चक्रव्यूह में किसान
यह देश वीर जवानों और मेहनतकश किसानों का है। सिर्फ एक मुहावरा भर नहीं है, आबादी का 65.7 फीसद हिस्सा खेती-किसानी से परोक्ष या प्रत्यक्ष जुड़ा हुआ है। इन्हीं किसान परिवारों के बांके जवान फौज में जाते हैं। यानी एक तरफ वे देश का पेट भरते हैं तो दूसरी तरफ दुश्मनों से देश की रक्षा करते हैं। पर इन किसानों पर कहर टूटे, तो कौन सुने? इनका पेट कौन भरे और इन्हें उस वक्त मरने से कौन बचाए, जब ये अपनी तबाह फसल देखकर सदमे से या फिर भारी कर्ज का बोझ लिये आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं।
इस वक्त देश ऐसे ही अजीबोगरीब हालात से गुजर रहा है। बेमौसम बारिश और ओलों की बौछार ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान और पश्चिम बंगाल के किसानों को कहीं का नहीं छोड़ा है। बीते मार्च महीने में बारिश तकरीबन पूरे महीने होती रही। यह सिलसिला आधा अप्रैल बीतने पर भी खत्म नहीं हुआ। भारी बारिश और ओलावृष्टी ने रबी की फसल को चौपट ही कर दिया।
मार्च में जैसे-तैसे बारिश झेलने के बाद किसान उम्मीद कर रहे थे कि बैसाखी के साथ कटाई सीजन की शुरुआत में तेज धूप फसल को सुखाने और पकाने का काम कर देगी, पर मौसम दगा दे गया। फसल पकाने वाली गर्मी की बजाय बारिश-ओलों ने ऐसे हालात पैदा कर दिये कि कटाई सीजन में खेतों में कड़े गेहूँ के सड़ने की नौबत आ गई। पीली सरसों और दलहन पर वज्रपात हो गया और आलू की फसल चौपट हो गई। मुनाफा कमाना तो दूर, फसल की लागत निकलना भी मुश्किल हो गया।
अलग-अलग राज्यों में खासतौर से गेहूँ-सरसों की बर्बाद हुई फसल के दावे अलग-अलग हैं। अप्रैल के मध्य तक बेमौसम बारिश और ओले पड़ने से उत्तर प्रदेश के चौवालीस जिलों में 1078.68 करोड़ रुपए की फसलों के नुकसान की बात राज्य सरकार ने स्वीकार की थी। लेकिन इस नुकसान का आकलन 50 फीसद फसल की क्षति के पैमाने पर किया गया था। प्रदेश के मुख्य सचिव आलोक रंजन ने कहा था कि केन्द्र सरकार द्वारा नुकसान आकलन का पैमाना बदलकर 33 फीसद क्षति में ही मुआवजा दिलाने की व्यवस्था लागू करने पर नुकसान 2500 करोड़ के बराबर ठहरता है।
हालाँकि, इस बारे में मध्य प्रदेश में दावा किया गया कि बेमौसम बारिश ने वहाँ करीब 45.52 लाख हेक्टेयर में लगी फसलें बर्बाद कर दी। इसके मुकाबले उत्तर प्रदेश में सिर्फ 26.79 लाख हेक्टेयर में फसलों को नुकसान हुआ। केन्द्र सरकार को दस अप्रैल तक भेजे गए आँकड़ों के आधार पर बताया गया कि पूरे देश में बेमौसम बारिश ने 106.73 लाख हेक्टेयर में खड़ी रबी फसलों को तबाह कर दिया।
इस बारे में कृषि मन्त्रालय ने दावा किया कि बारिश और ओले गिरने से राजस्थान में 17 लाख हेक्टेयर में खड़ी गेहूँ के फसलों को नुकसान हुआ है तो उत्तर प्रदेश में 21.18 लाख हेक्टेयर में लगी फसल नष्ट हुई। इसी तरह राजस्थान में 15 लाख हेक्टेयर में सरसों की फसल को नुकसान हुआ और 5.32 लाख हेक्टेयर में दालों को। उत्तर प्रदेश में 3.93 लाख हेक्टेयर में दालों और 1.52 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सरसों की फसल को नुकसान हुआ। केन्द्रीय कृषि मन्त्री राधामोहन सिंह के मुताबिक मार्च से मध्य अप्रैल के बीच अत्यधिक बारिश से रबी की कुल फसल के आठ फीसद हिस्से को ही नुकसान पहुँचा है।
