अन्नदाता से मजदूर में तब्दील होता किसान
देश का अन्नदाता भूखा है। उसके बच्चे भूखे हैं। भूख और आजीविका की अनिश्चितता उसे खेती किसानी छोड़कर मजदूर या खेतिहर मजदूर बनने को विवश कर रही है। विख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की एक रात’ का ‘हल्कू’ आज भी इस निर्मम और संवेदनहीन व्यवस्था का एक सच है। यह खबर वाकई चिंताजनक है कि महाराष्ट्र में पिछले पांच सालों में कम से एक लाख किसान खेती-बाड़ी छोड़ चुके हैं। यह बात कृषि जनगणना के ताजा आंकड़ों में सामने आई है। 2010-11 के कृषि जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र में 1 करोड़ 36 लाख खेती कर रहे थे। ताजा जनगणना में यह संख्या घटकर 1 करोड़ 35 लाख पर पहुंच गई है। वर्ष 2005-06 में हुई कृषि जनगणना में भी यह बात सामने आई थी कि एक लाख से अधिक किसानों ने खेती-बाड़ी छोड़ दी है। इन दस सालों में खेती-बाड़ी छोडऩे वाले दो लाख किसान किसी सरकारी या गैर सरकारी कार्यालयों में अधिकारी या कर्मचारी नहीं बने होंगे। ऐसा भी नहीं है कि ये लोग उद्योगों में खपाए गए होंगे। महाराष्ट्र के ये किसान खेती-बाड़ी छोड़कर या तो खेतिहर मजदूर बने होंगें या फिर मजदूर। यह स्थिति काफी चिंताजनक है।
अगर हम खेती-बाड़ी छोडऩे वाले किसानों की बात करें, तो ऐसा माना जाता है कि देश में प्रतिदिन दो हजार किसान रोज खेती-बाड़ी छोड़कर या तो मजदूरी करने को मजबूर हो रहे हैं या फिर सहायक धंधे अपना रहे हैं। ये सहायक धंधे और मजदूरी भी उनका और उनके परिवार का पेट भर पाने में सक्षम नहीं है क्योंकि इनकी गिनती कोई प्रशिक्षित मजदूरों में तो होती नहीं है। अप्रशिक्षित मजदूर की हालत इस देश में कैसी है, यह कोई बहुत शोध का विषय नहीं है। जनगणना के मुताबिक, 2001 के मुकाबले 2011 तक किसानों की संख्या में 77 लाख की कमी हुई है। लाखों लोग खेती-किसानी छोड़ रहे हैं। जो लोग खेती के प्रति अपना मोह नहीं त्याग पा रहे हैं, वे लगातार बढ़ते जा रहे कर्ज के दबाव में आकर आत्महत्याएं कर रहे हैं।
महाराष्ट्र में जिन इलाकों में किसानों के आत्महत्या कर लेने की घटनाएं ज्यादा हुई हैं, उन्हीं इलाकों में खेती-किसानी छोडऩे वालों की संख्या भी ज्यादा है। एक अध्ययन के मुताबिक, सन 2011 में कुल आबादी के दूसरे हिस्से में की जाने वाली आत्महत्याओं के मुकाबले में किसानों की आत्महत्या दर 47 फीसदी ज्यादा थी। कहा जाता है कि किसान मौसम की बेरुखी के चलते खेती छोड़ रहे हैं या फिर आत्महत्या कर रहे हैं। यह सोच या मिथक आधा सच है, आधा झूठ। जिन राज्यों में खेती पर संकट है, वहां किसानों के पलायन या आत्महत्या की दर अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा है।
महाराष्ट्र सरकार के कृषि एवं राजस्व मंत्री एकनाथ खड़से भले ही यह कहकर संतोष व्यक्त कर रहे हों कि इन खेती-किसानी से लोगों के पलायन के पीछे लगातार हो रहा विकास है। परिवार में लोगों के बीच जमीन का बंटवारा होने के चलते कृषि योग्य भूमि का कम हो जाना, लगातार बढ़ता कर्ज और विभिन्न विकास योजनाओं के लिए भूमि का अधिग्रहण आदि भी प्रमुख कारण हैं। मंत्री खड़से का ध्यान इस तथ्य की ओर शायद नहीं गया होगा कि देश में जितने भी किसान आत्महत्या करते हैं, उनमें से अधिकतर किसान महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक के ही होते हैं। किसानों के आत्महत्या करने के मामले में अव्वल रहने वाले इन पांच राज्यों में भी महाराष्ट्र 12 साल तक अव्वल रहा है। राज्य में 1995 से अब तक 60,750 किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
