श्री पद्धति (एस॰आर॰आई॰ पद्धति) से धान की खेती
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देश की 70% जनसंख्या का मुख्य आहार चावल है। एक अनुमान के अनुसार देश की जनसंख्या लगभग 2% वार्षिक दर से बढ़ रही है जिसके पोषण के लिये सन 2025 तक 130 तथा सन 2050 तक 180 मिलियन टन चावल की आवश्यकता होगी। सभी फसलों एवं जीवधारियों के मध्य समान प्रतियोगिता होने के कारण इन लक्ष्यों को धान के अन्तर्गत क्षेत्रफल को बढ़ाकर प्राप्त करना सम्भव नहीं है अतः प्रति इकाई क्षेत्रफल में धान की उत्पादकता को बढ़ाकर ही इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। परम्परागत धान उत्पादन की विधि (रोपाई विधि) में वर्तमान में धान उत्पादन की लागत तथा संसाधनों की खपत तो बढ़ती जा रही है परन्तु इस विधि में एकदम से उत्पादन क्षमता को बढ़ा देने वाली तकनीक निकट भविष्य दिखायी नहीं दे रही है। ऐसे में श्री या एस॰आर॰आई॰ पद्धति (Systems ऑफ Rice Intensification) धान उत्पादन की एक ऐसी पद्धति है जिसमें फसल उत्पादन के विभिन्न संसाधनों जैसे बीज, भूमि, मृदा उत्पादकता, सिंचाई जल, श्रम, पोषण प्रबन्धन, पूँजी आदि की उपयोग क्षमता/दक्षता को बढ़ाकर, मृदा स्वास्थ्य में सुधार के साथ-साथ कम लागत में 20-30 % तक अधिक उत्पादन प्राप्त करने की क्षमता है। इस पद्धति का विकास फादर हेनरी लाउलेनी ने मेडागास्कर में सन 1983 में किया था जिसे 25 से अधिक देशों में सफलतापूर्वक अपनाया जा रहा है। शोधों में इस पद्धति द्वारा दो से चार गुना क उत्पादन वृद्धि पायी गयी है। इसमें 80-90% तक बीज की बचत, 50% तक सिंचाई जल की बचत, 30% तक रसायनिक उर्वरकों की बचत होती है। इस विधि में कम आयु की पौध का रोपण किया जाता है जिससे कल्ले बहुत अधिक आते है और इन सभी कल्लों का पोषण बेहतर ढंग से हो सके इसके लिये कार्बनिक खादों का प्रयोग किया जाता है जिनमें फसल पोषण हेतु सभी आवश्यक तत्व पर्याप्त मात्रा तथा सन्तुलन में होते हैं। इस पद्धति से धान की खेती करने के लिये पौधशाला प्रबन्धन तथा रोपाई सामान्य विधि से अलग प्रकार से की जाती है।
श्री पद्धति (एस॰आर॰आई॰ पद्धति) से धान की खेती के लाभ –
कम बीज (6 किलोग्राम/हेक्टेयर) की आवश्यकता होती है।
लगभग 50% तक सिंचाई जल की बचत होती है।
उर्वरक उपयोग में 30-40 % तक की कमी होती है।
स्वस्थ पौध व एकीकृत पोषक तत्व प्रबन्धन के कारण कीट व बीमारियों के प्रकोप में कमी होती है।
खरपतवार नियन्त्रण में हैंड हो/कोनोवीडर का प्रयोग होने से मृदा में वायु संचार बढ़ता है जिससे सूक्ष्म जीवों की सक्रियता बढ़ती है, जड़ों का विकास बेहतर होता है, मृदा संरचना एवं मृदा उर्वरता में सुधार होता है तथा कल्लों की संख्या बढ़ती है।
फसल की परिपक्वता अवधि में 7-10 दिन की कमी तथा गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
फसल उत्पादन में औसतन 20 से 30 प्रतिशत की वृद्धि होती है।
पर्यावरण हितैषी तथा कम लागत में अधिक लाभ होता है।
