों आदि के बारे में निषेधात्मक रूख अपनाने लगे है किंतु कृषि के जन्मदाता भारत में इस दिशा में ऐसे प्रयास हो रहे है कि मानो यहां की सरकारों को स्वयं भारत से कृषि को समाप्त करने की जल्दी है। इस बारें में स्वतंत्रता के बाद भारत की विभिन्न सरकारों द्वारा कृषि की उपेक्षा करने के कुछ तथ्य देशवासियों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है :-
भारत को 15 अगस्त 1947 को खंडित स्वातंत्र्य मिला और 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ। दिनांक 11 मई 1951 को प्रथम संविधान संशेधन किया जिसे नौवें अनुच्छेद के नाम से जाना जाता है इस अनुच्छेद में प्रावधान है कि जो कानून इसमें डाल दिया जायेगा उस पर भविष्य में भारत की संसद भी विचार नहीं कर पायेगी। इसमें सर्वप्रथम जो कानून डाला गया वो था बिहार भूमि अधिग्रहण कानून। अब तक इस अनुच्छेद में लगभग 284 काूननों को डाला जा चुका है जिनमें से 184 कानून भमि अधिग्रहण या भूमि से सम्बधित है।
सन 1834 में ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा अपने औपनिवेशिक हितों को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहण कानून भारत में लागू किया गया था, बाद में भारत की सत्ता ब्रिटेन को हस्तांतरित हो गई किंतु जो भूमि अधिग्रहण सम्बंधी कानून ईस्ट इण्डिया कंपनी के आधिपत्य वाले भू-भाग पर लागू था उसे पूरे भारत पर लागू कर दिया गया। भारत को आजादी मिलने के बाद बने हमारे संविधान में इसे ज्यों का त्यों लागू करने के साथ मात्र इतना ही इसमें जोड़ा गया कि अगर कोई प्रभावित इस प्रक्रिया से संतुष्ट नहीं है तो वो सक्षम न्यायालय की शरण ले सकता है।
जब भारत आजाद हुआ था तो देश की 84 प्रतिशत आबादी गांवों में और 16 फीसदी आबादी शहरों में निवास करती थी किंतु आज शहरी क्षेत्र में निवास करने वालों की संख्या बढ़कर 36 प्रतिशत व ग्रामवासियों की संख्या 64 प्रतिशत हो गई है। भारत के सकल घरेलु उत्पाद व भारतीय अर्थव्यवस्था के संचालन में खेती की अहम भूमिका है।
वर्तमान केन्द्र सरकार की आगामी बजट सत्र में भारतीय कृषि व्यवस्था को तहस-नहस करने के उद्देश्य से तीन प्रकार के बिल संसद में पेश करने वाली है :
1 – भूमि अधिग्रहण कानून
यद्यपि भूमि अधिग्रहण बिल का कुछ सार उपर दिया जा चुका है किंतु सरकार की मंशा है कि किसानों और उनके हितों के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों के हाथ कानूनी तौर पर बांध दिए जाये। इसके लिए पूर्व में प्रचलित कानूनों में संशोधन करने की सरकार की इच्छा है। सन 2007 में भारत की संसद में भूमि अधिग्रहण से सम्बधित एक प्रस्ताव आया था जिसमें सरकार से मांग की गई थी कि सरकार द्वारा खेती योग्य भूमि का यथासंभव अधिग्रहण न किया जावे, अगर राष्ट्रहित में ऐसा किया जाना आवश्यक हो तो जितनी भूमि को अवाप्त किया जाना है उतनी ही भूमि को कृषि प्रयोजनार्थ तैयार किया जावे। किंतु वह विधेयक आज तक संसद में लम्बित पड़ा हुआ है। भारत में भूमि अधिग्रहण सम्बंधी जितने भी कानून अस्तित्व में है उनमें से हरियाणा प्रदेश के भूमि अधिग्रहण कानून को सबसे अच्छा बताया जाता है। हरियाणा के भूमि अधिग्रहण कानून के बारे में जानकारी है कि किसान की भूमि अधिग्रहण करने पर देय मुआवजे के अतिरिक्त 15000 रूपये प्रति एकड़ प्रति वर्ष लगातार 33 सालों तक देय होगा। अगर किसी आवासीय योजना या अन्य आवश्यक सेवा हेतु अवाप्ति की जाती है तो मुआवजे के अलावा देय राशि दो गुनी प्रदान की जायेगी, इस राशि में प्रतिवर्ष 500 रूपये की बढ़ोत्तरी की जायेगी। यदि किसान की 70 प्रतिशत भूमि अवाप्त की जाती है तो उसे बनने वाली योजना में एक दुकान या मकान जो भी हो दिया जायेगा।
सरकार द्वारा पूर्व में लागू भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने के पीछे विशेष आर्थिक क्षेत्र की स्थापना को गति देने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उन्मुक्त रूप से भूमि प्रदान करने की मंशा है किंतु कृषि भूमि पर औद्योगिक इकाईया स्थापित करने, किसानों को भूमि से बेदखल कर उन्हे श्रमिक बना देने, आने वाले समय में कृषि उत्पादन कम होने के कारण क्या देश को दुष्परिणाम नहीं झेलने होगे। सन 1965 से पूर्व अन्न के लिए हम भारतीय अमेरिका पर आश्रित रहे क्या वही दिन देश को फिर से देखने पड़ेगें।
छठे वेतन आयोग के अनुसार एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का वेतनमान 5200 से 20000 रूपये प्रतिमाह हो गया है किंतु भारत के किसान की हालात एक चपरासी से भी गई गुजरी है कि कृषि भूमि सरकार को सौंप देने (अधिग्रहण के बाद) पर उसे अधिकतम 1500 रूपये प्रतिमाह प्रति एकड़ के हिसाब से सरकार दे रही है!
