खेती में विदेशी निवेश की क्या आवश्यकता?
अपनी सरकार से यह सवाल कभी क्यों नहीं पूछा कि आखिर खेती में विदेशी निवेश की जरूरत क्यों है? सरकार ने पिछले 10 वर्षों में कर्ज और बीमा आधारित ऐसी तकनीकें अपनाई हैं, जिनसे किसान कंपनियों का बंधुआ बन गया है. किसान को संरक्षण देने का तर्क देकर कृषि बीमा योजना शुरू की गई. पर यह एक सामूहिक बीमा योजना है, जिसके अब तक के क्रियान्वयन से पता चला है कि किसानों को 80 प्रतिशत नुकसान की तो भरपाई का प्रावधान ही इसमें नहीं है.
खेती के लिए तो थोड़ी बहुत सब्सिडी बजट में बची है, वह अब सीधे उर्वरक, कीटनाशक, मशीन और ट्रेक्टर बनाने वाली कंपनियों को देने की पहल कर दी गई है. इसके साथ ही ठेका खेती या कांट्रेक्ट फार्मिंग के तहत कम्पनियाँ बड़े किसानों के समूह बना कर अपनी जरूरत के मुताबिक उत्पादन करवायेंगी, जैसे मूगफली, लहसुन, टमाटर, आलू, कपास, सोयाबीन, गन्ना कुछ ऐसी फसलें हैं, जिनकी प्रोसेसिंग होती है. इनका उत्पादन ठेका खेती के तहत होगा. इस नीति से बाजार वाली नकद फसलों का उत्पादन बढेगा और अनाज का उत्पादन कम होगा.
एक तरफ तो सरकार सूखे में खेती की साधन और तकनीकें ढूढ़ रही है, तो वही दूसरी और ऐसी फसलों और बीजों को सरकारी कार्यक्रमों के तहत बढ़ावा दिया जा रहा है, जिनमें देशी बीजों की तुलना में कई गुना ज्यादा पानी की जरूरत होती है और बिना रसायनों के उत्पादन को सुरक्षित नही रखा जा सकता है. पर ऐसी खेती ही औद्योगिक घरानों की हित में है, उन्हें इससे लाभ होता है. सो सरकार ने खेती के क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए अब पूरा खोल दिया है, यानी जो कंपनी जैसा चाहेंगी वैसा कर सकेगी, सरकार को बस कुछ आंकड़े चाहिए होंगे.
कई लोग आवाज उठाने लगे हैं कि अब दूसरी हरित क्रांति का वक्त आ गया है. फूड सेक्यूरिटी बिल इसका ही आगाज है लेकिन पहली हरित क्रांति के जनकों में एक एम.एस. स्वामीनाथन जोर से कह रहे हैं कि दूसरी हरित क्रांति भी सम्भव नहीं होगी. वे ऐसा क्यों कह रहे हैं- स्वामीनाथन की आपत्ति दो स्तरों पर है. पहली इस स्तर पर कि सरकार कृषि क्षेत्र के विकास के बारे में न ईमानदार है, और न सावधान है! वे आंकड़े देते हैं कि पिछले बजट में कहा गया था कि दलहन के उत्पादन में तेजी लाने के लिए सरकार 60 हजार गांवों को विशेष प्रोत्साहन देगी. बजट में इसके लिए 300 करोड़ रुपयों की व्यवस्था की गई. मतलब एक गांव को दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए 50 हजार रुपये दिये गये. क्या कोई कृषि जानकार व्यक्ति बता सकता है कि 50 हजार रुपयों की सहायता से आप किसी गांव की खेती का ढांचा बदल सकते हैं क्या स्वामीनाथन यहां इसका हिसाब भी नहीं लगा रहे हैं कि कोई भी सरकारी रकम दिल्ली से चलकर किसी मोतिहारी तक पहुंचनेमें कितनी रह जाती है! वे तो कह रहे हैं कि अगर पूरी की पूरी रकम ही गांव तक पहुंच जाये तो भी वह इतनी कम है कि आप उससे कुछ कर नहीं सकते हैं. यह रही ईमानदारी में कमी की बात!
