सूक्ष्म जीवों से पा सकते हैं कीटों और रोगों से छुटकारा

 ज्यादा उत्पादन की चाह में अत्याधिक रसायनिक कीटनाशकों के प्रयोग से इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। किसान अब यह अनुभव करने लगा है कि रासायनिक कीटनाशक अब उन्हीं शत्रु कीटों पर बेअसर हो रहे है, जिनपर वो रसायन प्रयोग कर पहले छुटकारा पा जाते थे।

ऐसे में प्रकृति में बहुत से ऐसे सूक्ष्मजीव हैं जैसे विषाणु ,जीवाणु एवं फफूंद आदि हैं जो शत्रु कीटों में रोग उत्पन्न कर उन्हें नष्ट कर देते है, इन्ही विषाणु, जीवाणु, एवं फफूंद आदि को वैज्ञानिकों ने पहचान कर प्रयोगशाला में इन का बहुगुणन किया तथा प्रयोग हेतु उपलब्ध करा रहे हैं, जिनका प्रयोग कर किसान लाभ ले सकते हैं।

सूक्ष्म जीवों की मदद से पा सकते हैं हानिकारक कीटों और रोगों से छुटकारा

जीवाणु (बैक्टीरिया)- मित्र जीवाणु प्रकृति में स्वतंत्र रूप से भी पाए जाते है, परन्तु उनके उपयोग को सरल बनाने के लिए इन्हें प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से तैयार करके बाजार में पहुंचाया जाता है, जिससे कि इनके उपयोग से फसल को नुकसान पहुचाने वाले कीड़ों से बचाया जा सकता है।

बेसिलस थुरिनजेनेंसिस : यह एक बैक्टीरिया आधारित जैविक कीटनाशक है। इसके प्रोटीन निर्मित क्रिस्टल में कीटनाशक गुण पाए जाते हैं, जो कि कीट के आमाशय का घातक जहर है।   

प्रयोग: यह एक विकल्पी जीवाणु है, जो विभिन्न फसलों में नुकसान पहुचाने वाले शत्रु कीटों जैसे चने की सुंडी, तम्बाकू की सुंडी, सेमिलूपर, लाल बालदार सुंडी, सैनिक कीट एवं डायमंड बैक मोथ आदि के विरुद्ध एक किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने पर अच्छा परिणाम मिलता है।

उपलब्धता:- यह बाज़ार में बॉयो लेप, बॉयो अस्प, डियो पेल, देल्फिन, बॉयो बिट, हाल्ट आदि नामों से बाज़ार में मिलते हैं।                                 

वायरस-

1. न्यूक्लीअर पाली हेड्रोसिस वायरस (एन.पी.वी) :-

यह एक प्राकृतिक रूप से मौजूद वायरस पर आधारित सूक्ष्म जैविक है। वे सूक्ष्म जीवी जो केवल न्यूक्लिक एसिड एवं प्रोटीन के बने होते हैं, वायरस कहलाते है।

प्रयोग: कीट प्रबंधन के लिए प्रयुक्त इन वायरसों से प्रभावित पत्ती को खाने से सुंडी 4-7 दिन के अन्तराल में मर जाती है। सर्वप्रथम संक्रमित सुंडी सुस्त हो जाती है, खाना छोड़ देती है। सुंडी पहले सफ़ेद रंग में परिवर्तित होती है और बाद में काले रंग में बदल जाती है तथा पत्ती पर उलटी लटक जाती है।

इस जैविक उत्पाद को 250 एल.ई. प्रति हैक्टेयर की मात्रा से आवश्यक पानी में मिलाकर फसल में प्रायः शाम के समय छिडकाव उस वक़्त करें, जब हानि पहुंचाने वाले कीटों के अंडो से सुंडिया निकलने का समय हो। इस घोल में दो किलो गुड़ भी मिला लिया जाये तो अच्छे परिणाम मिलते हैं।

उपलब्धता: यह बाज़ार में हेलीसाइड, बायो-वायरस –एच, हेलिओसेल, बायो-वायरस-एस., स्पोड़ो साइड, प्रोडेक्स  के नाम से उपलब्ध है।

ग्रेनुलोसिस वायरस (जी.वी.):-

इस सूक्ष्मजैविक वायरस का प्रयोग सूखे मेवों के भण्डार कीटों, गन्ने की अगेता तनाछेदक, इन्टरनोड़ बोरर एवं गोभी की सुंडी आदि के विरुद्ध सफलतापूर्वक किया जा सकता है। 

प्रयोग: गन्ने और गोभी की फसल में कीट प्रबंधन के लिए एक किलोग्राम पाउडर को 100 लीटर पानी में घोलकर पौधों पर छिड़काव करने से रोकथाम में सहायता मिलती है।                                 

फफूंदी :-

1) ब्यूवेरिया बेसियाना :-

यह प्रकृति में मौजूद सफेद रंग की फफूंदी है जो विभिन्न फसलों एवं सब्जियों की लेपिडोप्टेरा वर्ग की सुंडियों जैसे – चने की सुंडी, बालदार सुंडी, रस चूसने वाले कीट, वूली एफिड, फुदको, सफ़ेद मक्खी एवं स्पाईडर माईट आदि कीटो के प्रबंधन के लिए प्रयुक्त की जाती है। 

उपलब्धता:- यह बाज़ार में बायो रिन, लार्वो सील, दमन, तथा अनमोल बॉस के नाम से मिलते हैं।

2) मेटारीजियम एनीसोपली:-

यह बहुत ही उपयोगी जैविक फफूंदी है, जो कि दीमक, ग्रासहोपर, प्लांट होपर, वुली एफिड, बग एवं बीटल आदि के करीब 300 कीट प्रजातियों के विरुद्ध उपयोग में लाया जाता है। इस फफूंदी के स्पोर पर्याप्त नमी में कीट के शरीर पर अंकुरित हो जाते है जो त्वचा के माध्यम से शरीर में प्रवेश करके वृद्धि करते है।

