शिमला मिर्च की उन्नत उत्पादन तकनीक
सब्जियों मे शिमला मिर्च की खेती का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसको ग्रीन पेपर, स्वीट पेपर, बेल पेपर आदि विभिन्न नामो से जाना जाता है। आकार एवं तीखापन मे यह मिर्च से भिन्न होता है। इसके फल गुदादार, मांसल, मोटा, घण्टी नुमा कही से उभरा तो कही से नीचे दबा हुआ होता है। शिमला मिर्च की लगभग सभी किस्मो मे तीखापन अत्यंत कम या नही के बराबर पाया जाता है। इसमे मुख्य रूप से विटामिन ए तथा सी की मात्रा अधिक होती है। इसलिये इसको सब्जी के रूप मे उपयोग किया जाता है। यदि किसान इसकी खेती उन्नत व वैज्ञानिक तरीके से करे तो अधिक उत्पादन एवं आय प्राप्त कर सकता है। इस लेख के माध्यम से इन्ही सब बिंदुओ पर प्रकाश डाला गया है।
जलवायुः-
यह नर्म आर्द्र जलवायु की फसल है। छत्तीसगढ़ मे सामान्यतः शीत ऋतु मे तापमान 100 सेल्सियस से अक्सर नीचे नही जाता एवं ठंड का प्रभाव बहुत कम दिनो के लिये रहने के कारण इसकी वर्ष भर फसले ली जा सकती है। इसकी अच्छी वृद्धि एवं विकास के लिये 21-250 सेल्सियस तापक्रम उपयुक्त रहता है। पाला इसके लिये हानिकारक होता है। ठंडे मौसम मे इसके फूल कम लगते है, फल छोटे, कड़े एवं टेढ़े मेढ़े आकार के हो जाते है तथा अधिक तापक्रम (330 सेंल्सि. से अधिक) होने से भी इसके फूल एवं फल झड़ने लगते है।
भूमिः-
इसकी खेती के लिये अच्छे जल निकास वाली चिकनी दोमट मृदा जिसका पी.एच. मान 6-6.5 हो सर्वोत्तम माना जाता है। वहीं बलुई दोमट मृदा मे भी अधिक खाद डालकर एवं सही समय व उचित सिंचाई प्रबंधन द्वारा खेती किया जा सकता है। जमीन के सतह से नीचे क्यारियों की अपेक्षा इसकी खेती के लिये जमीन की सतह से ऊपर उठी एवं समतल क्यारियां ज्यादा उपयुक्त मानी जाती है।
उन्नत किस्मेः-
शिमला मिर्च की उन्नत किस्मों मे अर्का गौरव, अर्का मोहिनी, किंग आॅफ नार्थ, कैलिफोर्निया वांडर, अर्का बसंत, ऐश्वर्या, अलंकार, अनुपम, हरी रानी, पूसा दिप्ती, भारत, ग्रीन गोल्ड, हीरा, इंदिरा प्रमुख है।
खाद एवं उर्वरकः-
खेत की तैयारी के समय 25-30 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद डालना चाहिये। आधार खाद के रूप मे रोपाई के समय 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 60-80 कि.ग्रा. स्फुर एवं 40-60 कि.ग्रा. पोटाश डालना चाहिये। एवं 60 कि.ग्रा. नत्रजन को दो भागो मे बांटकर खडी फसल मे रोपाई के 30 एवं 55 दिन बाद टाप ड्रेसिंग के रूप मे छिड़कना चाहिये।
रोपण एवं दूरीः-
सामान्यतः 10-15 से.मी. लंबा, 4-5 पत्तियों वाला पौध जो कि लगभग 45-50 दिनो मे तैयार हो जाता है रोपण के लिये प्रयोग करें। पौध रोपण के एक दिन पूर्व क्यारियों मे सिंचाई कर देना चाहिये ताकि पौध आसानी से निकाला जा सके। पौध को शाम के समय मुख्य खेत मे 60 x 45 से.मी. की दूरी पर लगाना चाहिये। रोपाई के पूर्व पौध की जड़ को बाविस्टिन 1 ग्रा./ली. पानी के घोल मे आधा घंटा डुबाकर रखना चाहिये। रोपाई के बाद खेत की हल्की सिंचाई करें।
सिंचाईः-