अव्वल तो सरकारें यह मानती ही नहीं है कि किसानों की मौतों या आत्महत्या की वजह खेती में हुआ नुकसान है। इसलिये वे आत्महत्याओं से बर्बाद फसल को देखकर किसानों की मौत और उस आधार पर किए जाने वाले मुआवज़े के दावे को सही नहीं मानतीं। इसलिये वे जो मुआवजा देती हैं या जितना मुआवजा देने का वे एलान करती हैं, उसमें सिर्फ फसली नुकसान को आधार बनाया जाता है।
इस पैमाने पर अकेले उत्तर प्रदेश में ही दस अप्रैल तक छह लाख 28 हजार किसानों को 217.69 करोड़ रुपए का मुआवजा दिये जाने की बात सरकार ने कही थी। पर यह मुआवजा कितना वाजिब था- इसकी कलई उस वक्त खुल गई जब मीडिया में ये रिपोर्टें आईं कि फैजाबाद जिले में मुआवजे के नाम पर किसानों को 75, 100 या 150 रुपए के चेक जारी किए गए हैं। यही नहीं, कुछ ऐसे किसानों को भी चेक जारी कर दिये गए, जिनकी अरसा पहले मौत हो चुकी है।
मुआवजे के नाम पर घपलों की कुछ और मिसालें इस बार दिखीं, जैसे उत्तर प्रदेश में कब्रिस्तान की ज़मीन पर खेती दिखाकर चेक जारी कर दिये गए। एक तरफ मुआवजे के नाम पर ये गड़बड़ियाँ की गईं, तो दूसरी तरफ क्षतिपूर्ति करने के तरीके में कायम झोल भी नजर आए।
सरकार दैवी आपदा से जूझ रहे किसानों की जिन तरीकों से मदद करती है, उसमें मालगुजारी वसूली स्थगित करने, कर्ज माफ करने और मुआवजा देने के ही विकल्प हैं। लेकिन कई बार साबित हो चुका है कि क्षतिपूर्ति के नाम पर मुआवजा देने की पद्धति ही दोषपूर्ण है। सबसे अहम खामी यह है कि इस व्यवस्था में भौगोलिक परिस्थितियों पर विचार नहीं किया जाता है। इसका आशय यह है कि अगर पंजाब में प्रति एकड़ खेती की लागत सौ रुपए आती है, जबकि बिहार या किसी अन्य राज्य में यही लागत 40-50 रुपए ठहरती तो एक औसत निकाल कर 60.70 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से मुआवजा दे दिया जाता है।
इससे वे किसान असमंजस में फँस जाते हैं जिनकी खेती की लागत ज्यादा है। ऐसे में वे लिया गया कर्ज भी चुकता नहीं कर पाते हैं। होना यह चाहिए कि मुआवजा लागत के आधार पर तय हो न कि औसत के आधार पर। इसी तरह अभी नुकसान के आकलन का पैटर्न बारिश के घनत्व पर टिका हुआ है न कि नुकसान के आधार पर। यह सम्भव है कि किसी किसान के खेत में बारिश ने ज्यादा मात्रा में फसल चौपट की हो, जबकि उसी बारिश में दूसरे खेतों में फसल खड़ी रह जाए।
ऐसे में व्यवस्था यह होनी चाहिए कि जिस किसान को जितना नुकसान हुआ हो, उसे उसी आधार पर मुआवजा दिया जाए। यह व्यवस्था सुधारी जा सकती है बशर्तें देश में उस फसल बीमा योजना को लागू किया जाए जो सरकार के पास अरसे से लम्बित पड़ी हुई है। ऐसे इन्तज़ाम नहीं होने की वजह से ही घाटा उठाने वाले किसान आत्महत्या की सोचने लगते हैं या खेतों में सड़ती फसल देखकर सदमें से मर जाते हैं।
