कब आएंगे किसानों के ‘अच्छे दिन’?

कब आएंगे किसानों के ‘अच्छे दिन’?

भारतीय अर्थव्यवस्था प्राचीन काल से ही कृषि आधारित रही है। यहां उन्नत कृषि संस्कृति भी रही है। तभी तो यहां ‘उत्तम कृषि, मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान’ की लोकोक्ति प्रचलित थी जिसमें कृषि को सर्वोत्तम बताया गया। किसानों को सम्मानपूर्वक ‘अन्नदाता’ कहा गया है। किंतु अंग्रेजों के शासनकाल में दोषपूर्ण भूमि व्यवस्था के दुष्परिणाम भारतीय किसानों ने भुगते हैं। कृषि प्रधान भारत के 90ः किसान इस दौरान जमींदारी प्रथा के कारण भूमि की उपज के सुख से वंचित थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भूमिधर कम थे एवं भूमिहीन ज्यादा, खेती के पिछड़ेपन के कारण प्रति हेक्टेअर उत्पादन बहुत कम था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार ने कृषि उत्पादन बढ़ाने एवं उनकी समस्याओं का समाधान करने के लिए कुछ प्रयास जरूर किए हैं- सिंचाई के लिए नहरों, ट्यूबवेल का निर्माण, रासायनिक खाद, उन्नत बीज, कीटनाशक औषधि, आधुनिक खेती की जानकारी, बैंकों से ऋण आदि की व्यवस्था। इससे कुछ बड़े किसानों के दिन सुधरे हैं किंतु बहुसंख्यक छोटे किसान आज भी जीवन की मौलिक सुविधाओं से वंचित हैं। किसान की संख्या घट रही है और खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ रही है और खेती छोड़कर वे नौकरी की खोज में शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। भूख और प्यास से मौत जब मुहाने पर खड़ी दिखती है तो शहर की ओर पलायन करना मजबूरी हो जाती है। आज पंजाब के किसान खेती करने के लिए आस्ट्रेलिया एवं कनाडा जा रहे है, इसी प्रकार, बिहार, उत्तर प्रदेश के किसान पंजाब जा रहे हैं क्योंकि उन्हें वहां बेहतर सुविधाएं मिलती हैं। तो बिहार और उत्तर प्रदेश में खेती कौन करेगा? किसानों को अपने गांव में ही बेहतर सुविधाएं देना समय की मांग है।

 
किसानों की समस्याएं अनगिनत हैं। आज भी हमारे किसान खेती के लिए प्रकृति पर आश्रित हैं। उन्नत बीज, रासायनिक खाद, उचित सिंचाई व्यवस्था, खेती की आधुनिक तकनीकें, पैदावार के भंडारण, प्रसंस्करण और मार्केटिंग की सुविधाएं आम किसान की पहुंच से दूर हैं। बाढ़, सूखा, जलवायु परिवर्तन, कीटों एवं जानवरों द्वारा फसल की बर्बादी, कम उत्पादन, रोजगार की कमी, खराब कार्यदशाएं, सरकारी निवेश की कमी, खाद-बीज-सिंचाई का खर्चा दिनानुदिन बढ़ने के कारण लागत में वृद्धि, उत्पाद मूल्य में कमी, कम आय, यूनियन का अभाव, कम ब्याज एवं आसान शर्तों पर ऋण की अनुपलब्धता जैसी समस्याएं उनके जीवन का अंग बन चुकी है। पानी के अभाव में किसान कम खेतों में ही फसल की बुआई कर पाते हैं, उसे भी प्रायः नीलगाय एवं जंगली सूअर नष्ट कर देते हैं। पिछले वर्ष बिहार सरकार ने लगभग तीन हजार नीलगायों को गोली से मरवा दिया जबकि उसे पशु शिविर में लाकर नियंत्रित भी किया जा सकता था। आखिर पशु भी हमारी तरह प्रकृति का हिस्सा हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति, पशु और इंसान एक-दूसरे के पूरक हैं, दुश्मन नहीं।

