भैंस पालन से सम्बंधित जानकारियां.
भारत में 55 प्रतिशत दूध अर्थात 20 मिलियन टन दूध भैंस पालन से मिलता है। भारत में तीन तरह की भैंसें मिलती हैं, जिनमें मुरहा, मेहसना और सुरति प्रमुख हैं। मुरहा भैंसों की प्रमुख ब्रीड मानी जाती है। यह ज्यादातर हरियाणा और पंजाब में पाई जाती है। राज्य सरकारों ने भी इस नस्ल की भैंसों की विस्तृत जानकारी की हैंड बुक एग्रीकल्चर रिसर्च काउंसिल इंडियन सेंटर (भारत सरकार) ने जारी की है। मेहसना मिक्सब्रीड है। यह गुजरात तथा महाराष्ट्र में पाई जाती है। इस नस्ल की भैंस 1200 से 3500 लीटर दूध एक महीने में देती हैं। सुरति इनमें छोटी नस्ल की भैंस है। यह खड़े सींगों वाली भैंस है। यह नस्ल भी गुजरात में पाई जाती है। यह एक महीने में 1600 से 1800 लीटर दूध देती है।
डेयरी उद्योग के लिए शैक्षिक योग्यता
गाय व भैंस पालन उद्योग में प्रशिक्षण प्राप्ति के लिए कोई निश्चित शैक्षिक योग्यता या आयु सीमा निधारित नहीं है। कोई भी युवा, जो डेयरी पालन के क्षेत्र में स्वरोजगार अपनाना चाहता है, वह एडमिशन ले सकता है, लेकिन पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा प्राप्त करने के लिए उम्मीदवार का 60 प्रतिशत अंकों के साथ बीएससी होना जरूरी है।
परामर्श
डेयरी पालन के लिए यह जरूरी है कि गाय व भैंसों को खुली जगह में रखा जाए, लेकिन जाड़ों में बचाव के लिए गाय व भैंसों की लंबाई व चौड़ाई के अनुपात के हिसाब से उनके लिए घर बना हो। कमरों में हवा का आवागमन होता रहे।
डेयरी पालन उद्योग कैसे शुरू करें
यह उद्योग 5 से 10 गाय या भैंस के साथ शुरू किया जा सकता है।
आहार
गाय या भैंसों को एक निश्चित समय पर भोजन दिया जाना जरूरी है। रोजाना खली में मिला चारा दो वक्त दिया जाना चाहिए। इसके अलावा बरसीम, ज्वार व बाजरे का चारा दिया जाना चाहिए। दूध की मात्रा बढ़ाने के लिए बिनौले का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। डेयरी मालिक यह भी ध्यान रखें कि आहार बारीक, साफ-सुथरा हो, ताकि जानवर अपने आहार को चाव से खा सके। इन्हें 32 लीटर पानी अवश्य पिलाया जाए। इनके स्वास्थ्य के लिए इतना पानी जरूरी है।
बचाव
डेयरी पालकों को चाहिए कि वे दर्द निवारक दवाओं को अपने पास रखें, ताकि जरूरत पर उनका उपयोग किया जा सके। गाय व भैंसों को अलग-अलग खूंटों पर बांधना चाहिए, क्योंकि तंग जगह में पशुओं को बीमारी होने का डर रहता है। चिकनपॉक्स, पैर व मुंह की बीमारी आम बात है, इसलिए समय-समय पर पशु-चिकित्सकों से भी सलाह लेते रहना चाहिए।
ऋण-सहायता
सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाएं डेयरी पालन उद्योग के लिए 10 लाख रुपए तक की धनराशि उपलब्ध करवाती है। इसके लिए डेयरी पालक को तमाम कागज जैसे एनओसी, एसडीएम प्रमाणपत्र, बिजली का बिल, आधार कार्ड, डेयरी का नवीनतम फोटो आदि जमा करवाने होते हैं। डेयरी की वेरीफिकेशन के बाद अगर ऑफिसर संतुष्ट होंगे तो डेयरी पालक को डेरी व पशुओं की संख्या के हिसाब से 5 से 10 लाख रुपए तक की राशि मुहैया करवाई जाती है। इसके कुछ दिनों बाद यह राशि किस्तों में जमा करवानी होती है। किस्तों का नियमित भुगतान करने पर कुछ किस्तें माफ कर दी जाती हैं।
प्रशिक्षण संस्थान
नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टिट्यूट
(एन डी आर आई) करनाल, हरियाणा
नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टिटय़ूूट
आणंद, (गुजरात)
बैंक डेवलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन, पुणे, महाराष्ट्र
भैंस पालन में आहार
भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भैंस पालन की मुख्य भूमिका है। इसका प्रयोग दुग्ध व मांस उत्पादन एंव खेती के कार्यों में होता है। आमतौर पर भैंस विष्व के ऐसे क्षेत्रों में पायी जाती है जहां खेती से प्राप्त चारे एवं चरागाह सीमित मात्रा में हैं। इसी कारण भैंसों की खिलार्इ-पिलार्इ में निश्कृश्ट चारों के साथ कुछ हरे चारे, कृषि उपोत्पाद, भूसा, खल आदि का प्रयोग होता है। गाय की अपेक्षा भैंस ऐसे भोजन का उपयोग करने में अधिक सक्ष्म है जिनमें रेषे की मात्रा अधिक होती है। इसके अतिरिक्त भैंस गायों की अपेक्षा वसा, कैल्षियम, फास्फोरस एवं अप्रोटीन नाइट्रोजन को भी उपयोग करने में अधिक सक्षम है। जब भैंस को निश्कृश्ट चारों पर रखा जाता है। तो वह इतना भोजन ग्रहण नहीं कर पाती जिससे उसके अनुरक्षण बढ़वार, जनन, उत्पाद एवं कार्यों की आवष्यकताओं की पूर्ति हो सके। इसी कारण से भैंसों में आषातीत बढ़वार नहीं हो पाती और उनके पहली बार ब्याने की उम्र 3.5 से 4 वर्श तक आती है। अगर भैंसों की भली प्रकार देखभाल व खिलार्इ-पिलार्इ की जाये और आवष्यक पोशक तत्व उपलब्ध करवाये जायें तो इनकी पहली बार ब्याने की उम्र को तीन साल से कम किया जा सकता है और उत्पादन में भी बढ़ोतरी हो सकती है।
पोषण का उद्देश्य.
शरीर को सुचारू रूप से कार्य करने के लिए पोषण की आवश्यकता होती है, जो उसे आहार से प्राप्त होता है। पशु आहार में पाये जाने वाले विभिन्न पदार्थ शरीर की विभिन्न क्रियाओं में इस प्रकार उपयोग में आते हैं।
- पशु आहार शरीर के तापमान को बनाये रखने के लिए ऊर्जा प्रदान करता है।
- यह शरीर की विभिन्न उपापचयी क्रियाओं, श्वासोच्छवास, रक्त प्रवाह और समस्त शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं हेतु ऊर्जा प्रदान करता है।
- यह शारीरिक विकास, गर्भस्थ शिशु की वृद्धि तथा दूध उत्पादन आदि के लिए आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करता है।
- यह कोशिकाओं और उतकों की टूट-फूट, जो जीवन पर्यन्त होती रहती है, की मरम्मत के लिए आवश्यक सामग्री प्रदान करता है।
भैंस पालन के आहार के तत्व.