पिछले कुछ सालों से किसानों की आत्महत्या के सरकारी आंकड़ों में कमी आती जा रही है। इसका कारण यह है कि इन पांच राज्यों में किसानों की आत्महत्या का मामला सामने आते ही सरकारी मशीनरी उसे दबाने में लग जाती है। वे खेती पर आए संकट की वजह से हुई आत्महत्या मानने की बजाय दूसरे कारण निकाल लेते हैं। ‘धान का कटोरा’ कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार दावा करती है कि सन 2011 में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की। हां, सन 2012 में चार किसानों ने आत्महत्या की, लेकिन सरकार की योजनाओं के चलते 2013 में फिर किसी भी किसान ने आत्महत्या नहीं की। प. बंगाल की ममता सरकार का भी दावा है कि इन दोनों वर्षों में राज्य के किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की। जबकि इन दावों से पहले के तीन साल के दौरान छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या का औसत 1567 और पश्चिम बंगाल का औसत 951 था। अब कोई ममता बनर्जी और रमन सिंह से यह पूछे कि उन्होंने इन दो सालों में ऐसा कौन सा विकास किया, कौन सी परियोजनाएं चलाई, किसानों को ऐसा कौन सा पैकेज दे दिया कि उनकी आर्थिक हालत इतनी सुधर गई कि वे आत्महत्या करने के बारे में सोचना तक भूल गए। जाहिर सी बात है कि यह आंकड़ों की बाजीगरी के सिवा कुछ नहीं है।
दरअसल, बात यह है कि देश का कोई भी हिस्सा हो, कोई भी प्रदेश हो, किसानों के साथ आजादी के बाद से ही दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। आजादी के समय जिस कृषि क्षेत्र पर कुल बजट का 12.5 प्रतिशत खर्च किया जाता रहा है, आज हालत यह है कि केंद्र और प्रदेश सरकारें मात्र 3.7 प्रतिशत खर्च कर रही हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि लाख संकटों के बावजूद भारत में सबसे बड़ा नियोक्ता यही कृषि क्षेत्र है। दो तिहाई आबादी खेती-किसानी और इसके सहायक धंधों पर निर्भर है। इसके बावजूद इस क्षेत्र को सरकारी स्तर पर जो उपेक्षा झेलनी पड़ रही है, वह अफसोस जनक ही है। आजादी के बाद से लेकर वर्तमान केंद्र सरकार और राज्यों की सरकारों की प्राथमिकता सूची में उद्योग-धंधे तो हैं, लेकिन कृषि क्षेत्र या किसान कतई नहीं हैं। यही स्थिति किसानों को पलायन या आत्महत्या के लिए मजबूर करती हैं। आजादी के बाद से अब तक की केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने वाली सरकारों ने समर्थन मूल्य निर्धारित करने में भी हीलाहवाली की है। सरकारी एजेंसियां 24 फसलों में से सिर्फ धान और गेहूं के समर्थन मूल्य पर ही ध्यान देती हैं, बाकी अनाज जो, मक्का, दलहन और तिलहन को बाजार के भरोसे छोड़ देती हैं। सरकारी एजेंसियों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का तरीका भी विवादास्पद है। जाने-माने कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले आयोग ने लागत में पचास प्रतिशत मुनाफा जोड़ कर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की सिफारिश की थी, लेकिन सरकार आज तक उस पर अमल करने को तैयार नहीं है। ऐसे हालात में अगर देश के किसान अपना मुख्य धंधा खेती छोड़कर मजदूर या खेतिहर मजदूर बनते रहे, तो शायद वह दिन दूर नहीं जब, देश में कारपोरेट कंपनियों का पूरे कृषि जगत पर कब्जा होगा। कई राज्यों में तो बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियां कारपोरेट खेती की शुरुआत भी कर चुकी हैं। वे तो चाहती ही हैं कि अधिक से अधिक कृषि क्षेत्र पर उनका कब्जा हो।
——-जगजीत शर्मा———