 
सरकारी तौर पर जो थोड़ी-बहुत सुविधाएं किसानों को दी जा रही हैं, अशिक्षा एवं गरीबी के कारण वे उनका पूर्णतः लाभ नहीं उठा पाते। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के अनुसार देश के आधे से ज्यादा किसानों को सरकार द्वारा निर्धारित ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ व्यवस्था की जानकारी ही नहीं है और जिनको इसकी जानकारी है उनके आसपास सरकारी विक्रय केन्द्र ही नहीं है परिणामस्वरूप वे बिचैलियों के हाथों अपने उत्पाद औने-पौने दाम पर बेचने को विवश हैं। किसानों की सबसे बड़ी समस्या है उनको पैदावार से मिलने वाली कम कीमत। कृषि उत्पाद की उपभोक्ता के स्तर की कीमत और किसान के स्तर की कीमत में 50 से 300 प्रतिशत तक का अंतर होता है। किसान को एक किलो दाल के प्रायः 50 रुपए मिलते हैं पर दाल बेचने वाली कंपनी को 150 रुपए मिलते हैं। मेहनत किसान करता है और फायदा बिचैलिया या व्यापारी ले जाता है। सरकार को इस विसंगति को दूर करने पर विशेष ध्यान देना चाहिए। फसल कम हो या बहुत ज्यादा हो, नुकसान किसानों को ही उठाना पड़ता है। बंपर फसल की स्थिति में फसल की कीमत बहुत कम हो जाती है एवं कम फसल की स्थिति में सरकार विदेशों से उसे आयात करती है, इससे भी फसल की कीमत कम हो जाती है।

 
मोदी सरकार के वर्ष 2016-17 के लिए खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि का कदम अच्छा है, लेकिन किसानों को उनकी बदहाली से बाहर निकालने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। गेहूं और कपास की कीमतों में प्रति क्विंटल 60 रुपए, ज्वार तथा बाजरे की कीमतों में प्रति क्विंटल 55 रुपए तथा मक्के की कीमतों में 40 रुपए प्रति क्विंटल की मामूली वृद्धि की गई। फल-सब्जी का तो कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य होता ही नहीं है। जब फसलों के दाम समुचित नहीं बढ़ेंगे तो किसानों की न तो क्रय शक्ति बढ़ पाएगी और न ही उनके जीवन स्तर में कोई सुधार ही होगा। इधर पिछले कुछ सालों से दैनिक उपयोग की वस्तुओं की कीमतें काफी तेजी से बढ़ी हैं। वर्ष 2001 से अबतक दैनिक उपयोग की वस्तुओं की कीमतों में लगभग 400 प्रतिशत का इजाफा हुआ है, रासायनिक खादों के औसतन दाम 300 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़कर 1400 रुपए हो गये हैं तथा कीटनाशकों के औसतन दाम 100 रुपए से बढ़कर 400 रुपए हो गए हैं। अन्य वस्तुओं के दामों में इतनी वृद्धि के बावजूद कृषि उत्पादों की कीमतों में इन वर्षों में मात्र 75 प्रतिशत की वृद्धि ही हुई है। इसके परिणामस्वरूप किसान अब न्यूनतम समर्थन मूल्य या लागत मूल्य को अपर्याप्त मानकर ‘समता मूल्य’ की मांग करने लगे हैं जिसे किसी भी पुराने वित्त वर्ष को आधार वर्ष मानकर अन्य वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य में हुई वृद्धि के अनुपात से किसानों को ‘समता मूल्य’ दिया जा सकता है। इससे किसान संपन्न और खुशहाल होंगे। यह भी सच है कि किसी भी व्यवसाय में सिर्फ लागत मूल्य प्राप्त होने से काम नहीं चलता। लाभ किसी भी व्यवसाय में जरूरी होता है। दुर्भाग्यवश लाभकारी मूल्य किसानों को अबतक नसीब नहीं हुआ है। इससे बाध्य होकर किसान धीरे-धीरे खेती छोड़ रहे हैं और अनुमानतः प्रतिवर्ष लगभग 30 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि खेती के दायरे से बाहर होती जा रही है। कृषि क्षेत्र में जान फूंकने के लिए जरूरी है कि किसानों की आय बढ़ाना सुनिश्चित किया जाए। चूँकि न्यूनतम समर्थन मूल्य में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी करने से महंगाई बढ़ेगी इसलिए सरकार किसानों को उनके उत्पाद के हिसाब से समुचित सब्सिडी देकर इस समस्या से छुटकारा दिला सकती है। इससे बेहतर कोई सटीक विकल्प नहीं है। इससे किसान भी खुशहाल होंगे और अन्य देशवासी भी महंगाई की मार से बचेंगे।

 
कहा जाता है कि छोटा किसान कर्ज में जन्म लेता है, सहकारी-प्रथा में जीवन-भर पिसता है और कर्ज में डूबकर मर जाता है। एनएसएसओ के अनुसार पिछले 11 वर्षों में कर्ज से दबे किसानों की संख्या 51.9ः है, 40.2ः किसानों को सेठ और साहूकार से 24 से 60ः वार्षिक ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता है। उसे उम्मीद होती है कि वह ऋण खेती की आय से चुका देगा, पर खेती उसे प्रायः दगा देती है। समय बीतता जाता है और ब्याज बढ़ता जाता है फिर इसकी कीमत किसान को अपनी जमीन बेचकर या आत्महत्या करके चुकानी पड़ती है। कैसी विडम्बना है कि किसान अपना सारा जीवन परोपकार में बिता देते हैं पर उनके जीवन के सुरक्षा की चिंता किसी को भी नहीं होती। वर्ष 2004 से अबतक 1,63,795 किसानों ने आत्महत्या की जो कि हत्या प्रतीत होती है। हर आत्महत्या में जीवन के आखिरी क्षण तक खुद को बचाने की एक खामोश पुकार होती है, जिसे शायद कोई समझ नहीं पाता। मुसीबत की घड़ी में यदि किसी ने उसे सहारा दिया होता, तो शायद उसका फैसला बदल सकता था।