2 – बीज कानून
सन 2004 में भी संसद में यह बिल पेश हुआ था परंतु कड़े विरोध के कारण ठण्डे बस्ते में चला गया। बहुराष्ट्रीय बीज निर्माता कंपनियों को लाभ देने के लिए सरकार इसी बजट सत्र में फिर से बीज विधेयक भी पेश करने की योजना बना रही है जिसके अनुसार, हर छोटे या बड़े बीज या नर्सरी विक्रेता को अपना पंजीकरण करवाना और प्रत्येक किसान को पंजीकृत बीज बोना आवश्यक होगा। भारत में छोटी जोत के किसानों की संख्या काफी अधिक है और वे कोई स्पेशल बीज क्रय न करके एक-दूसरे से ही थोड़ा बहुत बीज लेकर गुजर कर रहे है। अगर भारत में केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित बीज कानून लागू हो जाता है तो ऐसे किसानों के सामने भारी परेशानी खड़ी हो सकती है, किसान अपना घरेलु बीज प्रयोग में नहीं ला पायेगा और न ही किसी से मांगा गया बीज अपने खेत में बो पायेगा। कानून के प्रावधानों के अनुसार अगर कोई दोषी पाया गया तो उसे 10 साल तक की कैद हो सकती है। देशभर में स्थापित विभिन्न कृषि विश्वविद्यालय बीजों को लेकर तरह-तरह के प्रयोग करते है और कई किसान वहां से बीज लाकर अपने खेतो में भी बोते है। इस कानून के दायरे में ऐसे किसानों के भी आने की आशंका है।
3 — Bio-Technology Regulatory Authority of India (BTRA) Bill
पिछले दिनों तक भारत के मीडिया में बीटी बैंगन ही छाया रहा। किसानों व किसान संगठनों के सशक्त विरोध के कारण सरकार को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना पड़ा और बीटी बैंगन भारत में नहीं आ पाया। सरकार ने अब जीएम उत्पादों (जेनेटिकली मॉडिफाइड) के लिए भारतीय बाजार सुगम बनाने के लिए कमर कस ली प्रतीत होती है। सरकार बजट सत्र में Bio-Technology Regulatory Authority of India (BTRA) Bill ला रही है जिसके संसद में पारित होने के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने जहरीले उत्पाद बेचने और पूरे खाद्य बाजार पर कब्जा करने का रास्ता साफ हो जायेगा, इसमें प्रावधान है कि तीन सदस्यीय निर्णायक मण्डल जिस किसी जीएम उत्पाद को अपनी स्वीकृति प्रदान करेगा यानि पास कर देगा, उस पर कोई भी आक्षेप नहीं लगा पायेगा। कोई भी व्यक्ति अगर बिना साक्ष्यों या वैज्ञानिक रिकॉर्ड के इन उत्पादों के बारे में प्रचार करेगा तो उसे कम से कम 6 माह की कैद या 2 लाख रूपये तक का जुर्माना हो सकता है। सूचना के अधिकार के तहत भी किसी पास किए गए बीज के बारे में जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकेगी, विवादों के निपटारे के लिए इस बिल के तहत एक प्राधिकरण्ा का अपना एक न्यायाधिकरण यानि ट्राइब्यूनल होगा और सुप्रीम कोर्ट को छोड़कर भारत की किसी भी अन्य अदालत में न्यायाधिकरण के निर्णय के विरूद्ध अपील नहीं होगी। आम व्यक्ति के लिए जीएम उत्पाद और संकरित उत्पाद में कोई अंतर नहीं है। वास्तव में संकरण के द्वारा दो या दो से अधिक प्रजातियों के संयोग से जो नई प्रजाति विकसित होती है वो मावनीय स्वास्थ्य और भविष्य के लिए खतरा नहीं होती लेकिन जीएम पद्धति में जीन विनिमय कर नई प्रजाति बनाने के दौरान कई प्रकार के विकार भी नई प्रजाति में आ जाते है जो कि भविष्य में खतरा पैदा कर सकते है। जानकारी में आया है कि पिछले दिनों इटली ने कनाडा से शहद आयात किया। शहद गतव्य स्थान पर पंहुचने पर इटली सरकार ने कनाडा सरकार से इस बात की गारंटी मांगी कि इस शहद को बनाने में जीएम पौधों के फूलों के परागकणों का उपयोग नहीं किया गया है। कनाडा सरकार द्वारा गारंटी देने से इंकार करने पर सारा शहद वापस भेज दिया गया। कहने का तात्पर्य है कि दुनिया के देश जिन जीएम उत्पादों को ठुकरा रहे है उन्हे अपनाने के लिए भारत सरकार लालायित है।
उपरोक्त तीनों प्रकार के प्रस्तावित कानून बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ दिलाने के लिए लाए जा रहे है, भारतीय कृषि पद्धति को अक्षुण्ण रखने और पर्यावरण को, मानवता को, सारे भू-मण्डल को बचाने के लिए हमें सरकार पर दबाब बनाना होगा कि वो मात्र वही योजनाएं लागू करे जो भारतीय कृषि एवं भारत के हित में हो।
रामदास सोनी