जिन्दा रहने के लिए किसान संगठित और रचनात्मक संघर्ष करे
खेती कईली जीए-ला, बैल बिकागेल बीए-ला, यह लोकोक्ति मिथिला के ग्रामीण क्षेत्रों में खूब बोली जाती है। इसका अर्थ भी बताना चाहूंगा। किसान खेती करता है जीने के लिए लेकिन जब खेती करने के दौरान खेती का प्रधान औजार ही बिक जाये तो वैसी खेती करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। पहले खेती के लिए हल-बैल महत्वपूर्ण साधन होता था लेकिन किसानों को बीज के लिए अगर बैल जैसे खेती के महत्वपूर्ण साधन बेचना पडे इससे बडी विडंवना और क्या हो सकती है। क्या सचमुच आज खेती और खेती करने वालें खेरूतों की स्थिति बदतर हो गयी है? इस बात का पता लगाने के लिए हमें एक विहंगम दृष्टि देश की खेती पर डालना होगा।
जो समाज अहमदाबाद और मुम्बई जैसे शहरों में रह रहा है उसे इसका आभास तक नहीं हो रहा होगा, लेकिन अध्यन और शोध बताता है कि भारत की खेती में लगातार ह्रास हो रहा है। हालांकि हमारी केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारें खेती और कृषि को बढा चढा कर प्रस्तुत करती रही है लेकिन वास्तविकता यही है कि खेती दिन व दिन कमजोर होती जा रही है और किसान खेती छोड कर किसी और व्यवसाय की खेज में अपने मूल स्थान से पलायन कर रहे हैं। पूरे देश में ऐसी स्थिति नहीं है लेकिन अधिकतर हिस्सों में ऐसा ही हो रहा है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र मध्य प्रदेश आदि राज्यों में तो लगभग 50 प्रतिशत किसानों ने खेती से अपना हाथ खीच लिया है। विकास के नये नये कीर्तिमान स्थापित करने वाला हमारा यह समाजवादी गणतंत्रात्मक राष्ट्र आखिर खेती किसानी के मामले में पिछड क्यों रहा है? इसपर गहरी मीमांसा की जरूरत है। मैं अपने घर से ही प्रारंभ करता हूं। विगत चार-पांच दिनों पहले बाबूजी यानि पिताजी का दूरभाष आया। कह रहे थे कि धान की फसल चौपट हो गयी है। इस बार एक कट्ठे में आधा मन यानि 20 किलो ग्राम की दर से धान की फसल हुई है। कुल चार हजार रूपये का बीज खरीद कर धान की रोपनी की गयी थी जितना धान हुआ है उसको अभी बेचा जाये तो बीज की कीमत भी नहीं निकल पाएगा। बिहार दरभंगा जिले में बीते रबि की फसल में मोनसेंटों के बीज से किसानों ने मक्के की खेती की लेकिन पूरा का पूरा फसल चौपट हो गया। मक्के में दाना ही नहीं आया। चुनाव के कारण बिहार सरकार ने आनन फानन में मुआवजे की घोषणा की लेकिन उस मुआवजे में से ज्यादातर पैसा अधिकारियों और बाबुओं के जेब में ही रह गया। अब गांव में हल बैल से खेती नहीं होती है। बैल और गाय सब बडे कत्लखाने पहुंचा दिये गये। बैल से हल जोतने वाली पीढी मर गयी अब किसी को हल तक पकडने भी नहीं आता है। माल मवेशी है नहीं इसलिए घास काटने एवं कुट्टी चारा बनाने की जरूरत ही नहीं पडती अब तो उस लुहार की पीढी समाप्त हो गयी जो हल, फाल, दबिया, हसुआ, खुरपी, कुदाल, कुल्हारी, टेगारी, कत्ता, पघरिया आदि बनाया करता था। ट्रैक्टर से जुताई होती है और थ्रेसर से दौनी, बावजूद भारत के विकास पर कवायद जारी है।
आजकल समाचार माध्यमों में बीमारू राज्य सुरर्खियां बटोर रहा है। जिनको देश के अभिजात्य राज्य दीन समझते हैं वे आजकल प्रचार के टारगेट में है। गोया खेती किसानी में भी अव्वल बताया जा रहा है। सबसे ज्यादा चर्चा बिहार की हो रही है। झारखंड हो या छतीसगढ, बंगाल हो या मध्य प्रदेश। उन तमाम राज्यों की चर्चा जोरों पर है जिसको बीमारू राज्य होने का प्रमाण-पत्र मिला हुआ है। इस प्रचार में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली पष्चिमी उत्तर प्रदेश आदि राज्य रहस्यमय तरीके से गायब है। पहले कहा जाता था कि यहां