रासायनिक संरचना के अनुसार कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, विटामिन तथा खनिज लवण भोजन के प्रमुख तत्व हैं। डेयरी पशु शाकाहारी होते हैं अत: ये सभी तत्व उन्हें पेड़ पौधों से, हरे चारे या सूखे चारे अथवा दाने से प्राप्त होते हैं।
कार्बोहाइड्रेट – कार्बोहाइड्रेट मुख्यत: शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं। इसकी मात्रा पशुओं के चारे में सबसे अधिक होती है । यह हरा चारा, भूसा, कड़वी तथा सभी अनाजों से प्राप्त होते हैं।
प्रोटीन – प्रोटीन शरीर की संरचना का एक प्रमुख तत्व है। यह प्रत्येक कोशिका की दीवारों तथा आंतरिक संरचना का प्रमुख अवयव है। शरीर की वृद्धि, गर्भस्थ शिशु की वृद्धि तथा दूध उत्पादन के लिए प्रोटीन आवश्यक होती है। कोशिकाओं की टूट-फूट की मरम्मत के लिए भी प्रोटीन बहुत जरूरी होती है। पशु को प्रोटीन मुख्य रूप से खल, दालों तथा फलीदार चारे जैसे बरसीम, रिजका, लोबिया, ग्वार आदि से प्राप्त होती है।
वसा – पानी में न घुलने वाले चिकने पदार्थ जैसे घी, तेल इत्यादि वसा कहलाते हैं। कोशिकाओं की संरचना के लिए वसा एक आवश्यक तत्व है। यह त्वचा के नीचे या अन्य स्थानों पर जमा होकर, ऊर्जा के भंडार के रूप में काम आती है एवम् भोजन की कमी के दौरान उपयोग में आती है। पशु के आहार में लगभग 3-5 प्रतिशत वसा की आवश्यकता होती है जो उसे आसानी से चारे और दाने से प्राप्त हो जाती है। अत: इसे अलग से देने की आवश्यकता नहीं होती। वसा के मुख्य स्रोत – बिनौला, तिलहन, सोयाबीन व विभिन्न प्रकार की खलें हैं।
विटामिन – शरीर की सामान्य क्रियाशीलता के लिए पशु को विभिन्न विटामिनों की आवश्यकता होती है। ये विटामिन उसे आमतौर पर हरे चारे से पर्याप्त मात्राा में उपलब्ध हो जाते हैं। विटामिन ‘बी’ तो पशु के पेट में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा पर्याप्त मात्रा में संश्लेषित होता है। अन्य विटामिन जैसे ए, सी, डी, र्इ तथा के, पशुओं को चारे और दाने द्वारा मिल जाते हैं। विटामिन ए की कमी से भैंसो में गर्भपात, अंधापन, चमड़ी का सूखापन, भूख की कमी, गर्मी में न आना तथा गर्भ का न रूकना आदि समस्यायें हो जाती हैं।
खनिज लवण- खनिज लवण मुख्यत: हìियों तथा दांतों की रचना के मुख्य भाग हैं तथा दूध में भी काफी मात्राा में स्रावित होते हैं। ये शरीर के एन्जाइम और विटामिनों के निर्माण में काम आकर शरीर की कर्इ महत्वपूर्ण क्रियाओं को निष्पादित करते हैं। इनकी कमी से शरीर में कर्इ प्रकार की बीमारियाँ हो जाती हैं। कैल्शियम, फॉस्फोरस, पोटैशियम, सोडियम, क्लोरीन, गंधक, मैग्निशियम, मैंगनीज, लोहा, तांबा, जस्ता, कोबाल्ट, आयोडीन, सेलेनियम इत्यादि शरीर के लिए आवश्यक प्रमुख लवण हैं। दूध उत्पादन की अवस्था में भैंस को कैल्शियम तथा फास्फोरस की अधिक आवश्यकता होती है। प्रसूति काल में इसकी कमी से दुग्ध ज्वर हो जाता है तथा बाद की अवस्थाओं में दूध उत्पादन घट जाता है एवम् प्रजनन दर में भी कमी आती है। कैल्शियम की कमी के कारण गाभिन भैंसें फूल दिखाती हैं। क्योंकि चारे में उपस्थित खनिज लवण भैंस की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते, इसलिए खनिज लवणों को अलग से खिलाना आवश्यक हैै।
भैंस पालन के लिए आहार की विशेषतायें :
1.आहार संतुलित होना चाहिए। इसके लिए दाना मिश्रण में प्रोटीन तथा ऊर्जा के स्रोतों एवम् खनिज लवणों का समुचित समावेश होना चाहिए।
2.यह सस्ता होना चाहिए।
