कर्जमाफी किसानों के हालत का मजाक
"बचपन की बात याद आ जाती है ऋण मोचन कार्यक्रम में बिल्कुल वही सभी कुछ बही बस समय और परिस्थितियों के अलावा कुछ नहीं बदला। गाँव में पहले मदारी आता था डमरू और ढोल नगाड़ों को बजा कर भीड़ को बुलाता फिर दोपहर को गांव के बीच फुर्सत में बन्दर केे खेल दिखाता।लोग ताली बजा कर पैसे देते।आज भी बही सब । किसानों का खेल तमाशा ।"
किसान ही नहीं बल्कि पूरे कृषि क्षेत्र का संकट है’, यह एक “कृषि प्रधान” देश की “कृषक प्रधान” देश बन जाने की कहानी है I 1950 के दशक में भारत के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 50 प्रतिशत था,1991 में जब नयीआर्थिक नीतियां को लागू की गयी थीं तो उस समय जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 34.9 % था जो अब वर्तमान में करीब 13% के आस – पास आ गया है. जबकि देश की करीब आधी आबादी अभी भी खेती पर ही निर्भर है I नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से सेवा क्षेत्र में काफी फैलाव हुआ है जिसकी वजह से आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की चुनिन्दा अर्थव्यवस्थाओं में शुमार की जाने लगी है लेकिन सेवा क्षेत्र का यह बूम उसअनुपात में रोजगार का अवसर मुहैया कराने में नाकाम रहा है I
भारत के किसान खेती में अपना कोई भविष्य नहीं देखते हैं, उनके लिये खेती-किसानी बोझ बन गया है हालात यह हैं कि देश का हर दूसरा किसान कर्जदार है. 2013 में जारी किए गए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े बताते है कि यदि कुल कर्ज का औसत निकाला जाये देश के प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतम 47 हजार रुपए का कर्ज है. इधर मौजूदा केंद्र सरकार की तुगलगी हिकमतें भी किसानों के लिए आफत साबित हो रही हैं, नोटबंदी ने किसानों की कमर तोड़ के रख दी है यह नोटबंदी ही है जिसकी वजह से किसान अपनी फसलों को कौडि़यों के दाम बेचने को मजबूर हुए, मंडीयों में नकद पैसे की किल्लत हुई और कर्ज व घाटे में डूबे किसानों को नगद में दाम नहीं मिले और मिले भी तो अपने वास्तविक मूल्य से बहुत कम. आंकड़े बताते हैं कि नोटबंदी के चलते किसानों को कृषि उपज का दाम 40 फीसदी तक कम मिला. जानकार बताते हैं कि खेती- किसानी पर जीएसटी का विपरीत प्रभाव पड़ेगा, इससे पहले से ही घाटे में चल रहे किसानों की लागत बढ़ जायेगी. मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी कर देने जैसे जुमले उछालने के आलावा कुछ खास नहीं किया है. आज भारत के किसान अपने अस्तित्व को बनाये और बचाए रखने के लिए अपने दोनों अंतिम हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसके दावं पर उनकी जिंदगियां लगी हुई हैं.एक हथियार गोलियां-लाठियां खाकर आन्दोलन करने का है तो दूसरा आत्महत्या यानी खुद को ख़त्म कर लेने का I
कर्जमाफी में हम किसानों की सरकार द्वारा जबरजस्त करके बेज्जती की जा रही है किसानों को मंच पर खड़ा करके मिडिया के द्वारा बताया जा रहा है कि किस कदर भूखे नंगे किसानों का कर्ज माफ़ करके उन्हें वोट के लिय पटाया जा रहा है I कर्ज माफ़ी तो उद्योग जगत की भी की गयी लेकिन कभी किसी मंच से उसका जिक्र भी नही किया गया I यह सरकार की कार्पोरेट नीति है की किसानों को इतने नीचे दवा दे जिससे वे दुबारा उठ नही सके I सांसद मंत्रियों के साथ बड़े बड़े कार्यक्रम किये जा रहे है किसानों को 100000 की माफ़ी के लिए सरेआम इज्जत उछाल कर उसकी बेबसी का मजाक उड़ाया जा रहा है Iजब सरकारें कॉर्पोरेट जगत को छूट दे सकती है तो तो किसानों के कर्ज माफ़ी में क्या दिक्कत है. सरकार जब 60 हज़ार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष कॉर्पोरेट को प्रोत्साहन के लिए देती है तो उसका तो इतना प्रचार नही किया जाता है हैरानी इस बात पर भी है कि बैंकों के कुल ऋण में उद्योगपतियों की हिस्सेदारी 41.71 फीसदी है, जबकि किसानों की महज 13.49 प्रतिषत ही है। जाहिर है, उद्यसेगपतियों का ही बैंकों का ज्यादा कर्ज फंसा हुआ है। यही वजह है कि पिछले 17 महीनों में बैंकों का एनपीए बढ़कर दोगुने से ज्यादा हो गया है। नबंवर 2016 में वित्त राज्यमंत्री पुरुशोत्तम रूपला ने राज्यसभा में कृषि कर्ज से जुड़े आंकड़े पेष करते हुए कहा था कि 30 सितंबर 2016 तक देश के 9 करोड़ किसानों पर 12 लाख 60 हजार करोड़ का कर्ज हैं। राज्यसभा में ही केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री संतोश कुमार गंगवार ने स्पश्ट किया कि 30 जून 2016 तक 50 करोड़ रूपए से अधिक का ऋण लेने वाले उद्योगपतियों के 2071 एनपीए खातों में कुल 3 लाख 88 हजार 919 करोड़ रुपए की राषि है, जो डूबंत खाते में चली गई है। इनमें भी 10 ऐसे औद्योगिक समूह हैं, जिन पर 5 लाख 73 हजार 682 करोड़ रुपए का कर्ज है। विजय माल्या जैसे 9000 करोड़ के कर्जदार के भाग जाने के बावजूद सरकार इन उद्योगपतियों से कर्ज वसूली की कोई अहम् पहल नहीं कर रही है।
.यह मकडजाल सरकार की मर्जी से बुना जा रहा हैं I 70 साल तक राज्य करने वाला दल इस समय किसानों का अचानक हितैषी बन गया आज उसे किसान लाचार नज़र आने लगा I