 
जब सभी राजनीतिक दल सचमुच किसानों के मुद्दे पर वोट बैंक की राजनीति करने की बजाय एकजुट होकर किसानों के हक की लड़ाई लड़ें, तो उनके ‘अच्छे दिन’ आ सकते हैं। खेती के लिए किसान द्वारा प्रयुक्त खाद, बीज, पानी, बिजली, डीजल, ट्रैक्टर, कुदाल, थे्रसर आदि का मनमाना कीमत कोई और तय करता है किंतु किसान को अपने फसल की कीमत स्वयं निर्धारित करने का भी अधिकार नहीं है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि खेती में लागत बढ़ती है और आमदनी घटती है। यदि कृषि को उद्योग का दर्जा दे दिया जाए तो किसान को अपनी फसल की कीमत निर्धारित करने का अधिकार मिल जाएगा।

 
वास्तव में, भारत तीन इंजन का एयरक्राफ्ट है जिसमें पहला इंजन इंडस्ट्री है, दूसरा हृयूमन डेवलपमेंट यानी शिक्षा व स्वास्थ्य और तीसरा रूरल डेवलपमेंट यानी किसान व खेती। अभी तक हम सिर्फ इंडस्ट्री के सहारे उड़ान भर रहे हैं, जिस दिन बाकी दोनों इंजन भी खोल दिए गए तो हम दुनिया में नंबर एक होंगे। हमारे पिछड़ने का मूल कारण यही है कि जो हमारा सबसे बड़ा आर्थिक समृद्धि का स्रोत हो सकता है यानी किसान, उसकी ओर हमने सबसे कम ध्यान दिया। किंतु मोदी सरकार ने किसानों की समस्याओं पर विशेष ध्यान देना शुरू किया है। ‘ग्राम उदय से भारत उदय’ अभियान केन्द्र सरकार की नेक नियति को दर्शाता है। ‘अन्नदाता सुखी भवः’ के मंत्र के साथ कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को शुरू किया गया है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, मृदा परीक्षण कार्ड, पशुपालन/मत्स्य पालन, फसल चक्र, नीम कोटेड यूरिया, किसान चैनल, ई-मंडी, जल संरक्षण, ‘पर ड्राॅप मोर क्राॅप’, वनीकरण, भूमिक्षरण की रोकथाम, ग्रामीण विद्युतीकरण को बढ़ावा, मनरेगा का विस्तार, सब्सिडी सीधा किसानों के खाते में देने जैसी पहल किसानों की दशा और दिशा, दोनों में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है। अभी लगभग 75ः किसान फसल बीमा के दायरे से बाहर हैं। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में बीमा प्रीमियम की राशि बहुत कम कर दी गई है जैसे कि रबी फसलों पर 1.5 प्रतिशत, खरीफ पर दो प्रतिशत और व्यावसायिक अथवा बागवानी खेती पर पांच प्रतिशत। इससे किसान बीमा लेने में प्रोत्साहित होंगे और अपने को संकट मुक्त करने में भी सक्षम होंगे।