के किसान बडे उद्योग पतियों की तरह जी रहे हैं। हरित क्रांति के बाद पंजाब में जोरदार खेती धमाका हुआ। एकाएक यहां की हर फसलें अभिजात्य किस्म की हो गयी। लेकिन आज पंजाब जैसे अभिजात्य प्रांतों को कोई मीडिया पूछ तक नहीं रहा है। यह कोई साधारण मामला नहीं है। इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। पंजाब, हरियाणा आदि प्रांतों को विकास के जिस मॉडल ने सुर्खियां दी वह मॉडल बडा ही घटिया साबित हुआ। उसका खामियाजा आज पंजाब हरियाणा, आंध्र प्रदेश, के किसान भुगत रहे हैं। चर्चा होती है और बात बाहर भी आती है। आज जिन प्रांतों में विकास के नगारे बज रहे हैं उसमें सबसे अगुआ गुजरात है। गुजरात का कृषि विकास दर देश में सबसे अधिक बताया जा रहा है। प्रदेश के मुख्यमंत्री दावा कर रहे हैं कि मुम्बई के सारे भगवान गुजराती फूल से ही प्रशन्न हो रहे हैं लेकिन जिस क्षेत्र की बात नरेन्द्र भाई कर रहे हैं उस क्षेत्र का भ्रमण कर आया हूं। दाहोद आदि आदिवासी जिलों की अधिकतर जनसंख्या पलायन कर चुकी है। जो बचे हैं वे खेती तो कर रहे हैं लेकिन सरकारी भरोसे उनकी खेती चल रही है। प्रदेश सरकार मोनसेंटों बीज कंपनी के साथ समझौता कर करोडों रूपये रियायत के नाम पर खर्च कर रही है। हालांकि किसानों को बीज तो उपलब्ध कराया जा रहा है लेकिन उससे किसानों की पारंपरिक खेती पर नकारात्मक प्रभाव पड रहा है। यही हाल रसायनिक खाद बनाने वाली कंपनियां कर रही है। किसानों को सब्सीडी पर खाद बीज तो मिल रहा है लेकिन उससे किसानों की खेती पराश्रित हो रही है। आने वाले समय में किसान बीज एवं रसायनिक खाद की कंपनियों पर आश्रित होंगे और किसानी चौपट हो जाएगी। मैं दावे के साथ कह समता हूं कि जिस रास्ते पर नरेन्द्र भाई की सरकार गुजरात के किसानों को ले जा रहे हैं उस रास्ते पर चल कर ये लोग पंजाब ही पहुंचेंगे, इसका दूसरा कोई विकल्प नहीं है क्योंकि जिस बीज और खाद पर गुजरात सरकार किसानों को आश्रित बना रही है उसका खामियाजा पंजाब हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र के किसान भुगत रहे हैं।
किसान सुराज यात्रा के दौरान कविता कुलघंटी के साथ थोडा समय बिताने का मौका मिला। गुजरात का कृषि उत्पादन चाहे कितना भी बढा हो लेकिन गुजरात की खेती को बरबाद करने के लिए नरेन्द्र भाई की सरकार ने सारी व्यवस्था कर दी है। यह केवल गुजरात की बात नहीं है छतीसगढ, बिहार, मध्य प्रदेश, उडीसा, आंध्र प्रदेश आदि तमाम राज्यों की यही स्थिति है। सही मायने में किसी भी सरकार का काम बुनियादी सेवा उपलब्ध कराना है न कि बनियागीरी करना। सरकार खाद बीज उपलब्ध मत करावे। सरकार जहां पानी की समस्या है वहां पानी उपलब्ध कराने की व्यवस्था करे और जहां पानी के कारण फसल बरबाद होता है वहां पानी की निकासी कैसे हो उसकी चिंता करे। सरकार गांवों को सडक से जोडे। बिजली की व्यवस्था करे। बच्चों को रोजगार परक शिक्षा देने की योजना हो। नौकरशाह पर अंकुश लगे। लेकिन हमारी सरकारें न जाने क्यौं बीज, खाद, पानी, कपडा, चीनी, तेल आदि बेचने के लिए संगठन पर संगठन बना रही है। बिहार में नीतीश कुमार की पिछली सरकार ने बिहार के कृषि उत्पादन बाजार समिति को खत्म कर दिया। तर्क दिया गया कि इससे किसानों को घाटा होता है लेकिन नीतीश जी किसनों को फायदा कराने वाले बिना किसी मॉडल के बाजार समिति का विघटन कर दिया। बिहारी बुद्धिजीवियों का मानना है कि नीतीश की वार्ता टाटा और रीलायंस जैसी कॉरपोरेट कंपरियों से हो रही है। ये कंपनियां किसानों के उत्पाद को औन पौन कीमत पर खरीदना चाहती है। जिसे नीतीश जैसे समाजवादी नेता विचौलिया कहकर नकारते हैं वही विचौलिया आज तक