शिमला मिर्च की फसल को कम एवं ज्यादा पानी दोनो से नुकसान होता है। यदि खेत मे ज्यादा पानी का भराव हो गया हो तो तुरंत जल निकास की व्यवस्था करनी चाहिये। मृदा मे नमी कम होने पर सिंचाई करना चाहिये। नमी की पहचान करने के लिये खेत की मिट्टी को हाथ मे लेकर लड्डू बनाकर देखना चाहिये यदि मिट्टी का लड्डू आसानी से बने तो मृदा मे नमी है यदि ना बने तो सिंचाई कर देना चाहिये। सामान्यतः गर्मियो मे 1 सप्ताह एवं शीत ऋतु मे 10-15 दिनो के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिये।
निराई - गुड़ाईः-
रोपण के बाद शुरू के 30-45 दिन तक खेत को खरपतवार मुक्त रखना अच्छे फसल उत्पादन की दृष्टि से आवश्यक है। कम से कम दो निराई-गुड़ाई लाभप्रद रहती है। पहली निराई-गुड़ाई रोपण के 25 एवं दूसरी 45 दिन के बाद करना चाहिये। पौध रोपण के 30 दिन बाद पौधो मे मिट्टी चढ़ाना चाहिये ताकि पौधे मजबूत हो जाये एवं गिरे नही। यदि खरपतवार नियंत्रण के लिये रसायनो का प्रयोग करना हो तो खेत मे नमी की अवस्था मे पेन्डीमेथेलिन 4 लीटर या एलाक्लोर (लासो) 2 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।
फूल व फल गिरने का रोकथामः-
शिमला मिर्च मे फूल लगना प्रारंभ होते ही प्लानोफिक्स नामक दवा को 2 मि.ली./ली. पानी मे घोलकर पहला छिड़काव करना चाहिये एवं इसके 25 दिन बाद दूसरा छिड़काव करे। इससे फूल का झड़ना कम हो जाता है फल अच्छे आते है एवं उत्पादन मे वृ़िद्ध होती है।
पौध सरंक्षणः-शिमला मिर्च मे लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोग का वर्णन व रोकथाम निम्न प्रकार है-
प्रमुख कीटः-
इसमे प्रमुख रूप से माहो, थ्रिप्स, सफेद मक्खी व मकडी का प्रकोप ज्यादा होता है।
रोकथामः- इन कीटो से रोकथाम के लिये डायमेथोएट (रोगार) या मिथाइल डेमेटान या मेलाथियान का 1 मि.ली./ली. पानी के हिसाब से घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करे। फलों के तुड़ाई पश्चात ही रसायनो का छिड़काव करना चाहिये।
प्रमुख रोगः-
इसमे प्रमुख रूप से आद्रगलन, भभूतिया रोग, उकटा, पर्ण कुंचन एवं श्यामवर्ण व फल सड़न का प्रकोप होता है।
आर्द्रगलन रोग:- इस रोग का प्रकोप नर्सरी अवस्था में होता है। इसमे जमीन की सतह वाले तने का भाग काला पडकर गल जाता है। और छोटे पोधे गिरकर मरने लगते हैं।
रोकथाम:- बुआई से पूर्व बीजों को थाइरम, केप्टान या बाविस्टिन 2.5-3 ग्राम प्रति किलों बीज की दर से उपचारित कर बोयें। नर्सरी, आसपास की भूमि से 6 से 8 इंच उठी हुई भूमि में बनावें। मृदा उपचार के लिये नर्सरी में बुवाई से पूर्व थाइरम या कैप्टान या बाविस्टिन का 0.2 प्रतिशत सांद्रता का घोल मृदा मे सींचा जाता है जिसे ड्रेंचिंग कहते है। रोग के लक्षण प्रकट होने पर बोडों मिश्रण 5ः5ः50 या काॅपर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कार छिडकाव करें।
भभूतिया रोगः- यह रोग ज्यादातर गर्मियो मे आता है। इस रोग मे पत्तियों पर सफेद चूर्ण युक्त धब्बे बनने लगते हैै। रोग की तीव्रता होने पर पत्तियाॅं पीली पड़कर सूखने लगती पौधा बौना हो जाता है।
