सूखा राहत में स्वराज की मांग
यह बात कई बार दोहराई जा चुकी है कि बाढ़ और सुखाङ अब असामान्य नहीं, सामान्य क्रम है. बादल, कभी भी-कहीं भी बरसने से इंकार कर सकते हैं. बादल, कम समय में ढे़र सारा बरसकर कभी किसी इलाके को डुबो भी सकते हैं. वे चाहें, तो रिमझिम फुवारों से आपको बाहर-भीतर सब तरफ तर भी कर सकते हैं; उनकी मर्जी. जब इंसान अपनी मर्जी का मािलक हो चला है, तो बादल तो हमेशा से ही आजाद और आवारा कहे जाते हैं. वे तो इसके लिए स्वतंत्र हैं हीं. भारत सरकार के वर्तमान केन्द्रीय कृषि मंत्री ने जलवायु परिवर्तन के कारण भारतीय खेती पर आसन्न, इस नई तरह के खतरे को लेकर हाल ही में चिंता व्यक्त की है.
लब्बोलुआब यह है कि मौसमी अनिश्चितता आगे भी बनी रहेगी; फिलहाल यह सुनिश्चित है. यह भी सुनिश्चित है कि फसल चाहे रबी की हो या खरीफ की; बिन बरसे बदरा की वजह से सूखे का सामना किसी को भी करना पङ सकता है. यदि यह सब कुछ सुनिश्चित है, तो फिर सूखा राहत की हमारी योजना और तैयारी असल व्यवहार में सुनिश्चित क्यों नहीं ? भारत की सबसे बङी अदालत ने सूखा मसले पर 11 राज्यों को नोटिस भेजकर यही मूल संदेश देने की कोशिश की है. गत् 15 दिसंबर को जारी यह नोटिस ’स्वराज अभियान’ की याचिका पर जारी किया गया. ’स्वराज अभियान’, आम आदमी पार्टी से अलग हुए नामी वकील श्री प्रशांत भूषण, जवाहर लाल नेहरु के शिक्षाविद् प्रो. श्री आंनद कुमार, विज्ञानी-विश्लेषक श्री योगेन्द्र यादव व साथियों की पहल का परिणाम है.
राहत पर सख्त सुप्रीमो
गौर कीजिए कि भारत के फिलहाल, 11 राज्य सूखे की चपेट में हैं: उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, उङीसा, झारखण्ड, बिहार, हरियाणा और गुजरात. सुप्रीम कोर्ट ने इन्हे नोटिस देकर पूछा है कि सूखा प्रभावित किसानों को राहत देने की उनकी क्या योजना है. कोर्ट का प्रश्न है कि क्या वे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत् राहत के तौर पर दी जाने वाली अनाज मात्रा देने को तैयार हैं या नहीं ? यदि नहीं, तो कारण बतायें ? सरकारों को अगली सुनवाई तिथि चार जनवरी, 2016 को जवाब देना है. विधायिका के दायित्व की पूर्ति के लिए भी न्यायपालिका को वक्त लगाना पङे ! हम कैसी विधायिकायें चुन रहे हैं ?
मुख्य मांगें
खैर, याचिका की बाबत् ’स्वराज अभियान’ का तर्क है कि भारत के 39 फीसदी भूभाग में यह लगातार दूसरा सूखा है; परिणामस्वरूप हालात गंभीर हंै. फसलें, बङे स्तर पर बर्बाद हुई हैं. सिंचाई और पेयजल का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है. कुपोषण, भूख और चारे की समस्या नये सिरे से सिर उठाती स्पष्ट दिखाई दे रही है. इन हालात में केन्द्र और राज्य सरकारें दायित्व निभाने में अक्षम साबित हुई हैं. 16 दिसबंर को जारी विज्ञप्ति के मुताबिक ने ’स्वराज अभियान’ की छह मांगें मुख्य हैं:
1. सरकार, सूखे की अधिकारिक घोषणा करे.
2. केन्द्र सरकार, प्रत्येक किसान को 20 हजार रुपये प्रति एकङ की दर से सूखा राहत मुआवजा दे.
3. सूखाग्रस्त आबादी को 60 रुपये प्रति व्यक्ति, प्रति माह सहायता राशि अलग से दे.
4. सूखा प्रभावित सभी राशन कार्ड धारकों को खाद्य सुरक्षा कानून के तहत् प्रति व्यक्ति, प्रति माह पांच किलो अनाज, दो किलो दाल और बच्चों को प्रतिदिन 200 ग्राम दूध या अंडा दिया जाये.
5. सूखा प्रभावितों को रोजगार मुहैया कराया जाये.
6. मवेशियों के चारे की व्यवस्था हो.
मुआवजा: तंत्र और तरीके पर सवाल
चुनावी विश्लेषण में अपनी महारत के कारण कभी चर्चा में आये श्री योगेन्द्र यादव, जय किसान आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक के तौर पर आजकल किसान नेता की अपनी नई भूमिका में है. यू टयूब पर मौजूद एक वीडियो बयान में श्री योगेन्द्र यादव ने बाढ-सूखा आदि से खेती में होने वाले नुकसान के आकलन का तरीका, मुआवजा वितरित करने वाले तंत्र तथा प्रक्रिया पर भी सवाल उठाया है. उन्होने कहा है - ’’सूखे के हालात से निपटने का वर्तमान तंत्र, महज् एक मज़ाक बनकर रह गया है. दरअसल, वह अस्तित्व मंे ही नहीं है. वह सिर्फ कागज़ी है. किसानों तक कुछ नहीं पहुंच रहा. मुआवजे के नाम पर किसानों को सौ, दो सौ, तीन सौ के चेक मिलते हैं,... महज् चार डाॅलर !’’
दिक्कत कहां ?
मुआवजा तय करने की तौर-तरीकों को भेदभावपूर्ण बताते हुए श्री यादव ने तंत्र पर सीधे निशाना साधा है कि सर्वेक्षण किसी कायदे की मुताबिक न होकर, लेखपाल आदि स्थानीय अधिकारियों के नजरिए से होता है, जिससे भ्रष्टाचार, दलाली और विलम्ब बढ़ जाता है. प्रक्रिया व तरीका बदलने की जरूरत है. इन्हे इस प्रकार सशक्त करने की जरूरत है, जो पारदर्शी हो, किसान को उचित मुआवजा मिले, समय से मिले तथा प्रक्रिया, भ्रष्टाचार व दलाली से मुक्त हो.
श्री यादव कहते हैं -’’तकनीक ने कोई मदद प्रस्तुत नहीं की, जबकि कुछ तकनीक मदद कर सकती है, किंतु यह कोई रेडीमेड समाधान नहीं है. रिमोट सेंसिंग तकनीक, नुकसान की व्यापक समझ में मदद कर सकती है, किंतु वह, वहां तक पहुंची नहीं है. फोटोग्राफी, खासकर मोबाइल फोटोग्राफी बङी मदद कर सकती है; क्यांेकि वह सहज-सुलभ है. किंतु हमने अभी वह तकनीक विकसित नहीं की है, जो फोटो से नुकसान का सटीक अंदाज दे सके. मौसम की भविष्यवाणी, मौसम आधारित आकलन मदद कर सकते हैं. किंतु उन्हे एकदम विचारणीय स्तर तक सटीक होना होगा. इसी तरह अन्य तकनीक हो सकती हैं, जो मददगार हों, किंतु वे उन मानवों का विकल्प नहीं हो सकती, जो उनका उपयोग करेंगे यानी उन्हे संचालित करेंगे. अतः क्षेत्र आधारित तरीकों को भी बेहतर करना होगा.’’
श्री योगेन्द्र यादव फसल बीमा की दिक्कत तथा उसमें सुधार का मार्ग भी सुझाते हैं; कहते हैं -’’फसल बीमा, बैंकों के रास्ते से होकर किसान तक जाता है. बैंक, एक तरह से कृषि बीमा एजेंट की तरह काम करते हैं...किसान को बीमा सूचना देना जरूरी है, किंतु कई बार वे अनुमति भी नहीं लेते. कई बार किसान को पता भी नहीं होता कि उसकी फसल का बीमा है अथवा किस चीज का बीमा किया गया है. सबसे बुरी बात, जब बीमा मुआवजा आता है, बैंक सबसे पहले अपने ऋण का भुगतान काट लेते हैं; जो कि स्वीकार्य नहीं है.’’