मित्र फफूंदियों को प्रयोग करने की विधि:- मित्र फफूंदियों की 750 ग्राम मात्रा को स्टिकर एजेंट के साथ 200 लीटर पानी में मिलाकर एक एकड़ क्षेत्रफल में सुबह अथवा शाम के समय छिड़काव करने के आशा अनुकूल असर दिखाई पड़ता है। सफ़ेद गिडार के नियंत्रण के लिए 1800 ग्रा. दवाई को 400 ली.पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें।

3) मित्र सुत्रकृमी

कीटहारी सुत्रकृमियों की कुछ प्रजातियां कीटों के ऊपर परजीवी रहकर उन्हें नष्ट कर देती हैँ। कुछ सुत्रकृमियों जीवाणुओं के साथ सह-जीवन व्यतीत करते है, जो सामूहिक रूप से कीट नियंत्रण में उपयोगी है। सुत्रकृमी डी.डी.136 को धान, गन्ना तथा फलदार वृक्षों के विभिन्न नुकसान पहुँचाने वाले कीटों के नियंत्रण हेतु सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है।

 

सूक्ष्म जैविक रोग नाशक:

1)ट्राईकोडर्मा : 

यह एक प्रकार की मित्र फफूंदी है जो खेती को नुकसान पहुंचाने वाली हानिकारक फफूंदी को नष्ट करती है। ट्राईकोडर्मा के प्रयोग से विभिन्न प्रकार की दलहनी, तिलहनी, कपास, सब्जियों एवं विभिन्न फसलों में पाए जाने वाली मृदाजनित रोग जैसे-उकठा, जड़ गलन, कालर सडन, आद्रपतन कन्द् सडन आदि बीमारियों को सफलतापूर्वक रोकती है।   

ट्राईकोडर्मा उत्पाद

ट्राईकोडर्मा की लगभग छह प्रजातियां ज्ञात हैं। लेकिन केवल दो प्रजातियां ही जैसे-ट्राईकोडर्मा विरडी एवं ट्राईकोडर्मा हर्जियानम मिट्टी में बहुतायत मात्रा में पाई जाती हैं।  

उपलब्धता:- यह बाज़ार में बायोडर्मा, निपरॉट, अनमोलडर्मा, ट्राइको–पी  के नाम से उपलब्ध है।

प्रयोग:

1.बीज शोधन:

बीज उपचार के लिए 5 से 10 ग्राम पाउडर प्रति किलो बीज में मिलाया जाता है। परन्तु सब्जियों के बीज के लिए यह मात्रा पांच ग्राम प्रति 100 ग्राम बीज के हिसाब से उपयोग में लाई जाती है।

2.भूमि शोधन:

एक किग्रा पाउडर को 25 किग्रा. कम्पोस्ट खाद में मिलकर एक सप्ताह तक छायादार स्थान पर रखकर उसे गिले बोरी से ढका जाता है ताकि स्पोर अंकुरित हो जाये, फिर इस कम्पोस्ट को एक एकड़ खेत में मिलकर फसल की बोआई की जाती है|

3.खड़ी फसल पर छिडकाव:

पौधों में रोग के लक्षण दिखाई पड़ने पर बीमारी की प्रारंभिक अवस्था में ही 5 से 10 ग्राम पाउडर को प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करने पर अच्छा परिणाम दिखाई पड़ता है।

2. न्यूमेरिया रिलाई :

यह भी एक प्रकार का फफूंद है जो कीटों में रोग पैदा कर उन्हें नष्ट कर देता है। यह सभी प्रकार के लेपिडोपटेरा समूह के कीटों को प्रभावित करता है, परन्तु यह चना, अरहर के हेलिकोवर्पा आर्मिजेरा, सैनिक कीट, गोभी एवं तम्बाकू की स्पोडोप्टेरा लिटुरा तथा सेमीलूपर कीट को विशेष रूप से प्रभावित करता है।

कार्य पद्धति: फफूंद के बीजाणु छिड़काव के पश्चात कीटों के शरीर पर चिपक जाते हैं। फसल पर पड़े फफूंद के संपर्क में आने पर यह जैव क्रिया कर कीटों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं वहां यह कीट के शरीर को तरल तत्व पर अपना विकास कर कवक जाल फैलता है और उन्हें मृत कर देता है। 

प्रयोग विधि: इस फफूंद के पाउडर के 6 भाग को 100 लीटर पानी में घोलकर संध्या काल में इस प्रकार से छिडकाव करे कि पूरी फसल अच्छी तरह से भींग जाये।

सुक्ष्जीवों के प्रयोग में सावधानियां :

सुक्ष्जीवियों पर सूर्य की परा-बैगनी (अल्ट्रा-वायलेट) किरणों का विपरीत प्रभाव पड़ता है, अत: इनका प्रयोग संध्या काल में करना उचित होता है।

सूक्ष्म-जैविकों विशेष रूप से कीटनाशक फफूंदी के उचित विकास हेतु प्रयाप्त नमी एवं आर्द्रता की आवश्यकता होती है। सूक्ष्म-जैविक नियंत्रण में आवश्यक कीड़ों की संख्या एक सीमा से ऊपर होनी चाहिए। इनकी सेल्फ लाइफ कम होती है, अत: इनके प्रयोग से पूर्व उत्पादन तिथि पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।

राजीव कुमार एवं उमेश कुमार, जैविक भवन, क्षेत्रीय-केन्द्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबन्धन केंद्र, लखनऊ से बातचीत पर आधारित

organic farming: