प्राकृतिक आपदा से हुए कृषि विनाश में कृषिक संरक्षण हेतु कुछ विचार
चल रही महती प्राकृतिक आपदा से कृषिक त्राहि त्राहि कर रहा है, क्यूँकि आने वाला वर्ष उसके लिए निःसन्देह बहुत ही कठिन सिद्ध होने वाला है । ऐसी भीषण समस्या का समाधान क्या हो, इस पर गम्भीर विचार विमर्श करने की आवश्यकता है । इस लेख के माध्यम से लेखक उक्त विषय पर अपने विचार प्रस्तुत कर रहा है । लेखक के विचार में यह कठिन परिस्थिति एक स्वर्णिम अवसर है, जिसमें न केवल हम भारतीय जन अपने कृषिकों के संरक्षण हेतु कुछ कर सकते हैं, अपितु सम्पूर्ण समाज के नैतिक उत्थान की दिशा में भी कुछ प्रगति कर सकते हैं ।
उपाय
उपाय सरल है, सम्पूर्ण समाज को कृषिकों की हानि का सहभागी बनने के लिए प्रेरित किया जाए । यह कार्य व्यापक प्रचार के माध्यम से किया जा सकता है । यदि खाने के लिए अन्न नहीं होगा, तो सभी जन भूखे रहते हुए मृत्यु को प्राप्त होंगे ही । इतिहास में ऐसा हुआ है, और भविष्य में भी भीषण आपदा आने से इस भुखमरी की सम्भावना को कदापि नकारा नहीं जा सकता, केवल न्यून किया जा सकता है । अतः हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं, कि कृषि को पहुँची हानि वस्तुतः केवल कृषिकों की ही नहीं, अपितु समाज के एक एक व्यक्ति की हानि है । और जब यह हानि एक प्राकृतिक आपदा के कारण हो, तो क्यूँकि इसमें कृषिक का कोई भी दोष नहीं है, अतः इस हानि के भार को केवल कृषिक के शीर्ष पर रख देना तर्क से विपरीत ही दिखाई देता है ।
“कृषिक की हानि मेरी हानि है” इति, “कृषि को पहुँची हानि हम सब की हानि है” इति भाव को व्यापक प्रचार के माध्यम से जनसामान्य के अन्तःकरण तक पहुँचाया जा सकता है । यह कार्य राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए । केन्द्रीय सर्वकार, या राष्ट्रव्यापी ’राष्ट्रीय स्वयंसेवक सङ्घ’ जैसी संस्थाएँ इस कार्य को सिद्ध कर सकती हैं । दूरदर्शन और आकाशवाणी के माध्यम से इसके प्रचार को गति प्रदान की जा सकती है । कृषि को प्रभावित करती प्राकृतिक आपदाओं के समय कृषिकों की सहायता हेतु सर्वकार एक अस्थायी दान निधि का निर्माण कर सकती है, जिसको दिया गया दान करमुक्त किया जा सकता है । इस दानराशि का प्रयोग कृषिकों की क्षतिपूर्ति (compensation) के लिए किया जा सकता है । दूसरा, इसका प्रयोग प्रभावित फसल के मूल्य-नियन्त्रण के प्रति भी किया जा सकता है । स्थानीय माँग-आपूर्ति के सन्तुलन के लिए आपदा में अप्रभावित रहे क्षेत्रों से अतिरेक (surplus) फसल को प्रभावित क्षेत्रों में उपलब्ध कराया जा सकता है, और इनके परिवहन के शुल्क में भी दानराशि का प्रयोग किया जा सकता है ।
समाज का नैतिक उत्थान
उपर्युक्त उपाय से समाज और सर्वकार के सहयोग (public-private-partnership) से कृषिकों का संरक्षण किया जा सकता है । परन्तु इस कार्य का लाभ केवल कृषिकों के संरक्षण तक सीमित नहीं है । वर्तमान भारतीय समाज में लेखक की यह अवेक्षा (observation) रही है कि लोग पूर्व की तुलना में अत्यन्त स्वार्थी होते जा रहे हैं । पाश्चात्य प्रभाव के कारण भारत में वर्धमान भौतिकवाद में स्वार्थ का भी वर्धन होना विस्मय का नहीं, अपेक्षा का ही पात्र है । ऐसी परिस्थिति में, उपर्युक्त उपाय भारतीय समाज में एक आवश्यक परिवर्तन की दिशा में उठे हुए एक पदपात (कदम) के रूप में देखा जा सकता है । अतः वर्तमान प्राकृतिक आपदा को इस आवश्यक परिवर्तन के आरम्भ के एक स्वर्णिम अवसर के रूप में देखा जा सकता है । दूसरा, क्यूँकि आज आपदा में अप्रभावित रहे क्षेत्र कल किसी इतर आपदा में प्रभावित हो सकते हैं, इस तथ्य को समझा कर अप्रभावित क्षेत्रों के नागरिकों को भी करमुक्त दानराशि में सहयोग देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है । इस भाव को विकसित करके राष्ट्र-एकता के प्रति प्रगति की जा सकती है ।