फिर स्वामीनाथन दूसरा आंकड़ा देते हैं कि कृषि में बड़ी चिंता के साथ 300 करोड़ रुपयों का निवेश करने वाली सरकार उद्योगों को उसी बजट में 373 लाख करोड़ रुपयों की कर छूट इस तरह दे देती है कि उस बारे में कोई र्चचा भी नहीं होती है. स्वामीनाथन नाराज हैं कि यह सरकार कृषि क्षेत्र की उपेक्षा ही नहीं कर रही है बल्कि वह इसे खोखला बनाने में भी लगी है. स्वामीनाथन बताते हैं कि दूसरी हरित क्रांति के लिए हमें चार जरूरी कारक चाहिए. हमें ऐसी टेक्नॉलाजी चाहिए जो उपज में कई गुना ज्यादा वृद्धि कर सके. हमें बेहतर सुविधाएं चाहिए, जैसे कि बिजली, सड़क आदि. हमें सरकारी नीतियों से बंधा अनुकूल बाजार चाहिए तथा अंतिम यह कि किसानों में इसके प्रति उत्साह चाहिए. वे दूसरी हरित क्रांति के लिए इस उत्साह को सबसे अहम मानते हैं. आज इस स्थिति से स्वामीनाथन परेशान व दुखी हैं. वह उसी का विकास है जिसका बीजारोपण उन्होंने ही किया था.
समस्याएं-
उस विकास का क्या लाभ जो किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़े. हमें पंजाब से सीख लेनी चाहिए जहाँ प्रथम हरित क्रांति के का कारण पंजाब जैसे राज्य की मिट्टी कि उर्वरक क्षमता खत्म हो गयी, पानी जहरीला हो गया.
दुखद यह है कि अधिकांश जगहों पर इस योजना के अंतर्गत हाइब्रिड बीजों, खाशकर चावल एवं मक्के में, एवं रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है. नई हरित क्रांति स्वागत योग्य जरूर है क्योंकि हम पूर्वी राज्यों में हरित क्रांति के तहत निवेश कर रहे हैं परन्तु हमें कुछ महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना होगौ हमें सावधानी बरतनी होगी कि नई हरित क्रांति हमारे उत्पादक संसाधन को नुकसान नहीं पहुंचाए बल्कि उनमें सुधार लाये. इस नई हरित क्रांति के फलस्वरुप अंततः किसानों को गरीब और ऋणी न बनने दिया जाए. किसी की आत्महत्या करने की बारी न आये. हमें सजग रहना होगा. हमें आखिरकार उन्नति देखनी है हमें सिर्फ विशिष्ट पैदावार पर ही ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए बल्कि किसानों की शुद्ध आय पर भी पूरा ध्यान लगाना चाहिए.
भूमि क्षरण, पानी की कमी, प्रदूषण आदि हरित क्रांति के विरासत के रूप में दिखाई दे रहे हैं. इस दौरान पंजाब के किसानो के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर देखने को मिले हैं, और इन सबके विपरीत सच यह है कि जिन जगहों पर हरित क्रांति नहीं शुरू की गई वहां ज्यादा प्रभावशाली वृद्धि दिख रही है. देश का पंजाब आज कैंसर कि राजधानी बन गया है. भटिंडा से बीकानेर के लिए जो ट्रेन चलती है उसका नाम कैंसर एक्सप्रेस रखा गया है. यह सब प्रथम हरित क्रांति के कारण हुई, जिससे हमें सीख लेनी चाहिए.
समाधान-
अब जबकि देश के प्रधानमंत्री जी ने नवीन हरित क्रांति का आव्हान किया है तो इस दिशा में कुछ गंभीर प्रयास जरूरी है सिर्फ गाल बजाने से कुछ नहीं होगा. आने वाले दस वर्षों के लिए कृषि भूमि एवं कृषक को प्राथमिकता पर रखना पड़ेगा, क्योंकि अभी तक ऐसा कुछ भी ठोस कदम अब तक नजर नहीं आया है जबकी हम एक और हरित क्रांति लाना चाहते हैं. हम अपनी अर्थव्यवस्था की विकास दर को खेती से संबंधित कर जैविक खेती को अपनाकर बढ़ सकते हैं.