रोकथामः- रोग से रोकथाम के लिये सल्फेक्स या कैलेक्सिन का 0.2 प्रतिशत सांद्रता का घोल 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करे।
जीवाणु उकठा:- इस रोग मे प्रभावित खेत की फसल हरा का हरा मुरझाकर सूख जाता है। यह रोग पौधें में किसी भी समय प्रकोप कर सकता है।
रोकथाम:- गी्रष्मकालीन गहरी जुताई करके खेतों को कुछ समय के लिये खाली छोड देना चाहिये। फसल चक्र अपनाना चाहिए। रोग शहनशील जातियां जैसे अर्का गौरव का चुनाव करना चाहिये। प्रभावित खडी फसल में रोग का प्रकोप कम करने के लिये गुडाई बंद कर देना चाहिए क्योंकि गुडाई करने से जडों में घाव बनतें है व रोग का प्रकोप बढता है। रोपाई पूर्व खेतों में ब्लीचिंग पाउडर 15 कि.गा्र. प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलायें।
पर्ण कुंचन(लीफ कर्ल ) व मोजेकः- ये विषाणु जनित रोग है। पर्ण कुंचन रोग के कारण पौधों के पत्ते सिकुडकर मुड़ जाते है तथा छोटे व भूरे रंग युक्त हो जाते हैं। ग्रसित पत्तियां आकार मे छोटी, नीचे की ओर मुडी हुई मोटी व खुरदुरी हो जाती है। मोजेक रोग के कारण पत्तियों पर गहरा व हल्का पीलापन लिए हुए हरे रंग के धब्बे बन जाते है। उक्त रोगों को फैलाने में कीट अहम भूमिका निभाते हैं! प्रभावित पौधे पूर्ण रूप से उत्पादन देने मे असमर्थ सिद्ध होते है रोग द्वारा उपज की मात्रा व गुणवत्ता दोनो प्रभावित होती है।
रोकथामः- बुवाई से पूर्व कार्बोफ्यूरान 3 जी, 8 से 10 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से भूमि में मिलावें। पौध रोपण के 15 से 20 दिन बाद डाइमिथोएट 30 ई.सी. या इमिडाक्लोप्रिड एक मिली लीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। यह छिड़काव 15 से 20 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार दोहरावें। फूल आने के बाद उपरोक्त कीटनाषी दवाओं के स्थान पर मैलाथियान 50 ई.सी. एक मिली लीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें!
श्याम वर्ण व फल सड़नः- रोग के शुरूवाती लक्षणो मे पत्तियो पर छोटे-छोटे काले धब्बे बनते है। रोग के तीव्रता होने पर शाखाएं ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती है। फलों के पकने की अवस्था मे छोटे-छोट कालेे गोल धब्बे बनने लगते है बाद मे इनका रंग धूसर हो जाता है जिसके किनारो पर गहरे रंग की रेखा होती है। प्रभावित फल समय से पहले झड़ने लगते है। अधिक आद्रता इस रोग को फैलाने मे सहायक होती है।
रोकथामः- फसल चक्र अपनाना चाहिये। स्वस्थ एवं उपचारित बीजों का ही प्रयोग करे। मेन्कोजेब, डायफोल्टान, या ब्लाइटाॅक्स का 0.2 प्रतिशत सांद्रता का घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करे।
फलो की तुड़ाई एवं उपजः-
शिमला मिर्च की तुड़ाई पौध रोपण के 65-70 दिन बाद प्रारंभ हो जाता है जो कि 90-120 दिन तक चलता है। नियमित रूप से तुड़ाई का कार्य करना चाहिये। उन्नतशील किस्मो मे 100-120 क्ंिवटल एवं संकर किस्मो मे 200-250 क्ंवटल/हेक्टेयर उपज मिलती है।