कृषि बीमा: प्रश्न कई
यदि हम भारतीय कृषि बीमा निगम लिमिटेड पर निगाह डालें, तो सचमुच लगता है कि योजनाओं को सुधार और प्रसार..दोनो की जरूरत है. वर्तमान में चल रही योजनाओं में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, राष्ट्रीय फसल बीमा कार्यक्रम, जैविक ईंधन वृक्ष/पौध बीमा योजना, आलू फसल बीमा, काॅफी फसल हेतु वर्षा बीमा, रबर बीमा, वर्षा बीमा, रबी फसल हेतु मौसम बीमा, पल्प वुड वृक्ष बीमा जैसी योजनायें हैं. बासमती चावल, चाय, गन्ना, सगंधीय व औषधीय फसलों तथा संविदा खेती हेतु बीमा योजनायें अभी योजना के स्तर पर हैं. ये योजनायें आगजनी, बाढ, चक्रवात, वर्षा, कोहरा, कीट तथा बीमारियों से हुए नुकसान की भरपाई हेतु बनाई गई हैं.
प्रश्न यह है कि एक किसान, कई तरह की फसलें बोता है. एक किसान कितनी तरह की बीमा पाॅलिसी लेगा ? दिया हुआ कर्ज न डूबे, इसके लिए बैंक कर्जदाता किसान की फसल का तो अपनी मर्जी मुताबिक बीमा भी कर देता है. यदि कर्जदाता, बीमा पाॅलिसी के आकार-प्रकार और उसमें अपनी फसल के जुङाव के बारे में बैंक ने उसे न सूचना दी है, न पाॅलिसी विकल्पों के चुनाव का अवसर दिया है और न ही बाकायदा समझाकर इसकी अनुमति ली है, तो वाजिब मुआवजा पाने की उसकी हकदारी और उसकी दावेदारी के बारे में उसकी जानकारी कैसे हो सकती है ? वह तो जो बैंक भरोसे ही रहेगा न ? संभवतः बैंक, मुआवजा दावों में विवाद से बचने के लिए करता हो, किंतु क्या यह वाजिब है ? इसके अलावा जो किसान, किसान क्रेडिट कार्ड धारी नहीं है, जिसने बैंक से कर्ज नहीं लिया, उनका क्या ? उनमें से अक्सर को तो फसल बीमा केे बारे मंे पता भी नहीं है. क्या वह बीमा औपचारिकताओं के लिए पूरी तरह जागरूक व साक्षर बना दिया गया है ? ये विविध योजनायें, बीमा उद्देश्य पूर्ति को उलझायेंगी कि सुलझायेंगी ? क्या इन योजनाओं की मुआवजा पूर्ति में भारतीय किसान की भू सांस्कृतिक व आर्थिक विविधता का सम्मान किया जाता है ?
निश्चित ही नहीं, यही वजह है कि 13 वर्ष की लंबी उम्र पूरी करने के बावजूद, भारतीय कृषि बीमा कंपनी लिमिटेड की उपलब्ध्यिां, बढ़ती आपदा की रफ्तार से साम्य बिठाने में सफल नहीं दिखाई देती.
कृषि बीमा: अंकित हकीकत
भारत सरकार की यह कंपनी 20 दिसंबर, 2002 को अस्तित्व में आई थी. एक अप्रैल, 2003 से अपना व्यापार शुरु किया. रबी वर्ष 1999-2000 से लेकर खरीफ 2014 के आंकङे बताते हैं कि राष्ट्रीय फसल बीमा योजना के अंतर्गत इस बीच कुल 22 करोङ, 29 लाख, 349 हजार फसल बीमा किए गये. 33 करोङ, 96 लाख, 74 हजार, 200 हेक्टेयर क्षेत्र बीमित हुआ. विचारणीय है कि 15 वर्षों की अवधि में कुल पांच करोङ, 91 लाख, 54 हजार किसान लाभन्वित हुए; वार्षिक औसत निकालें तो मात्र 49 लाख, 29 हजार, 500 किसान प्रति वर्ष. 50 करोङ की कृषक भूमिधरों की तुलना में एक सबसे व्यापक फसल बीमा योजना के लाभान्वितों की संख्या एक फीसदी से भी कम है. क्या हम, लाभान्वितों के इस आंकङें से संतुष्ट हों ?