बीज की मात्रा तथा बीजशोधन – सामान्यतः एक स्थान पर एक पौधे की रोपाई के अनुसार बीज की मात्रा 6 किलोग्राम / हेक्टेयर रखते हैं। जीवाणु झुलसा तथा अन्य फफूंदी जनित रोग बीजजनित होने के कारण धान में बीजशोधन अतिआवश्यक है। सबसे पहले 2% नमक का घोल तैयार कर उसमें बीज को डालते हैं। खाली/खोखला बीज, खरपतवार का बीज हल्का होने के कारण ऊपर तैरता रहता है, इसे निकाल कर फेंक देते हैं और डूबे हुए बीज को 3-4 बार साफ पानी से धो लेते हैं। एक ड्रम या बड़े टब/नाँद में 8-10 लीटर पानी लेकर इसमें 2 ग्राम स्ट्रेप्टोसायक्लीन या 15 ग्राम प्लांटोमायसिन घोलकर रात में इसमें बीज को भिगो देते हैं। सुबह इसको पल्ली पर लौट कर ड्रम में ट्रायसायक्लाजोल / पायरोकुइलोन 2 ग्राम/लीटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से घोल बनाकर इसमें 10 घण्टे तक बीज को भिगोकर रखने के पश्चात जूट के गीले बोरे से ढककर 24 घण्टे के लिये किसी छायादार स्थान पर जवई (अंकुरण होने) होने के लिये रख देते हैं। अंकुरित हो जाने पर बीज की बीजशय्या पर बुवाई कर दी जाती है।
श्री पद्धति (एस॰आर॰आई॰ पद्धति) से धान में पौधशाला प्रबन्धन – श्री पद्धति में कम अवधि की पौध (8 से 12 दिन आयु की) पौधशाला से निकालकर शीघ्र-अतिशीघ्र रोपाई करनी होती है अतः पौधशाला मुख्य खेत में या उसके निकट ही बनाते हैं। शीघ्र रोपाई के लिये पौध को उर्वरक के खाली कट्टों या खपरैल की टाइल्स बिछाकर भी डाल सकते हैं जिन्हें कट्टों या टाइल्स सहित उठाकर मुख्य खेत में रोपाई के लिये ले जाते हैं। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई के लिये भूमि से 15 सेंटीमीटर ऊँची, 1.25 मीटर चौड़ी तथा 10 मीटर लम्बी 8 क्यारियों (कुल 100 वर्गमीटर क्षेत्रफल) की आवश्यकता होगी। इन क्यारियों के मध्य 30 से 45 सेंटीमीटर की नालियाँ सिंचाई व जलनिकास के लिये छोड़ी जायेंगी। समतल क्षेत्र में क्यारियों को भूमि से उठाकर निम्न विधि से बनायेंगे।
पहली तह - 2.5 सेंटीमीटर सड़ी हुई गोबर की खाद की।
दूसरी तह – 4.0 सेंटीमीटर उपजाऊ खेत की महीन भुरभुरी मिट्टी की।
तीसरी तह – 2.5 सेंटीमीटर सड़ी हुई गोबर की खाद की।
चौथी तह - 6.0 सेंटीमीटर उपजाऊ खेत की महीन भुरभुरी मिट्टी की।
इस प्रकार विभिन्न तह लगाकर भूमि की सतह से 15 सेंटीमीटर ऊँची उठी हुई क्यारियाँ बनाकर इन पर अंकुरित या बिना अंकुरित बीज की 60 ग्राम बीज/वर्गमीटर की दर से, एक समान रूप से बिखेरकर बुवाई कर दी जाती है। बीज को मिट्टी और गोबर की खाद के महीन मिश्रण या पुआल से ढक देते हैं तथा हजारे से पानी लगाते रहते हैं। पौधों का पूर्ण जमाव हो जाने के बाद नालियों में पानी भरकर भी सिंचाई कर सकते हैं।
खेत की तैयारी – श्री विधि के लिये मध्यम, भारी तथा अधिक जीवांश कार्बन वाली मृदायें उपयुक्त होती हैं, लवणीय मृदायें इसके लिये उपयुक्त नहीं हैं। इस विधि में 8-12 दिन की छोटी पौध की रोपाई की जाती है अतः इसकी सफलता के लिये आवश्यक है कि खेत पूर्ण समतल हो तथा प्रारम्भिक अवस्था में जलनिकासी की समुचित व्यवस्था हो।
