विज्ञान से अछूते क्यों रहें हमारे गांव?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों गांवों की बदलती तस्वीर में वैज्ञानिकों की भूमिका पर टिप्पणी कर देश में संस्थानों के दायित्वों की तरफ अहम इशारा किया है। यह बात पूरी तरह सच है कि ये संस्थान इस देश को इंडिया बनाने में ज्यादा चिंतित रहे, न कि भारत। आज भी हमारे देश का बड़ा हिस्सा गांवों में ही बसता है। साढ़े छह लाख गांवों में देश की 70 प्रतिशत आबादी रहती है। इस बड़ी आबादी के वे सभी अधिकार उतने ही महत्वपूर्ण और जरूरी हैं, जितने शहरी आबादी के। बड़ी बात तो यह है कि देश में जो भी आर्थिक गतिविधियां हैं, उनका मूल स्रोत गांव ही तो हैं। वर्तमान आर्थिक तंत्र का 90 प्रतिशत हिस्सा गांवों के संसाधनों पर ही आधारित है। यह विडंबना ही है कि संसाधनों से सबल गांव स्वतंत्रता के बाद पिछड़ते चले गए। देश में शायद ही ऐसे गांव हों, जो आज आर्थिक स्वतंत्रता का दम भर सकते हों। एक समय गांवों में सतत विकास दिखता था। सब कुछ गांवों में ही होता था। श्रम व संसाधनों का बड़ा गहरा गठजोड़ था, लेकिन नई तकनीकें गांवों में पैठ नहीं बना सकीं। आज गांवों में शहरी उत्पादों ने जगह बना ली है।
असल में नए विज्ञान ने गांवों के ज्ञान को विस्थापित किया है। इसका उद्देश्य होना चाहिए था कि गांवों की दक्षता को नए विज्ञान के साथ जोड़कर मजबूत करे, लेकिन हुआ इसके विपरीत। देश में आज गांव मात्र उत्पादक के रूप में जाने जाते हैं। दूसरी ओर शहर गांवों में उत्पादित वस्तुओं का शोधन कर लाभ कमा रहे हैं। अब खेती में ही देखिए, गेहंू, धान, मक्का व अन्य कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी गरीब व मझोले किसानों को नहीं मिलता, क्योंकि दो-चार बोरी अनाज को मंडी तक ले जाने की उसकी क्षमता नहीं होती। इसका लाभ बिचौलिये उठा लेते हैं। शहरी उद्योग इन्हीं
कृषि उत्पादों का शोधन कर और अधिक लाभ उठाते हैं। इससे उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों ही दु:खी हैं। एक को कम दाम मिलते हैं और दूसरे को ज्यादा दाम देने पड़ते हैं और यह सब इसलिए ही संभव हुआ, क्योंकि हमने विज्ञान को ग्रामोन्मुखी नहीं बनाया। देश के बड़े संस्थान चाहे वे कृषि से जुडे हों या फिर अन्य संसाधनों से, गांवों से अभी भी बहुत दूर ही हैं। देश का सबसे बड़ा हिस्सा खेती में जुटा है और इसके लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व इसके 105 संस्थान व 55 कृषि विश्वविद्यालय गांवों के लिए ही समर्पित होने चाहिए थे। पर क्या देश में खेती व किसान के हालात बेहतर कहे जा सकते हैं? प्रौद्योगिकी व उद्योग शोध परिषद यानी सीएसआईआर और इससे जुड़े 20 से अधिक संस्थान ग्राम्य तकनीक पर काम करने का दावा करते हैं। ऐसे ही देश में आईआईटी व एनआईटी व सैकड़ों विज्ञान संस्थान कार्यरत हैं, लेकिन गांवों के हालात बद-से-बदतर ही हुए हैं। विज्ञान संस्थानों और लाखों वैज्ञानिकों से भरा ये देश मंगल पर तो चला गया, पर गांवों में मंगल कार्य आज तक अछूते ही रहे।