 
अभी देश की सकल आय में कृषि, वानिकी और मतस्य पालन का योगदान मात्र 17.5 प्रतिशत है जबकि कुल रोजगार का 49 प्रतिशत इस क्षेत्र से सृजित होता है। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि बहुत ज्यादा लोग बहुत कम कमा रहे हैं। इसी की परिणति हमें प्रति व्यक्ति कम आय और गरीबी में दिखाई देती है। इसलिए किसानों की आय में वृद्धि करना सबसे जरूरी है। केन्द्र सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का सपना देखा है। इसके लिए अगले छह वर्षों में कृषि वृद्धि दर को 12 प्रतिशत से ऊपर रखना होगा। यह मुश्किल जरूर है किंतु इरादा अगर अटल हो तो यह असंभव नहीं है। मध्य प्रदेश यदि 12 प्रतिशत कृषि विकास दर हासिल कर सकता है तो अन्य राज्य क्यों नहीं? इसमें सरकार के साथ-साथ हम सबकी जिम्मेदारी भी बनती है। हर नई तकनीक, नए उपकरण, नए प्रयोग, नई स्कीम पर किसानों को दिलचस्पी लेनी चाहिए। किसान अधिक उपज के लालच में अंधाधुंध तरीके से रासायनिक खादें एवं कीटनाशक का प्रयोग कर रहे हैं जिससे देश में कैंसर ने महामारी का रूप धारण कर लिया है। हर रात अबोहर (पंजाब) से बीकानेर (राजस्थान) के लिए एक गाड़ी चलती है जिसका नाम ही लोगों ने ‘कैंसर ट्रेन’ रख दिया है। किसान जैविक खादों का इस्तेमाल करने के साथ-साथ कृषि की अन्य आधुनिक विधियां अपनाएं जिनसे पानी भी कम लगे और उन्नत किस्म की बीजों के इस्तेमाल एवं फसल चक्र अपनाने से अधिक पैदावार भी प्राप्त हो और किसी भी प्रकार का प्रदूषण भी उत्पन्न न हो। कृषि में शोध हो, ‘ड्राइ-लैंड फार्मिंग’ की तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाया जाए जिससे बरसात पर निर्भरता कम हो। इसी तकनीक से ब्राजील एवं रेगिस्तान जैसे इजरायल में कृषि क्रांति आया है। किसानों को मांग के अनुसार पैदावार करनी चाहिए। आज हर्बल उत्पादों की मांग दुनिया भर में है। भारत के मौसम और मिट्टी अलग-अलग इलाकों में तरह-तरह की जड़ी बूटियों की खेती में मददगार हैं। यह कुदरत की देन है। किसान तरह-तरह की जड़ी-बूटियों की खेती कर अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं। मोदीजी का विचार इस मायने में आशाजनक है कि वे खुद कुछ न कुछ नया करते रहते हैं। हर क्षेत्र में लीक से हटकर कुछ नए प्रयोग हों, वे यह चाहते हैं। सरकारें, पंचायती राज संस्थाएं, वित्तीय और कृषि से जुड़े संस्थान मिल कर किसानों की कायापलट कर सकती हैं।

 

किसानों के उद्धार के लिए कई योजनाएं तो पहले भी रही हैं किंतु पर्याप्त बजट के अभाव में वह सफल नहीं हुई हैं। नोटबंदी के दौर में किसानों को अपने उत्पादों की बहुत कम कीमत मिली है एवं उनकी स्थिति बद से बदतर हो गई थी। इसे देखते हुए मोदी सरकार ने केन्द्रीय बजट में कृषि एवं इससे जुड़े क्षेत्रों के खर्च में अभूतपूर्व 24ः की बढ़ोत्तरी की है। वित्त मंत्री ने बजट में कृषि की आधारभूत संरचना में निवेश बढ़ाने की बात कही है। मनरेगा के लिए बजट राशि बढ़ा दी गई है। मनरेगा के अंतर्गत उत्पादक कार्य करने पर जोर रहेगा, ग्रामीण सड़कों का विस्तार किया जाएगा। गांवों के विद्युतीकरण के लिए अधिक धन उपलब्ध कराया गया है। कृषि में निवेश बढ़ने से कृषि उत्पादन लागत कम होगी एवं उत्पादन ज्यादा होगा, परिणामतः किसानों की आय बढ़ेगी। अभी तक महंगी दरों पर कर्ज ही किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण रहा है। इसलिए अधिक से अधिक किसानों को बैंकों से कम ब्याज पर कर्ज देने का अब तक का सबसे बड़ा लक्ष्य इस बजट में रखा गया है। इससे किसान सेठ-साहूकारों से महंगा कर्ज लेने से बच पाएंगे और कर्ज को आमदनी में बदल पाएंगे। खेती के लिए सबसे जरूरी चीज पानी के लिए बड़े पैमाने पर तालाब बनाने की योजना है। अभी लगभग 22ः फल-सब्जी उचित रखरखाव के अभाव में बर्बाद हो जाते हैं। इसलिए कांट्रेक्ट फार्मिंग की बात बजट में की गई है ताकि फल, सब्जी जैसे जल्दी खराब होने वाले फसल को बचाया जा सकेगा। साथ ही, फसल बीमा योजना का दायरा बढ़ाकर 40ः कर दिया गया है जो सराहनीय है। नोटबंदी से सरकार के पास पर्याप्त धन की व्यवस्था हो गई है इसलिए किसानों की इतनी विशालकाय समस्या को देखते हुए ‘कर्जा माफी’ एवं जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न मौसम की अनिश्चितता एवं इसके परिणामस्वरूप आय की अनिश्चितता से बचाने के लिए ‘फिक्स्ड इनकम स्कीम’ की उम्मीद किसान कर रहे हैं। तभी वित्त मंत्री का अपने बजट भाषण में कविताई ‘‘हम आगे-आगे चलते हैं आ जाइये आप’’ का अनुसरण करते हुए किसान उनके पीछे चलेंगे।