पोषक तत्व प्रबन्धन - खेत में एकीकृत पोषक तत्व प्रबन्धन के अन्तर्गत 100 से 120 कुंटल/हेक्टेयर सड़ी हुई गोबर या कम्पोस्ट तथा 3-4 वर्ष में एकबार 40-50 टन/हेक्टेयर तालाब की मिट्टी का प्रयोग करें। खेत में हरी खाद के लिये धान की बुवाई से लगभग 50 दिन पूर्व 100 किलोग्राम/हेक्टेयर डी॰ए॰पी॰ डालकर सनई या ढेंचा की बुवाई करें तथा इसे 40 दिन पर खेत में पलट दें। इसके 10 दिन बाद धान की रोपाई की जा सकती है। खेत की तैयारी के समय एन॰पी॰के॰ कन्सोर्शिया का भी प्रयोग करें। रोपाई से पूर्व मुख्य खेत में सामान्य फसल की भाँति ही इस प्रकार कंधेर करेंगे कि रोपाई के समय खेत में पानी भरा हुआ न रहे। जैविक एवं हरी खादों के प्रयोग से मृदा उर्वरता, सूक्ष्म पोषक तत्वोंकी उपलब्धता, सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या एवं सक्रियता, मृदा की जल जल शोषण व जलधारण क्षमता तथा वायु संचार में वृद्धि होती है जिसका धान की फसल के विकास एवं उत्पादन पर बहुत लाभदायक प्रभाव पड़ता है।
रोपाई विधि – श्री पद्धति में पौधशाला से 8-12 दिन कि अवस्था कि 2-3 पत्ती की पौध खुरपी से इस प्रकार निकालते हैं कि पौध बीजचोल तथा जड़ों में लगी मिट्टी के साथ निकल आये। यदि मैट विधि या टाइल विधि से पौध डाली गयी है तो मैट या टाइल को ही उठाकर रोपाई के लिये मुख्य खेत पर ले जाते हैं। कंधेर किए हुये खेत से अनावश्यक पानी निकालकर लकड़ी या लोहे के वर्गाकार मार्कर या रस्सी कि सहायता से खेत में 25 X 25 सेंटीमीटर कि दूरी पर निशान बनाकर ऊर्ध्वार्धर एवं समानान्तर लाइनों के मिलान बिन्दु पर रोपाई करेंगे। रोपाई पौधशाला से पौध निकालने के 30 मिनट के भीतर करनी है। रोपाई करते समय अँगूठे व अँगुली की सहायता से एक-एक पौधे के बीजचोल एवं मिट्टी सहित जड़ को पकड़कर 2-3 सेंटीमीटर गहरी रोपाई करेंगे।
सिंचाई जल प्रबन्धन – खेत की तैयारी के समय खेत को पूर्ण रूप से समतल करके सिंचाई तथा जलनिकास हेतु नालियाँ बना लेना चाहिये। रोपाई के समय यदि नमी कि कमी हो तो रोपाई के तुरन्त बाद भी पहला पानी लगाया जा सकता है। रोपाई से वानस्पतिक वृद्धि कि अवस्था तक खेत में पानी भर कर रखना आवश्यक नहीं है केवल नमी बनाये रखनी है । हल्की दरारें पड़ते ही खेत में हल्का पानी लगा दें। धान में पुष्पन आरम्भ होने से 70-75 % दाने कड़े पड़ने की अवस्था तक 2-3 सेंटीमीटर पानी खड़ा रखें तत्पश्चात पानी देना बन्द कर दें।
खरपतवार प्रबन्धन – श्री विधि से धान कि रोपाई 25 सेंटीमीटर की दूरी पर लाइनों में तथा 25 सेंटीमीटर पौधे से पौधे कि दूरी पर की जाती है अतः इसके बीच में 20 तथा 35 दिन की अवस्था पर दो बार हैंड हो/कोनोवीडर चलाकर खरपतवार प्रबन्धन किया जा सकता है इससे मृदा में वायु संचार का लाभ भी फसल को मिलेगा। रोपाई के 10 से 40 दिन तक 10 दिन के अन्तराल पर 3 से 4 बार कोनोवीडर से निराई-गुड़ाई करने से फसल में कीट एवं रोगों का प्रकोप भी कम होता है। आवश्यकता पड़ने पर फसल में 15 से 20 दिन कि अवस्था (खरपतवार कि 3-5 पत्ती तथा 5-7 सेंटीमीटर ऊँचाई अवस्था) पर बिस्पायरीबैक सोडियम 10% एस॰सी॰ 100-120 मिलीलीटर रसायन 120 लीटर पानी में घोलकर /एकड़ कि दर से छिड़काव करें।
श्री विधि से रोपित धान में कल्ले तथा बालियाँ अधिक निकलती हैं अतः फसल के पोषण विशेष रूप से सूक्ष्म पोषक तत्वों कि उपलब्धता पर विशेष ध्यान देना चाहिये जिससे सभी तत्वों की आवश्यकतानुसार उपलब्धता बनी रहे। फसल उत्पादन के शेष कार्य सामान्य रोपित धान की भाँति करते रहेंगे।
डॉ आर के सिंह
अध्यक्ष
कृषि विज्ञान केन्द्र, बरेली
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