किसानों के उत्पादों को बाजार तक पहुंचाता रहा है। नीतीश की योजना से बेचारा घोडा वाला, साईकिल वाला, छोटा व्यापारी जो मन-क्विंतल पर 05-10 कमाता था वह तो मारा गया। नीतीश रोजगार श्रृजन करने के बदले रोजगार मार रहे हैं। सरकार को इतना पता नहीं है कि जिस प्रकार बिहार की खेती पर से किसानो का नियंत्रण हटा रहा है ऐसी परिस्थिति में कल रीलायंस और टाटा जैसी कंपनियां जमीन के मालिक होंगे और बिहार के किसान उसके खेतिहर मजदूर? उत्तराखंड कृषि सचिव ओमप्रकाश जी से बात हो रही थी। उन्होंने ठेका खेती का एक बहुत बडा प्रोजेक्ट सरकार को दिया है। अब उत्तराखंड की सरकार उसे लागू करने वाली है। यह खेती खेत से किसानों को बेदखल करने की रणनीति में से एक है। ओमप्रकाश बिहार के रहने वाले हैं इसलिए थोडा खुल कर बोल रहे थे लेकिन जब हमने उनसे पूछा कि आखिर यह तो जमींदारी प्रथा को फिर से रिचार्ज करने की योजना है तो वे हसने लगे और कहे कि इससे प्रदेश का भला होगा। पर किसान का भला होगा कि नहीं इस प्रष्न पर ओमप्रकाश चुप्पी साध गये।
बडे उद्योगपतियों ने ऐसी ही रणनीति बनाकर यूरोप के देशों में अपना सिक्का जमाया। पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास इंग्लैंड में एक क्रांति हुई जिसे रैनासा कहा जाता है। रैनासा का अर्थ पुनर्जागरण से है। हुआ ऐसा कि पूरे यूरप का कपास बंदरगाहों पर लाकर विदेशों में भेजा जाता था। फिर कपास की सुरक्षा के लिए बंदरगाहों पर सेड लगाया गया। जब सेड लगाया गया, उसी समय कपास के व्यापारियों ने यह सोचा की क्यों न यही कपडा भी बनवाया जाये और तैयार कपडे विदेशों में बेची जाये। व्यापारी संगठन बनाकर अपने अपने क्षेत्र से मजदूरों को बुलाया और कपडा बनवाने लगे। पहले वे कपडा बुनकर अपने द्वारा बनाये गये कपडे के कालिक खुद होते थे अब उनका श्रम गुलाम हो गया। फिर व्यापारियों की भूख बढी और कपडा और ज्यादा बने इसकी योजना बनायी गयी। संयोग से उसी समय भाफ के इंजन का आविष्कार हुआ और औद्योगिक क्रांति हुई। व्यापारी उद्योगपती हो गये और बुनकर मजदूर। यह यही नहीं समाप्त हुआ। नव उद्योगपतियों को और मजदूरों की जरूरत पडी तो पैसे के बल पर सरकार पर दबाव बनाया और कानून बनवाया कि जो किसान अपनी जमीन को घेर नहीं सकते उनकी जमीन सरकार निलाम कर लेगी। किसान गरीब थे और अधिकतर किसानों की जमीन सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया। अब किसान कहां जाएं। इससे नव धनाढय उद्योगपतियों को न केवल कपास की खेती करने के लिए सस्ती कीमत पर जमीन मिल गयी अपितु जमीन से बेदलखल किये गये किसान मजदूर के रूप में उन्हें प्राप्त हो गया। वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स के सिद्धांत का आधार, सर्वहारा इसी व्यवस्था की उपज है। इस बात की चर्चा मार्क ने अपनी विष्व प्रसिद्ध पुस्तक पूंजी में भी की है। भारत या अन्य अर्ध विकसित देषों में उद्योगपती इसी फिराक में हैं, जिसका उदाहरण चीन में देखा जा सकता है। चीन के बाद भारत ने भी उसी दिशा में अपना कदम बढाया है। यही व्यवस्था रही तो देर सबेर भारत के किसानों को जमीन से बेदखल होना होगा जिसके उदाहरण देश के कई भागों में देखने को मिल रहा है।
भारत में खेती और खेरूतों पर कब्जे की साजिश जारी है। इसे बचाने के लिए संयमित संघर्ष की रूप रेखा तैयार करनी होगी। हालांकि आजकल चरम साम्यवादी भी किसानों के हित की बात करने लगे हैं लेकिन बंदूक समस्या का समाधान नहीं है। जिस प्रकार एक धारदार योजना बनाकर कॉरपोरेट लॉबी काम कर रही है उसमें किसानों को रणनीति बनाकर संगठित हो निर्णायक लडाई लडनी होगी। अन्यथा गुलामी निश्चित है।
गौतम चौधरी