खरीफ 2007 से खरीफ 2014 तक का आंकडा है कि मौसम आधारित बीमा मंे 3,41,36,419 किसान बीमित हुए. बीमित राशि 62,714.04 करोङ थी. प्रीमियम गया 5,950.344 करोड और मुआवजा दिया गया 4,078 करोड. कुल 1,90,05,570 किसानों को लाभ मिला यानी प्रति वर्ष औसतन लगभग 27 लाख किसानों ने फायदा पाया.
रबी 2010 से खरीफ 2014 के बीच संशोधित राष्ट्रीय फसल बीमा योजना में 96 लाख, 81 हजार का बीमा किया गया. प्रीमियम 2363.40 करोङ आई और मुआवजा 1719.49 करोङ गया. कुल 16 लाख, 56 हजार किसान लाभन्वित हुए; औसतन तीन लाख, 31 हजार, 200 किसान प्रतिवर्ष. प्रीमियम राशि, लाभान्वितों की संख्या और मुआवजा राशि के आंकङों का आकलन भारत में फसल बीमा की हकीकत स्वतः कह देता है. मुआवजा प्राप्ति के भ्रष्टाचार की हकीकत इससे भी बुरी होगी ही.
कृषि बीमा: सबसे बुरा पक्ष
सबसे बुरा पक्ष यह है कि 2014-15 के अंत में 86 लाख, 57 हजार, 063 मुआवजा मामले निपटारे के लिए लंबित थे. इनमें भी लंबित मामलों की सबसे ज्यादा संख्या (3,52,510) महाराष्ट्र राज्य को देखने वाले मुंबई क्षेत्रीय कार्यालय के अंतर्गत थी, जहां इस वर्ष सूखे की सबसे भयावह मार पङी. संवेदनहीनता की यह स्थिति तब है, जबकि सब जानते हैं कि एक फसल चैपट हो जाने की स्थिति में तो किसान को नकदी की सबसे ज्यादा तथा तत्काल जरूरत होती है. ऐसे में इतने मामले यदि मुआवजे के लिए वित्त वर्ष गुजर जाने के बाद भी लंबित हैं, तो किसान अपने खर्च के लिए कहां जायेगा ?
कृषि बीमा: सुधार की जरूरत
संभवतः भारतीय कृषि बीमा कंपनी के उक्त रफ्तार को देखते हुए ही श्री यादव, कृषि बीमा में बैंक की भूमिका बनाये रखने के पक्ष में हैं, कितु नहीं चाहते कि अपनी कर्जदाता और कृषि बीमा एजेंट की दोहरी भूमिका का नाजाायज लाभ उठायें. वह सुझाते हैं कि बैंक अपनी दोनो भूमिकाओं को अलग-अलग रखे. बैंक, जो कुछ भी करता है, उसके बारे में किसान को सूचित करे. फसल बीमा से मिली मुआवजा राशि को कर्ज खाते में नहीं डाले. उसे अलग बचत खाते मंे डालना चाहिए. ज़मीन पर उतर पाने वाली कई तरह की छोटी-छोटी बीमा योजनाओं को एक बङी बीमा योजना में बदल दिया जाये.
द्विस्तरीय कृषि बीमा योजना की सुझाव
श्री यादव ने क्षति मुआवजा हेतु द्विस्तरीय फसल बीमा योजना सुझाई है - ’’प्रथम स्तर की फसल बीमा योजना ऐसी हो, जो भारत के सभी किसान, सभी तरह का नुकसान, सभी प्रकार की आपदा, सभी फसलों तथा फसल चक्र के हर स्तर को शामिल करती हो. प्रथम स्तर की यह फसल बीमा योजना, पूरी तरह सरकार द्वारा सब्सिडी पर आधारित हो. इसमंे एक ऐसी न्यूनतम मुआवजा राशि सभी के लिए हो, जो न्यनूतम जरूरत की पूर्ति करती हो. यह जीवन जीने के लिए मदद की तरह हो. यह वास्तविक खर्च.. वास्तविक नुकसान आधारित हो. इस स्तर की योजना की मुआवजा राशि सीधे किसान के खाते मंे डाली जाये.’’