मुआवजे के वितरण की एक खामी और है। देश में बड़े इलाके में खेती बंटाई पर होती है। यानी खेतों का मालिक कोई और है और उसमें फसल लगाने से लेकर उसकी देखभाल और कटाई तक का जिम्मा किसी और के पास है। नुकसान देखकर सदमें से मरने या आत्महत्या करने वाला किसान वह है जो बंटाई पर दूसरों के खेत अपने जिम्मे लेता है। ऐसे में जब बात फसली नुकसान के मुआवजे की आती है, तो यह राशि उस खेत मालिक के नाम जारी की जाती है जिसे फसल उगाने या कटाई से कोई मतलब नहीं। यह व्यवस्था फौरन सुधारी जानी चाहिए।
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में अप्रैल के मध्य तक सौ से ज्यादा किसानों की आत्महत्या की खबरें हैं। राज्य सरकारें यह तो स्वीकार कर रही हैं कि भारी बारिश और ओलावृष्टि से फसलें तबाह हुई हैं, लेकिन यह मानने से उन्हें गुरेज है कि इस कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं। सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं, सरकार और प्रशासन के स्तर पर तकरीबन पूरे देश में किसान की आत्महत्या को फसली नुकसान से अलग करके देखा जाता है। इसका उदाहरण 20 मार्च को राज्यसभा में तब देखने को मिला जब कृषिमन्त्री राधामोहन सिंह ने नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के कुछ आँकड़ों का हवाला दिया था।
उन्होंने बताया था कि खेती-किसानी से जुड़े लोगों में से वर्ष 2011, 2012 और 2013 में क्रमशः 14,027, 13,754 और 11,772 ने आत्महत्या की थी। कृषि मन्त्री ने यह भी बताया लेकिन इनमें से फसल तबाह देखकर 2011 में 1066, 2012 में 890 और 2013 में 1357 किसानों ने ही आत्महत्या की। उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और झारखण्ड ने इन वर्षों में किसानों की मौतों का कोई आँकड़ा ही ब्यूरो को नहीं भेजा।
हरियाणा जैसे राज्य में भी किसानों की आत्महत्या को झुठलाने का प्रयास होता रहा है। कुल मिलाकर इसका मतलब यह रहा कि सरकार किसानों की मौत तो स्वीकार करती है, लेकिन उसे आत्महत्या मानने से बचती हैं। कुछ एनजीओ यह दावा भी करते हैं कि राज्य सरकारें भुखमरी से मर रहे किसानों की मौतों को भी सामान्य मृत्यु के खाते में दर्ज करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहती हैं। निश्चय ही कर्ज का बोझा भी किसानों को मौत के मुँह में धकेल रहा है।
कर्ज नहीं चुका पाने की सूरत में किसान अवसाद के शिकार हो जाते हैं, कुछ शराब जैसे नशों की चपेट में आ जाते हैं जिससे उनके परिवारों में झगड़े-झंझट पैदा होते हैं और एक दिन उन परिवारों में आत्महत्या जैसे हादसे होते हैं। पर यह पूरी एक शृंखला है जिसकी शुरुआत फसल की बर्बादी और उपज में ऊँच-नीच से होती है।
वैसे तो केन्द्र और राज्य सरकारों ने दावा किया है कि इस साल प्रभावित किसानों को एक महीने के भीतर राहत राशि के चेक उन तक पहुँचा दिये जाएँगे। केन्द्रीय कृषिमन्त्री कह चुके हैं कि इस बार सब्सिडी की राशि सीधे किसानों के खाते में भेज दी जाएगी, हालाँकि इसमें थोड़ा वक्त लग सकता है। पर इन दावों की सच्चाई यह है कि मुआवजा और राहत प्रक्रिया काफी जटिल है।
