अक्ल पर ताला हो तो विज्ञान कहां जाए?

अक्ल पर ताला हो तो विज्ञान कहां जाए?

यदि आप देखना चाहते हैं कि सबसे महत्वपूर्ण मुद्‌दों पर तथ्यों के बिना कैसे बहस होती है तो मेरे साथ राव तुला राम मार्ग के पश्चिमी छोर पर स्थित दिल्ली यूनिवर्सिटी के साउथ कैम्प की छोटी-सी यात्रा पर चलें। यह सुंदर, हरा-भरा, शांत और गंभीर परिसर है। अन्य संस्थानों के अलावा यहां के बायो टेक्नोलॉजी सेंटर में देश की सबसे महत्वपूर्ण शोध प्रयोगशालाएं हैं।

यह छोटी-सी प्रयोगशाला है, जहां 22 से 65 आयु वर्ग के दो दर्जन शोधकर्ता उस टेक्नोलॉजी पर काम कर रहे हैं, जिसका आधुनिक मिथकों में इतना खौफ है- जेनेटिकली मॉडिफाइड क्रॉप (आनुवांशिक रूप से सुधारी गईं फसलें)। रिसर्च लीडर प्रोफेसर दीपक पेंटल कहते हैं कि ‘जेनेटिकली मॉडिफाइड’ से गलतफहमी पैदा होती है। वे जेनेटिकली इंजीनियर्ड (जीई) शब्द को तरजीह देते हैं। वे और कोर टीम में शामिल जेनेटिक रिसर्च के पांच अन्य दिग्गज शोधकर्ताअों के लिए ये खुशी व राहत के पल हैं। जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल समिति (जीईएसी) ने उनकी 32 साल की मेहनत को मान्यता देते हुए जीएम सरसों को सुरक्षित करार दिया है।

 

‘इससे सारी आशंकाएं खत्म हो जानी चाहिए,’ वे पांच स्पाइरल बाइंडिंग वाली 4 हजार पेज की रिपोर्ट की ओर इशारा करते हुए कहते हैं। इसमें वह सेफ्टी डेटा है, जो उनकी टीम ने जीईएसी को सौंपा था। वे याद दिलाते हैं कि उनकी तीखी आलोचना ही नहीं हुई, उन पर बौद्धिक चोरी का आरोप भी लगाया गया, उनकी खोज में अड़चन पैदा करने के लिए सबकुछ किया गया। कहा गया कि जीएम बीज दुष्ट, लालची बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने विकसित किए हैं। पेटेंट, टेक्लोलॉजी और जीन स्टॉक पर मालिकाना हक व एक बार इस्तेमाल के बाद खत्म होने वाले बीजों से वे आपूर्ति और कीमतों पर एकाधिकार कर देशी किसानों को गुलाम बना लेंगे। सच यह है कि सरसों पूरी तरह सरकारी प्रयोगाशालाओं में विकसित हुई है, जिन्हें केवल सरकारी एजेंसियों से पैसा मिला है, जिनमें उल्लेखनीय है डॉ. वर्गीस कुरियन का नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड, जो राजीव गांधी के राष्ट्रीय तिलहन मिशन की ओर आकर्षित हुआ। भारत में हमेशा खाद्य तेल की कमी रही है और वह हर साल बड़ी मात्रा में इसका आयात करता है। भारत में खाद्य तेल से जुड़ी फसलों में एक-तिहाई सरसों है। अन्य फायदों के अलावा अब इसका उत्पादन 25 से 30 फीसदी बढ़ जाएगा। जब उन्होंने 1987 में युवा वैज्ञानिक दीपक पेंटल (प्रो.पेंटल और मैं पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ में पढ़े हैं, एक ही होस्टल में रहे हैं। वे मुझसे कुछ साल सीनियर थे) के नेतृत्व वाली लैब की फंडिंग का निर्णय लिया था तो यह एक सपना था। बॉटनिस्ट पेंटल ने रटजर्स से पीएचडी की है और पोलैंड में शोध के दौरान सरसों के प्रेम में पड़ गए। उन्होंने संकर नस्ल तैयार करने की सामान्य विधि (परागण के जरिये) से पोलिश व भारतीय किस्म की संकर किस्म पर काम किया। यह लगभग असंभव-सा काम था। बॉटनिस्ट सरसों के फूल को हर्माफ्रोडाइट कहते हैं, यानी उभयलिंगी, जिसमें नर तथा मादा दोनों अंग होते हैं और उन तक बाहरी स्पर्म लाए जाने के पहले ही स्व-परागण हो जाता है। उन्होंने सोचा कि यदि वे नर तत्व (मैं जान-बूझकर बॉटनी के भारी-भरकम शब्दों की जगह सरल शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं) को पूरी तरह दबा सकें तो कुछ हो सकता है। फिर वे एक किस्म को मादा बनाकर दूसरी किस्म से इसका परागण करा सकते हैं। पेंटल और दिल्ली यूनिवर्सिटी की साधारण वेतन प्राप्त करने वाली उनकी टीम ने चुनौती स्वीकार की। उन्होंने सरसों की देसी किस्म में तीन नए जीन्स प्रवेश कराने का काम हाथ में लिया। पहले दो जीन्स मिट्‌टी में पाए जाने वाले जीवाणु से लिए गए जबकि तीसरा स्ट्रेप्टोमाइसेस की प्रजाति का है। सारे हानिरहित थे। वैसे बता दूं कि सरसों में 85 हजार से ज्यादा जीन्स होते हैं।
प्रोफेसर पेंटल दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुलपति बने, लेकिन उन्होंने लैब नहीं छोड़ी और पूर्णकालिक शोधकर्ता के रूप में फिर लौटे। हम हमेशा से देशज विज्ञान के पतन, प्रतिभा के पलायन, अन्य देशों के प्रोडक्ट पर निर्भरता का रोना रोते रहते हैं। पेंटल के मुताबिक बड़ी समस्या यह है कि एक बार शीर्ष पद मिल जाए तो हमारे वैज्ञानिक शोध छोड़कर ‘साइंस ब्यूरोक्रेट’ बन जाते हैं। पेंटल को यूपीएससी की सदस्यता का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन उन्होंने सरसों के लिए यह पेशकश ठुकरा दी।