3. आहार स्वादिष्ट व पौष्टिक होना चाहिए। इसमें दुर्गंध नहीं आनी चाहिए।
4.दाना मिश्रण में अधिक से अधिक प्रकार के दाने और खलों को मिलाना चाहिये। इससे दाना मिश्रण की गुणवत्ता तथा स्वाद दोनों में बढ़ोतरी होती है।
5.आहार सुपाच्य होना चाहिए। कब्ज करने वाले या दस्त करने वाले चारे/को नहीं खिलाना चाहिए।
6,भैंस को भरपेट चारा खिलाना चाहिए। भैसों का पेट काफी बड़ा होता है और पेट पूरा भरने पर ही उन्हें संतुष्टि मिलती है। पेट खाली रहने पर वह मिट्टी, चिथड़े व अन्य अखाद्य एवं गन्दी चीजें खाना शुरू कर देती है जिससे पेट भर कर वह संतुष्टि का अनुभव कर सकें।
7.उम्र व दूध उत्पादन के हिसाब से प्रत्येक भैंस को अलग-अलग खिलाना चाहिए ताकि जरूरत के अनुसार उन्हें अपनी पूरी खुराक मिल सके।
8.भैंस पालन के आहार में हरे चारे की मात्राा अधिक होनी चाहिए।
9.भैंस पालन के आहार को अचानक नहीं बदलना चाहिए। यदि कोर्इ बदलाव करना पड़े तो पहले वाले आहार के साथ मिलाकर धीरे-धीरे आहार में बदलाव करें।
10.भैंस को खिलाने का समय निश्चित रखें। इसमें बार-बार बदलाव न करें। आहार खिलाने का समय ऐसा रखें जिससे भैंस अधिक समय तक भूखी न रहे।
11.दाना मिश्रण ठीक प्रकार से पिसा होना चाहिए। यदि साबुत दाने या उसके कण गोबर में दिखार्इ दें तो यह इस बात को इंगित करता है कि दाना मिश्रण ठीक प्रकार से पिसा नहीं है तथा यह बगैर पाचन क्रिया पूर्ण हुए बाहर निकल रहा है। परन्तु यह भी ध्यान रहे कि दाना मिश्रण बहुत बारीक भी न पिसा हो। खिलाने से पहले दाना मिश्रण को भिगोने से वह सुपाच्य तथा स्वादिष्ट हो जाता है।
12.दाना मिश्रण को चारे के साथ अच्छी तरह मिलाकर खिलाने से कम गुणवत्ता व कम स्वाद वाले चारे की भी खपत बढ़ जाती है। इसके कारण चारे की बरबादी में भी कमी आती है। क्योंकि भैंस चुन-चुन कर खाने की आदत के कारण बहुत सारा चारा बरबाद करती है।
भैंस पालन के लिये आहार स्रोत
भैसों के लिए उपलब्ध खाद्य सामग्री को हम दो भागों में बाँट सकते हैं – चारा और दाना । चारे में रेशेयुक्त तत्वों की मात्रा शुष्क भार के आधार पर 18 प्रतिशत से अधिक होती है तथा समस्त पचनीय तत्वों की मात्रा 60 प्रतिशत से कम होती है। इसके विपरीत दाने में रेशेयुक्त तत्वों की मात्रा 18 प्रतिशत से कम तथा समस्त पचनीय तत्वों की मात्रा 60 प्रतिशत से अधिक होती है।
चारा – नमी के आधार पर चारे को दो भागों में बांटा जा सकता है – सूखा चारा और हराचारा
सूखा चारा : चारे में नमी की मात्रा यदि 10-12 प्रतिशत से कम है तो यह सूखे चारे की श्रेणी में आता है। इसमें गेहूं का भूसा, धान का पुआल व ज्वार, बाजरा एवं मक्का की कड़वी आती है। इनकी गणना घटिया चारे के रूप में की जाती है।
हरा चारा : चारे में नमी की मात्रा यदि 60-80 प्रतिशत हो तो इसे हरा/रसीला चारा कहते हैं। पशुओं के लिये हरा चारा दो प्रकार का होता है दलहनी तथा बिना दाल वाला। दलहनी चारे में बरसीम, रिजका, ग्वार, लोबिया आदि आते हैं। दलहनी चारे में प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है। अत: ये अèिाक पौष्टिक तथा उत्तम गुणवत्ता वाले होते हैं। बिना दाल वाले चारे में ज्वार, बाजरा, मक्का, जर्इ, अगोला तथा हरी घास आदि आते हैं। दलहनी चारे की अपेक्षा इनमें प्रोटीन की मात्राा कम होती है। अत: ये कम पौष्टिक होते हैं। इनकी गणना मध्यम चारे के रूप में की जाती है।