’’बीमा का दूसरा स्तर, अच्छी रकम बीमा हो, जिसकी सीमा फसल उत्पादन से लेकर उत्पाद की न्यूनतम बाजार दर तक जाती हो. किसान अपनी फसल से जो कुछ आय वह कर सकता था, मुआवजे में उतना अपेक्षित उसे मिले. इसमंे किसान के लिए विकल्प हों कि वह किस फसल का बीमा कराना चाहता है. वह किसी एक फसल का बीमा कराना चाहता है अथवा बहुफसल का. वह किस चरण से आगे का फसल बीमा कराना चाहता है. वह व्यक्तिगत फसल बीमा कराना है, या सामूहिक. दूसरे स्तर की इस फसल बीमा योजना को राज्य सरकार अपना जैसे 75 प्रतिशत अंशदान करे. यदि किसान इससे अधिक चाहता है, तो किसान बीमा संबंधी सभी भुगतान करे. फसल के नुकसान का आकलन एकदम सटीक हो. फसल कटाई के तौर-तरीके आदि का ध्यान रखते हुए यह किया जाये.’’ श्री यादव का मानना है कि इस तरह की द्विस्तरीय फसल बीमा पैकेज किसानों को वह दे सकेगा, जो उन्हे चाहिए.
मांग से आयेगा स्वराज या बढ़ेगा परावलंबन ?
श्री यादव के सुझाव व सुप्रीम कोर्ट का नोटिस सूखा राहत हेतु कमर कसने की कवायद है. निस्ंसदेह, फसल बीमा का लाभ हर किसान तक पहुंचना चाहिए. मुआवजा तंत्र और प्रक्रिया में सुधार वांछित है. आपात् स्थिति मंे खाद्य सुरक्षा मिले, यह भी जायज है, किंतु स्वराज अभियान द्वारा हर माह अनाज, दाल, दूध व अंडे की मांग ?
25 नवबंर को स्वराज द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि पिछले आठ महीने से बुंदेलखण्ड के 53 प्रतिशत गरीब परिवारों ने दाल नहीं खाई; 69 प्रतिशत ने दूध नहीं पिया; हर पांचवां परिवार कम से कम एक दिन भूखा सोया और हर छठे घर ने फिकारा घास की रोटी खाई. बीती होली के बाद से सर्वेक्षण समय तक 40 प्रतिशत परिवारों को पशु बेचने पङे, 27 प्रतिशत ने जमीन बेची या गिरवी रखी, रिपोर्ट के मुताबिक, होली के बाद से 38 फीसदी गांवों से भूख से हुई मौतोें की खबर मिली. बुंदेलखण्ड के हालात वाकई इतने खराब हैं या नहीं ? बुंदेलखण्ड की 27 तहसीलों के 108 गांवों के सर्वेक्षण पर आधारित इस रिपोर्ट से बुंदेलखण्ड के कुछेक पत्रकार, कार्यकर्ता सहमत नहीं हैं. हो सकता है रिपोर्ट पर सवाल हो, किंतु इस तथ्य पर कोई सवाल संभव नहीं है कि साल-दर-साल सूखे की वजह से बबू बुंदेलदखण्डवासी सुखी तो कतई नहीं है. ’’ चित्रकूट के गिदुरहा गांव के किसान घनश्याम की जब भूख से मौत हो गई तो सरकार ने गेहूं और एक कम्बल उसकी मां के पास भिजवाया.’’ 22 दिसबंर, 2015 का यह समाचार, बुंदेलखण्ड में मुआवजे के प्रति संवेदनहीनता की कथा और बुंदेलखण्ड की व्यथा को खुद-ब-खुद बयां कर देता है.