वहीं राष्ट्रीय कृषक आयोग के सुझावों पर गंभीरता से ध्यान देकर अमल करने की महती आवश्यकता है.
इसके साथ-साथ मानसून जल व भूमिगत जल के अधिकतम उपयोग के साथ पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग क्षेत्रों में कृषि योजना बनानी आवश्यक है.
विशेष औद्योगिक क्षेत्रों की भांति विशेष कृषि क्षेत्र के गठन पर गहन चिंतन एवं अमल की जरूरत है.
इस हरित क्रांति के लिए बीजों की उन्नत प्रणाली पर शोध भी एक गंभीर मुद्दा है. वैश्विक तापमान में वृद्धि को देखते हुए यह आज से सोचना पड़ेगा कि आने वाले समय में यदि फसलचक्र बदला जिसकी की पूर्ण संभावना है, तब क्या पद्धति एवं उपाय होंगे जो कृषि भूमि एवं कृषक के हितों का संरक्षण करेंगे. क्योंकि आज भी किसान की आय का अधिकांश भाग कृषि संसाधनों के लिए ही व्यय हो जाता है व उसका हाथ अंततः खाली ही रहता है.
देश के अनेक भागों में किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं हुई जो शायद बगैर योजना के कृषि संसाधनों में किये गये निवेश का परिणाम थीं. क्योंकि आज के समय में किसान पशुधन के बजाय मशीनों पर ज्यादा निर्भर हो चुका है. ऐसे समय में पशुधन के सदुपयोग की योजनाएं भी बनानी पड़ेंगी क्योंकि आज के वातावरण के परिपेक्ष्य में पशुधन का उपयोग भी कृषक के हित में है.
इसके अतिरिक्त खेती के लिए सहकारिता का मॉडल भी अपनाया जा सकता है. अभी तक सहकारिता का प्रयोग कर्ज बांटने एवं उपज बेचने जैसे कामों के लिए ज्यादा हुआ है. अब यदि खेती करने के लिए कृषि भूमि का समूह सहकारिता के आधार पर बनाया जाये तो बड़ी भूमि पर कम लागत व शामिल लागत में अधिक उपज के लिए खेती के संसाधन प्रयोग में लाए जा सकते हैं फिर वो चाहे ट्रेक्टर व सिंचाई पंप हों, जैविक उर्वरकों का उपयोग हो या फिर हार्वेस्टर से फसल काटने की बात.
संसद में पेश 2012-13 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि बढ़ती आबादी को भोजन उपलब्ध कराने के लिए खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी की सख्त आवश्यकता है. इसके लिए कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी तथा बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निजी निवेश की जरूरत है.
निष्कर्ष में यह कह सकते है कि देश के जी0डी0पी0 में मात्र 15 फीसद का योगदान करने वाला कृषि क्षेत्र देश की 50 फीसद से ज्यादा आबादी को रोजगार देता है. जीने के साधन मुहैया कराता है. और यह तब है जबकि हमने इस क्षेत्र की कमर तोड़ रखी है. इसलिए दूसरी हरित क्रांति का सीधा मतलब है खेती किसानी को बाजार के दानव से बचाया जाये और उसे जीवन व जीविका के बुनियादी अधिकार से जोड़ा जाये, उसे संवैधानिक संरक्षण दिया जाये. खेती मनुष्य के जीने का आधार है. इसकी किसी व्यापार से तुलना नहीं हो सकती है और न किसी व्यापार के दबाव में इसे रखा जा सकता है. जमीन तेजी से सिकुड़ रही है क्योंकि खेतों को खत्म कर ही हमारे विकास की सारी इमारतें खड़ी होती हैं. इसलिए भी जरूरी है कि किसान व किसानी को हम अलग तरह से पहचानें और संभालें. नयी हरित क्रांति का नया सूत्र होना चाहिये स्वावलम्बी खेती व स्वावलम्बन के लिए खेती! पहली हरित क्रांति ने इसकी जड़ पर ही प्रहार किया था, अब देखना है कि क्या दूसरी हरित क्रांति इसे जड़समेत बचाएगी?
http://www.palpalindia.com/2013/10/31/Need-foreign-investment-in-agricul...