इस कारण किसानों तक मदद पहुँचने में काफी लम्बा अरसा लग सकता है। असल में किसानों की तबाही की खबर पाने पर मुआवजे और राहत की शुरुआत तब होती है, जब अंचल या पंचायत स्तर पर पटवारी जिला प्रशासन को एक रिपोर्ट भेजते हैं। यह रिपोर्ट जिले से राज्य मुख्यालय को भेजी जाती है।
राज्य स्तर पर कायम एक समिति उन रिपोर्टों की जाँच करके उन पर अपनी अनुशंसा करती है। इसके बाद राज्य सरकार जिला प्रशासन को किसानों को राहत प्रदान करने के प्रस्ताव पर संस्तुति देती है। लेकिन इसके लिये धन के आवंटन की प्रक्रिया तब शुरू होती है, जब इस बाबत राज्य सरकार की कोई सिफारिश केन्द्र तक पहुँचती है। केन्द्र सरकार की एजेंसियाँ उस सिफारिश की जाँच और अनुशंसा करती हैं। इसके लिये केन्द्रिय जाँच टीमें प्रभावित इलाकों का दौरा करती हैं।
गृह मन्त्रालय भी आपदा के पैमानों पर नुकसान का आकलन करता है। इसके बाद नुकसान के आधार पर मुआवजे या राहत राशि का आकलन कर वित्त मन्त्राल से उस बजट को स्वीकृत कराया जाता है। यह बजट ही राहत राशि के रूप में बाद में कृषि मन्त्रालय राज्य सरकारों को किसानों के लिये भेजता है। इन सारी प्रक्रियाओं में कई बार एक साल तक का लम्बा वक्त लग जाता है, जिससे किसानों की हालत और खराब हो जाती है।
ज्यादा उपज भी घाटा
एक तरफ किसान फसल की बर्बादी से त्रस्त हैं तो देश में ही एक उदाहरण ऐसा भी है जहाँ अधिक फसल ने किसानों को आत्महत्या के लिये मजबूर कर दिया है। यह उदाहरण पश्चिम बंगाल का है। इस राज्य में आलू की जबरदस्त पैदावर हुई है। इस साल पश्चिम बंगाल में लगभग 1.20 करोड़ टन आलू की फसल हुई है। वहाँ आलू की घरेलू खपत लगभग 74 लाख टन है और राज्य में इसकी भण्डारण क्षमता 65 लाख टन है। एक आकलन के मुताबिक जितने इलाके में पिछले साल (2014 में) 95 लाख किलोग्राम आलू पैदा हुआ था, उतने में ही इस बार 1.20 करोड़ किलोग्राम आलू की पैदावार हुई है। इस तरह पैदावार में करीब 26 फीसद इज़ाफा हुआ है। इसको देखकर किसानों की खुशी का ठिकाना नहीं रहना चाहिए था, पर उनकी मुश्किलें तब शुरू हुईं, जब बाजार ने इसके बेहद कम दाम लगाए।
आलू उत्पादकों ने प्रति किलो आलू पैदा करने में 5.50 से 6 रुपए खर्च किए हैं जबकि बाजार इसकी खरीद तीन रुपए प्रति किलो के हिसाब से कर रहा है। इस साल आलू उत्पादन करने वाले इलाकों में 50 किलो की बोरी 140 रुपए में बिक रही हैं, जबकि लागत इससे कहीं ज्यादा है। पिछले साल इन्हीं इलाकों में ही प्रति बोरी का भाव 300-350 रुपए था। इससे तो लागत भी नहीं निकल पा रही है। वे फसल के लिये गए कर्ज को चुकाने की स्थिति में भी नहीं हैं। जिससे किसान टूट गया और उसकी आत्महत्याओं का सिलसिला चल निकला। ढेरों आलू उत्पादक किसान इस साल पश्चिम बंगाल में आत्महत्या कर चुके हैं।