स्वराज की रिपोर्ट और उक्त समाचार को नजर में रखे , तो हो सकता है आपको भी एक बार स्वराज अभियान की अनाज, दाल, दूध, अंडे की हर माह आपूर्ति मांग उचित लगे, किंतु सोचिए, विद्यालयों में दोपहर के मुफ्त भोजन के कारण क्या वाकई असल शिक्षा के प्रति हमारे नौनिहालों की रूचि व सक्षमता बढ़ी या सिर्फ उनकी उपस्थिति, प्राथमिक शालाओं की संख्या और खर्च के आंकङे ही बढ़े ? कैग की ताजा रिपोर्ट ने उत्तर दे दिया है.
मेरा मानना है कि आपात् स्थिति में मदद, उपेक्षित न की जा सकने वाली अपेक्षित सहायता है, किंतु सामान्य स्थिति में ? सामान्य स्थिति में मदद, हमें कमजोर बनाती है; हमंे हाथ फैलाना सिखाती है; भ्रष्टाचार बढ़ाती है. ऐसा समाज फिर कभी स्वाभिमानी, स्वावलंबी और परिस्थिति से जूझकर जीतने वाला बहादुर नहीं बन सकता. खाद्य सुरक्षा कानून का मकसद क्या हो - खाद्यान्न के मामले में प्रत्येक परिवार का स्वावलंबन या परावलंबन ? बाजार और शहरीकरण के प्रभाव में आकर हमारे गांव पहले ही परावलंबन की राह पर फिसल चुके हैं, क्या हम उन्हे और परावलंबी बनायें ? कठोर शब्दों में कहूं, तो क्या हम अपने अन्नदाताओं को भीखमंगा बनायें ?
राहत से बेहतर रोकथाम
क्या यह बेहतर नहीं कि यदि सूखा राहत ही देनी है, तो ऐसी राहत दी जाये, जो महज् राहत नहीं, सूखा निवारण की दिशा में बढ़ा एक कारगर कदम बन जाये ? क्या यह अच्छा नहीं, अगली फसल हेतु सूखा रोधी चारा बीज, संजोने लायक देशी बीज, देशी खाद, वानिकी के प्रयोग, खेतों का ऐसा भू-सुधार सूखे से पीङित किसाओं तक तत्काल पहुंचायें, जो आकाश से बरसी बूंदों को आवश्यकतानुसार खेत में सहेज दे ? हर घर के सामने एक सोख्ता पिट, हर बङे ढाल क्षेत्र में एक जलसंचयन इकाई बनाने का सामथ्र्य और प्रेरणा सुनिश्चित करेें. बदलती जलवायु और भूगोल के अनुकूल सर्वश्रेष्ठ फसल, बीज और समय के चुनाव के ज्ञान को हर खेत और खेतिहर तक पहुंचायें. सूखा पीङित क्षेत्रों में विशेष अभियान और लक्ष्य बनाकर अगली फसल से पहले यह सब युद्ध स्तर की तैयारी के साथ करना, क्या बेहतर सूखा राहत की योजना नहीं होगी ? पैसा और अनाज बांटना, बीमार की सिर्फ प्राथमिक चिकित्सा भर है. क्या उक्त कदम, सूखे की रोकथाम में सहायक नहीं होंगे ?
तय कीजिए
सूखा आये ही नहीं, इसके लिए जलवायु परिवर्तन के व्यापक कदम हम तत्काल नहीं कर सकते, किंतु उक्त कदम तो उठा ही सकते हैं. क्या केन्द्र से लेकर गांव इकाई तक चुनी हमारी विधायिकायें यह करेंगी ? किसानों को भी याद रखना होगा कि स्वराज का असल मतलब, अपना राज नहीं, अपने ऊपर खुद का राज होता है यानी खुद के ऊपर, खुद का अनुशासन. पानी के उपयोग और निकासी में अनुशासन के बगैर यह संभव नहीं. जल संचयन, इसकी दूसरी जरूरी शर्त है. इसी से संभव है सूखे पर नीलिमा का राज. तय कीजिए कि किसान को राहत चाहिए या रोकथाम ? स्वावलंबन चाहिए या परावलंबन ?
अरुण तिवारी
समसामयिक विषयों पर पैनी नज़र रखने वाले विश्लेषक हैं