दाना : पशुओं के लिए उपलब्ध खाद्य पदार्थों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं – प्रोटीन युक्त और ऊर्जायुक्त खाद्य पदार्थ। प्रोटीन युक्त खाद्य पदाथोर् में तिलहन, दलहन व उनकी चूरी और सभी खलें, जैसे सरसों की खल, बिनौले की खल, मूँगफली की खल, सोयाबीन की खल, सूरजमुखी की खल आदि आते हैं। इनमें प्रोटीन की मात्रा 18 प्रतिशत से अधिक होती है।
ऊर्जायुक्त दाने में सभी प्रकार के अनाज, जैसे गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का, जर्इ, जौ तथा गेहूँ, मक्का व धान का चोकर, चावल की पॉलिस, चावल की किन्की, गुड़ तथा शीरा आदि आते हैं। इनमें प्रोटीन की मात्रा 18 प्रतिशत से कम होती है।
संतुलित आहार :
संतुलित आहार उस भोजन सामग्री को कहते हैं जो किसी विशेष पशु की 24 घन्टे की निर्धारित पौषाणिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। संतुलित राशन में कार्बन, वसा और प्रोटीन के आपसी विशेष अनुपात के लिए कहा गया है। सन्तुलित राशन में मिश्रण के विभिन पदाथोर् की मात्रा मौसम और पशु भार तथा उसकी उत्पादन क्षमता के अनुसार रखी जाती है। एक राशन की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है ‘एक भैंस 24 घण्टे में जितना भोजन अन्तगर््रहण करती है, वह राशन कहलाता है।’ डेरी राशन या तो संतुलित होगा या असंतुलित होगा। असंतुलित राशन वह होता है जोकि भैंस को 24 घण्टों में जितने पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है वह देने में असफल रहता है जबकि संतुलित राशन ‘ठीक’ भैंस को ‘ठीक’ समय पर ‘ठीक’ मात्रा में पोषक तत्व प्रदान करता है। संतुलित आहार में प्रोटीन, कार्बोहार्इड्रेट, मिनरल्स तथा विटामिनों की मात्रा पशु की आवश्यकता अनुसार उचित मात्रा में रखी जाती है|भैंस को जो आहार खिलाया जाता है, उसमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उसे जरूरत के अनुसार शुष्क पदार्थ, पाचक प्रोटीन तथा कुल पाचक तत्व उपलब्ध हो सकें। भैंस में शुष्क पदार्थ की खपत प्रतिदिन 2.5 से 3.0 किलोग्राम प्रति 100 किलोग्राम शरीर भार के अनुसार होती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि 400 किलोग्राम वजन की भैंस को रोजाना 10-12 किलोग्राम शुष्क पदार्थ की आवश्यकता पड़ती है। इस शुष्क पदार्थ को हम चारे और दाने में विभाजित करें तो शुष्क पदार्थ का लगभग एक तिहार्इ हिस्सा दाने के रूप में खिलाना चाहिए।
उत्पादन व अन्य आवश्यकताओं के अनुसार जब हम पाचक प्रोटीन और कुल पाचक तत्वों की मात्रा निकालते हैं तो यह गणना काफी कठिन हो जाती है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि जो चारा पशु को खिलाया जाता है उसमें पाचक प्रोटीन और कुल पाचक तत्वों की मात्रा ज्ञात करना किसान के लिए लगभग असंभव है। ऐसा इसलिए है कि पाचक प्रोटीन और कुल पाचक तत्वों की मात्रा प्रत्येक चारे के लिए अलग होती है। यह चारे की उम्र/परिपक्वता के अनुसार बदल जाती है। अनेक बार उपलब्धता के आधार पर कर्इ प्रकार का चारा एक साथ मिलाकर खिलाना पड़ता है। किसान चारे को कभी भी तोलकर नहीं खिलाता है। इन परिस्थितियों में सबसे आसान तरीका यह है कि किसान द्वारा खिलाये जाने वाले चारे की गणना यह मान कर की जाये की पशु को चारा भरपेट मिलता रहे। अब पशु की जरूरत के अनुसार पाचक प्रोटीन और कुल पाचक तत्वों में कमी की मात्रा को दाना मिश्रण देकर पूरा कर दिया जाता है। इस प्रकार भैंस को खिलाया गया आहार संतुलित हो जाता है।
भैंस पालन के संतुलित दाना मिश्रण कैसे बनायें ?