ममता बनर्जी सरकार ने आलू निर्यात पर रोक लगा रखी थी, ताकि राज्य को इस मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सके। लेकिन इस साल जब भारी उत्पादन के बाद कम कीमत मिलने से किसानों की आत्महत्या की खबरें आईं तो उन्होंने यह पाबन्दी हटाई। हालांकि इससे नुकसान नहीं थमा। असल में पड़ोसी राज्यों में भी आलू की ठीक-ठाक फसल हुई है। जैसे उत्तर प्रदेश में भी इस साल आलू की भारी पैदावार हुई है। ओड़िशा, झारखण्ड और बिहार ने भी पश्चिम बंगाल से आलू खरीदने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है।
नतीजा यह निकला कि पश्चिम बंगाल में आलू की कीमतें 62 फीसद तक गिर गईं। मंडियों में और सड़कों पर आलू की बोरियों के ढेर लगे हैं, पर कोई उन्हें खरीदने को तैयार नहीं। राज्य सरकार ने किसानों से वाजिब कीमतों पर आलू खरीदने का एलान किया था, लेकिन वह काफी कम मात्रा में खरीद कर रही है। इसके पीछे वजह यह है कि गोदामों में आलू रखने की जगह नहीं है। देश भर के करीब 80 फीसद आलू के गोदाम पूरी तरह से भर चुके हैं। यह मसला सिर्फ पश्चिम बंगाल तक सीमित रहने वाला नहीं है। इसकी कीमत उत्तर प्रदेश के आलू उत्पादकों को भी चुकानी पड़ रही है। वहाँ भी आलू पैदा करने वाले किसानों की आत्महत्या के समाचार आने लगे हैं।
विक्षोभ और क्षोभ
‘का वर्षा जब कृषि सुखाने’ इस बार यह कहावत ही उलट गई। बारिश इतनी हुई कि इसने खेती को ही चौपट कर डाला। देश का अन्नदाता मौसम की इस बेढब चाल के आगे पस्त नजर आया। बारिश से तापमान में गिरावट आई और फसलों को ज्यादा नुकसान पहुँचा। मार्च के आखिर अप्रैल के पहले पखवाड़े में इतनी बारिश क्यों हुई, इस बारे में मौसम विभाग ने कहा कि यह पश्चिमी विक्षोभ का नतीजा है।
हाल में कैस्पियन समुद्र से तेजी से उठे पश्चिमी विक्षोभ के चलते तेज बारिश हुई। आमतौर पर पश्चिमी विक्षोभ राजस्थान से गुजरता रहता है, लेकिन इस बार विक्षोभ के आने के साथ-साथ बंगाल की खाड़ी की तरफ से आई आर्द्रता के मिल जाने के कारण यहाँ बारिश और ओलावृष्टि हुई है। असल में पिछले कुछ सालों से मौसम हमें लगातार चौंकाता आया है। उत्तराखण्ड और कश्मीर की त्रासदियाँ तो सामने ही हैं, पर देश के मैदानी इलाकों में भी अतिवृष्टि और अनावृष्टि जब-तब मुसीबतों के रूप में संकट खड़े करती रही है।
मार्च-अप्रैल के महीने में इतनी तेज और इतनी लम्बी बारिश एक असाधारण बात है। मौसम विभाग ने इसके लिये जिस पश्चिमी विक्षोभ का हवाला दिया है उसकी व्यापकता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसने बंगाल की खाड़ी और अरब सागर यानी देश के पूर्वी और पश्चिमी दोनों छोरों से नमी उठाई थी। लेकिन मामला सिर्फ इसी साल तक सीमित रहेगा, इसकी कोई सम्भावना नहीं है। हो सकता है कि आने वाले वर्षों में हालात और गम्भीर हो जाएँ।
असल में पिछले चार-छह वर्षों में पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में मौसम के क्रान्तिकारी बदलाव देखने को मिले हैं। ये बदलाव मौसम के बिगड़ते मिजाज को प्रकट कर रहे हैं। अगर इन बदलावों को पढ़ते हुए खेती-किसानी को बचाने के प्रयास नहीं किए गए तो हालात काफी ज्यादा बिगड़ सकते हैं।
अभिषेक कुमार सिंह