 

क्या ये वैज्ञानिक अपनी सरसों खाएंगे और अपने बच्चों को खिलाएंगे। वे कहते हैं, बेशक, जिस दिन मंजूरी मिल जाए उसी दिन से। दुनियाभर में खरबों प्रकार का जीएम आहार लिया जा रहा है। कनाडा में 1996 में तैयार सरसों कनोला सबसे पहले मंजूरी दी गई जीएम फसलों में से है। भारत हर साल तीन लाख टन कनोला आयात करता है। हमारे खाद्य तेल और वनस्पति में बड़ा हिस्सा आयातीत सोयाबीन तेल का है, करीब 30 लाख टन सालाना और यह सब जीएम किस्म का है। हमारा ज्यादातर कॉटन अब जीएम/ बीटी है। चाहे हम अब भी बाबा रामदेव की केवल देसी घी खाने की सलाह मानकर खुद को ‘सुरक्षित’ रखना चाहते हैं, लेकिन यह उसी देसी गाय से मिलता है, जिसने काफी बिनोला पशु अाहार खाया हैै। भारत में अब ऐसा बिनोला खोजना मुश्किल है जो बीटी न हो। अंडों व चिकन की बात करें तो पोल्ट्री अाहार में जीएम मक्का है। बेशक हम अब भी मूर्खता कर सकते हैं। हम संप्रभु देश हैं और हमारा मौजूदा विमर्श सुस्तीभरा, विज्ञान विरोधी है और तथ्यों से भ्रमित नहीं होना चाहता। उधर, चीन को इसकी परवाह नहीं है। वह 43 अरब डॉलर (करीब 2.9 लाख करोड़ रुपए) खर्च करके दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी क्रॉप साइंस/ जीएम शोध की बहुराष्ट्रीय कंपनी सिंजेंटा खरीद रहा है (सबसे बड़ी कंपनी बायर, 65 अरब डॉलर देकर दूसरी सबसे बड़ी कंपनी मोंसेंटो खरीदने को तैयार है)।

प्रोफेसर पेंटल कहते हैं कि चीन को उनकी सरसों चाहिए जो सिर्फ 50 करोड़ रुपए (70 लाख डॉलर) खर्च करके विकसित की गई है। चीनियों ने अपने दस्तावेजों में इसका श्रेय पेंटल व उनकी टीम को दिया है। वे इसे इसलिए चाहते हैं, क्योंकि इसमें सूखे से लड़ने की काबिलियत है। न तो वे सरसों का तेल खाते हैं और न यह उन्हें मालिश के लिए चाहिए। याद रखें कि लगभग सारी चीनी हरी सब्जियां, जो उनके व्यंजनों के लिए आवश्यक हैं, उसी सरसों परिवार की सदस्य हैं। मुझे लगता है इसके बाद तो हमें कुछ विचार-मंथन करना चाहिए।

शेखर गुप्ता
जाने-माने संपादक और टीवी एंकर