पशुओं के दाना मिश्रण में काम आने वाले पदार्थों का नाम जान लेना ही काफी नही है।क्योंकि यह ज्ञानपशुओं का राशन परिकलन करने के लिए काफी नही है। एक पशुपालक को इस से प्राप्त होने वाले पाचकतत्वों जैसे कच्ची प्रोटीन, कुल पाचक तत्व और चयापचयी उर्जा का भी ज्ञान होना आवश्यक है। तभी भोज्यमें पाये जाने वाले तत्वों के आधार पर संतुलित दाना मिश्रण बनाने में सहसयता मिल सकेगी। नीचे लिखे गयेकिसी भी एक तरीके से यह दाना मिश्रण बनाया जा सकता है, परन्तु यह इस पर भी निर्भर करता है कि कौन सी चीज सस्ती व आसानी से उपलब्ध है।
- मक्का/जौ/जर्इ 40 किलो मात्रा
बिनौले की खल 16 किलो
मूंगफली की खल 15 किलो
गेहूं की चोकर 25 किलो
मिनरल मिक्सर 02 किलो
साधारण नमक 01 किलो
कुल 100 किलो
- जौ 30 किलो
सरसों की खल 25 किलो
बिनौले की खल 22 किलो
गेहूं की चोकर 20 किलो
मिनरल मिक्स 02 किलो
साधारण नमक 01 किलो
कुल 100 किलो
- मक्का या जौ 40 किलो मात्रा
मूंगफली की खल 20 किलो
दालों की चूरी 17 किलो
चावल की पालिश 20 किलो
मिनरल मिक्स 02 किलो
साधारण नमक 01 किलो
कुल 100 किलो
- गेहूं 32 किलो मात्रा
सरसों की खल 10 किलो
मूंगफली की खल 10 किलो
बिनौले की खल 10 किलो
दालों की चूरी 10 किलो
चौकर 25 किलो
मिनरल मिक्स 02 किलो
नमक 01 किलो
कुल 100 किलो
दाना मिश्रण के गुण व लाभ
- यह स्वादिष्ट व पौष्टिक है।
- ज्यादा पाचक है।
- अकेले खल, बिनौला या चने से यह सस्ता पड़ता हैं।
- पशुओं का स्वास्थ्य ठीक रखता है।
- बीमारी से बचने की क्षमता प्रदान करता हैं।
- दूध व घी में भी बढौतरी करता है।
- भैंस ब्यांत नहीं मारती।
- भैंस अधिक समय तक दूध देते हैं।
- कटडे या कटड़ियों को जल्द यौवन प्रदान करता है।
संतुलित दाना मिश्रण कितना खिलायें
- शरीरकी देखभाल के लिए:
- गाय के लिए 5 किलो प्रतिदिन व भैंस के लिए 2 किलो प्रतिदिन
- दुधारूपशुओं के लिए:
- गायप्रत्येक 5 लीटर दूध के पीछे 1 किलो दाना
- भैंसप्रत्येक 2 लीटर दूध के पीछे 1 किलो दाना
- गाभिनगाय या भैंस के लिए:
- 6महीने से ऊपर की गाभिन गाय या भैंस को 1 से 5 किलो दाना प्रतिदिन फालतू देना चाहिए।
- बछड़ेया बछड़ियों के लिए:
- 1किलो से 5 किलो तक दाना प्रतिदिन उनकी उम्र या वजन के अनुसार देना चाहिए।
- बैलोंके लिए:
- खेतोंमें काम करने वाले भैंसों के लिए 2 से 5 किलो प्रतिदिन
- बिनाकाम करने वाले बैलों के लिए 1 किलो प्रतिदिन।
नोट : जब हरा चारा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो तो उपरलिखित कुल देय दाना 1/2 से 1 किलो तक घटाया जा सकता है।
इस दाना के साथ आप दूध आप ग्रोवेल का दूध बढ़ाने का फार्मूला और एमिनो पावर नियमित रूप से दें और आप अपने पशुओं के स्वस्थ और दूध देने की छमता और दूध की क्वालिटी देख अचंभित हो जायेंगें।
भैंस पालन के रोग नियंत्रण एवं बचाव
भैंस में मुंह खुर रोग
यह विषाणु जनित तीव्र संक्रमण से फैलने वाला रोग मुख्यत: विभाजित खुर वाले पशुओं में होता है भैंस में यह रोग उत्पादन को प्रभावित करता है एवं इस रोग से संक्रमित भैंस यदि गलघोटू या सर्रा जैसे रोग से संक्रमित हो जाये तो पशु की मृत्यु भी हो सकती है I यह रोग एक साथ एक से अधिक पशुओं को अपनी चपेट में कर सकता है I