स्वावलम्बी ग्राम का स्वप्न
कृषिक कठोर परिश्रम करके अन्न का उत्पादन करता है । फसल उगाने में वह अपनी सारी पूञ्जी का निवेश कर देता है । और उसके बाद जब फसल नष्ट हो जाए, तो मानो कि उसका सब कुछ छिन गया हो, उसका परिश्रम व्यर्थ चला गया हो । उसके पश्चात् आगामी कई मास कैसे जाएँगे, वह कैसे अपने वृद्ध माता पिता का और नन्हे बच्चों का पेट पालेगा, इस पर्वत समान चिन्ता के भार के तले दब जाता है । गत १ मास में उत्तर भारत में ऐसा ही हुआ है, जिसके कारण विभिन्न क्षेत्रों में अनेकों कृषिकों के प्राण चले गए हैं ।
कृषि की यही अनिश्चितता कृषिक के सामने विद्यमान सबसे बड़ा अवरोध है, ऐसा लेखक का मत है । इसी कारण वर्तमान समय में अनेकों कृषिक अपने बच्चों को कृषिक नहीं बनाना चाहते । वे अपने बच्चों को पढ़ा लिखा कर नगरों में भेजना चाहते हैं । अनेकों कृषिक नगरों की ओर पलायन कर चुके हैं, और अनेकों आज भी कर रहे हैं । भविष्य में कृषिकों की यह प्रवृत्ति भारत के लिए गम्भीर समस्या का रूप ले सकती है । अतः कृषिकों को कृषि-अभिरक्षा प्रदान करके उनका व कृषि का संरक्षण करना भारत के लिए अधिकतम महत्त्वपूर्ण विषय होना चाहिए ।
उपर्युक्त उपाय से कृषि अभिरक्षा निश्चित की जा सकती है, अतः कृषि संरक्षण की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण पदपात (कदम) सिद्ध हो सकता है । इस उपाय के अन्तर्गत कृषि अभिरक्षा सामान्य आर्थिक अभिरक्षा (insurance) से बहुत बढ़ कर है । क्यूँकि इसमें प्रायः सारे देशवासियों का सहयोग है, और वह भी स्वेच्छा से ! अतः अभिरक्षा की कुल राशि बहुत अधिक हो सकती है । दूसरा, साधारण अभिरक्षा एक व्यवसाय होती है, जिसमें अभिरक्षा प्रदान करने वालों का स्वार्थ छिपा होता है । तीसरा, आपदा में कृषिक को कितना भुगतान होगा, इसका निर्णय स्वार्थी अभिरक्षा संस्था के हाथों में होना भी काम्य नहीं है, जो कि प्रस्तुत उपाय और साधारण अभिरक्षा में एक महत्त्वपूर्ण भेद है । कुल मिला कर, प्रस्तुत उपाय से अभिरक्षा की कार्यक्षमता (efficiency) का प्रभूत वर्धन हो सकता है ।
अतः प्रस्तुत उपाय का परिपालन करने से कृषिक का सन्तोष सुनिश्चित किया जा सकता है, जिससे उसका नगर की ओर पलायन रुक सकेगा । इसी के साथ ही ग्राम को स्वावलम्बी बनाने का कठोर प्रयास किया जाना चाहिए । आर्थिक दृष्टि से, स्वावलम्बी ग्राम की संहति (economy) अधिक कार्यक्षमता (efficiency) वाली होती है । जो जहाँ उत्पादित हो, उसका वहीं विक्रयण और वहीं प्रयोग हो, तो निःसन्देह कुल व्यय कम हो जाती है । स्वावलम्बी ग्राम का स्वप्न कृषिक के आत्मविश्वास और सन्तोष को सुनिश्चित किए बिना पूर्ण नहीं किया जा सकता, जिस कारण से प्रस्तुत उपाय का महत्त्व बढ़ता है ।
मनोवैज्ञानिक लाभ