ऐसे में प्रधानमंत्री का विज्ञान कांग्रेस में वैज्ञानिकों का आह्वान करना बहुत महत्व रखता है। दुर्भाग्य से हमारे देश में कागजी शोध का बड़ा महत्व है। हमारे वैज्ञानिक अपने विज्ञान काल में कितने शोध-पत्र छापते हैं। उनके शोधपत्र का प्रकाशन ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, न कि यह कि वह शोध कितना जमीन पर उतरा। यही हमारे देश के विज्ञान संस्थानों व वैज्ञानिकों की बड़ी कमी रही है।
देश के सभी संस्थानों में होने वाले शोध अधिकतर अव्यावहारिक होते हैं। बाकी जो शोध ठीक-ठाक होते भी हैं तो उनमें से कई कभी बाहर ही नहीं निकले। और जो कुछ निकलकर आए भी तो उनमें से कई तो जमीन पर उतरे ही नहीं। इसका बड़ा कारण हमारी शोध करने की संकुचित पहल है। किसी भी तरह के शोध को दिशाविहीन व अव्यावहारिक नहीं होना चाहिए। हमारे वैज्ञानिक संस्थानों व वैज्ञानिकों के पास स्पष्ट संदेश होना चाहिए कि शोध व्यावहारिकता के आधार पर तय हो, न कि शोध पत्रों पर।
विज्ञान व वैज्ञानिकों का एक बड़ा दायित्व है कि वे विज्ञान में असमानता से बचें और ग्रामोन्मुखी विज्ञान को प्राथमिकता दें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि विज्ञान के पहले हकदार गांव हैं, जहां से मूल उत्पादन की नींव पड़ी है। अगर उनका दायित्व मात्र उत्पादन के रूप में ही देखा जाएगा, तो वे बड़े लाभ के हिस्सेदार नहीं बन पाएंगे और लाभ ही तय करेगा कि उनका झुकाव कृषि या अन्य उत्पादों की तरफ विश्वास के योग्य है भी या नहीं। गत दो-तीन दशकों में गांव व किसानों की अपनी खेती और उत्पादों के प्रति विश्वास में कमी आई है। कारण साफ है कि स्थानीय उत्पादों से लाभ लागत के भी नीचे पहुंच गया है। मजबूरी व विकल्प का अभाव उन्हें इस श्रम से जोड़े हुए है। वरना जिन्हें अवसर मिला, उन्होंने अकसर इसे त्यागना ही बेहतर समझा। लेकिन अगर जल्दी सब कुछ नहीं संभला तो हम बड़े संकट में घिर जाएंगे। गांवों का शहरों की तरफ रुख हमारे प्राथमिक उत्पादन पर बड़ा असर डालेगा।
अब यह जरूरी हो गया है कि हमारी विज्ञान नीति ऐसी हो जो गांवों से जुड़ी रहे। मंगलयान पर पहुंचने वाले वैज्ञानिक अगर प्रधानमंत्री की वाहवाही के पात्र हों, तो लोक-विज्ञानी को भी उसी श्रेणी में रखा जाए और उसे भी राष्ट्रीय सम्मान की दृष्टि से देखा जाए। गांवों में कार्य करने वाले वैज्ञानिकों को उत्साहित करना होगा। बड़े-बड़े संस्थानों में कार्य करने वाले वैज्ञानिकों को ही प्राथमिकता न मिले, बल्कि ग्रामीण विज्ञान के कार्य को भी बड़े स्तर का योगदान माना जाए। अंतरिक्ष, न्यूक्लियर जैसे बड़े शोध, जिनका घर-गांव से सीधा संबंध नहीं है, आज प्रमुुखता से जाने जाते हैं। इनके विज्ञानी ही प्रधानमंत्री कार्यालय की शोभा बढ़ाते हैं। दूसरी तरफ लोक-विज्ञानी को ऐसा सम्मान नहीं मिलता। हम जब तक ग्राम विज्ञान की जरूरत को देश के अन्य विज्ञान की जरूरतों के समानांतर नहीं देखेंगे, तब तक विज्ञान को ग्रामोन्मुखी नहीं बना पाएंगे। अब देखना यह है कि देश के विज्ञान संस्थान व वैज्ञानिक प्रधानमंत्री की इस सलाह को कितनी गंभीरता से लेते हैं।
-लेखक जाने-माने पर्यावरणविद हैं।