संक्रमण
रोग ग्रसित पशु स्राव से संवेदनशील पशु में साँस द्वारा यह रोग अधिक फैलता है क्योंकि यह रोगी पशु के सभी स्रावों में होता है I दूध एवं मांस से मुन्ह्खुर संक्रमण की दर कम है जबकि यह विषाणु यातायात के द्वारा न फैलकर वायु द्वारा जमीनी सतह पर 10 किलोमीटर एवं जल सतह पर 100 किलोमीटर से भी अधिक की दूरी अनुकूल परिस्थितियां मिलने पर तय कर सकता है I इसके अलावा जो पशु भूतकाल में इस रोग से ग्रसित हो चूका है उससे भी महामारी की शुरुआत हो सकती है I
मुंह खुर रोग नियंत्रण अभियान
इस रोग से प्रत्यक्ष तौर पर 20000 करोड़ रूपये की हानि होती है जिसे देखते हुए भारत सरकार ने राज्यों के साथ मिलकर इस अभियान को चलाया है I इस अभियान का लक्ष्य 2020 तक टीकाकरण सहित नियंत्रण क्षेत्र विकसित करने का है I वर्तमान में 221 जिलों में मुंह खुर नियंत्रण अभियान चलाया हुआ है जो कि 10 वीं पंच वर्षीय परियोजना में केवल 54 जिलों तक ही सिमीत था I 12वीं पंच वर्षीय परियोजना में सभी 640 जिलों को इसके अंतर्गत लेन की योजना है I मुंह खुर रोग क्षेत्रीय अनुसन्धान केंद्र हिसार के अनुसार उत्तर – पशचिम भारत में 1718 मुंह खुर रोग के प्रकोप गत 40 वर्षों दर्ज किये गए हैं I जहाँ इसकी संख्या 1976 में 169 थी वहीँ 2004-2009 में मुंह खुर रोग नियंत्रण अभियान के कारण मात्र 8 हो गयी है I भारत में 1991 से पहले मुंह खुर रोग विषाणु के टाइप ओ, टाइप ए , टाइप सी एवं टाइप एशिया वन के कारण संक्रमण होता था लेकिन अब यह संक्रमण केवल टाइप ओ, टाइप ए 22 एवं टाइप एशिया वन के कारण होता है जो की नवीनतम मुंह खुर रोग टीकाकरण का आधार है I
लक्षण
- मुंह से लार टपकना
- बुखार आना
- मुंह, जीभ, मसूड़ों, खुरों के बीच में, थन व् लेवटी पर छाले पड़ना
- पशु चरणा एवं जुगाली करना कम कर देता है या बिल्कुल बंद कर देता है
- पशु लंगडाकर चलता है विशेष कर जब खुरों में कीड़े हो जाते हैं
- दूध उत्पादन में एकदम गिरावट आती है
नियंत्रण एवं बचाव
जिस क्षेत्र या फार्म आर मुह खुर महामारी का प्रकोप हुआ है उस भवन को हलके अम्ल, क्षार या धुमन द्वारा विषाणु मुक्त किया जाना चाहिए I प्रभावित क्षेत्रों में वाहनों व पशुओं की आवाजाही पर रोक लगनी चाहिए I प्रभावित पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग स्थान पर रखना चाहिए I इस रोग के लिए सभी सवेदनशील पशुओं का टीकाकरण एवं संक्रमित पशुओं से विषाणु न फैलने देने द्वारा नियंत्रण संभव है I वर्ष में दो बार (मई -जून एवं अक्टूबर-नवम्बर) टीकाकरण एकमात्र बचाव का कारगर तरीका है I चार माह से बड़े कटडे एवं कटडियों को पहला टीका एवं 15 से 30 दिन बाद बूस्टर डोज अवश्य लगवाएं एवं प्रत्येक 6 माह बाद टीकाकरण जरूर करवाएं I इस टीका को शीतल (2⁰ से 8⁰) तापमान पर रखरखाव एवं यातायात करें I इसके अलावा गलघोटू एवं लंगड़ी रोग का टीकाकरण भी इसी टीके के साथ किया जाने से पशु के जान की रक्षा की जा सकती है