सामान्यतया भारत में प्राकृतिक आपदा के पश्चात् प्रभावित जनों को क्षतिपूर्ति (compensation) दी जाती है । इस क्षतिपूर्ति का स्रोत सामान्य जन से लिए हुए कर से बनी निधि से होता है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि, समान्यतया भी प्रभावित कृषिक के लिए ’सभी’ के सहयोग से क्षतिपूर्ति की जाती है । परन्तु, ध्यान दिया जाए, कि यह सामान्य सहयोग केवल आर्थिक होता है, सम्पूर्ण नहीं । दूसरा, इस सामान्य सहयोग में सहयोगियों की स्वेच्छा नहीं होती, क्यूँकि उन्हें कर ’देना पड़ता है’ । स्वेच्छा से दिया दान, बाध्य हो कर दिए गए कर से उत्तम है । तीसरा, सर्वकार के द्वारा की गई क्षतिपूर्ति से कभी भी कृषिक पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं होता । वहीं जब वह यह देखेगा कि देश के सारे लोग कठिन समय में उसके साथ खड़े हैं, तो वह आत्महत्या करने के लिए विवश नहीं होगा । चौथा, प्रस्तुत उपाय के अन्तर्गत, धनिक जन स्वेच्छा से कुछ अधिक दान कर सकता है, जो कि देश की संहति के लिए काम्य ही है । वहीं, यदि धनिकों पर कर अधिक थोपा जाए, तो वे इसका विरोध करते हैं । इस प्रकार, प्रस्तुत उपाय आर्थिक के साथ साथ मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी समस्या का सम्यक् समाधान करता है ।
राजनैतिक लाभ
कृषिकों के लुप्त सन्तोष को पुनः उजागर करना, किसी भी ऐसा करने वाले राजनीतिक दल के हित में ही है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है । वर्तमान केन्द्रीय सर्वकार से लेखक की आशा है कि वे इस दिशा में आवश्यक पदपात करेंगे ।
भारत में परिपालन सम्भव
एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, क्या प्रचार के माध्यम से देश के निवासियों को प्राकृतिक आपदाओं के समय में पुनः पुनः कृषिकों के लिए स्वेच्छा से दान देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है ? लेखक के मन में, यह सम्भव है, परन्तु इस के लिए प्रचार और विज्ञापन कैसे हो, इस पर ध्यानपूर्वक मनन और विचार विमर्श करने की आवश्यकता है । यह सम्भव इसलिए है, क्यूँकि यह विषय सीधे सभी नागरिकों के लिए खाद्य संरक्षण से जुड़ा है, और केवल नागरिकों को इस गम्भीर विषय के प्रति जागरूक करने की आवश्यकता है । भूतकाल में कई बार देश में खाद्य के पर्याप्त न होने से नागरिकों को भुखमरी का शिकार होना पड़ा है, और भविष्य में एक महती आपदा आने से पुनः ऐसी स्थिति उजागर होने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता । इसी का स्मरण लोगों को कराने की आवश्यकता है । सफल लोकतन्त्र की आवश्यकता है कि राष्ट्रस्तरीय समस्याएँ, उनके समाधान व भविष्य का चिन्तन सभी नागरिकों के बीच चर्चा के विषय बनें, जिससे कि राजनैतिक दल चुनाव के समय उनका मार्ग भ्रष्ट न कर पाएँ ।
नेताजी बोस ने, “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा” का नारा देकर अनेकों वीरों को अपने साथ जोड़ लिया था । लाल बहादुर शास्त्रीजी ने अन्न की आपूर्ति अपर्याप्त होने पर देशवासियों को एक दिन व्रत रखने के लिए प्रेरित कर लिया था । “जय जवान जय किसान” का जो नारा उनके द्वारा दिया गया, इससे यह सिद्ध होता है कि शास्त्रीजी को कृषि और खाद्य संरक्षण का मह्त्त्व पूर्णतः ज्ञात था । तो फिर, उचित नारा देकर यहाँ चर्चित गम्भीर विषय से लोगों को जोड़ने का प्रयास करने वाला नेता क्या भारत में आज नहीं हो सकता ?
-मानव गर्ग