गन्ने की उन्नत खेती
गन्ना खेती के लिए जलवायु
गन्ना के लिए उष्ण कटिबन्धीय जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। गन्ना बढ़वार के समय लंबी अवधि तक गर्म व नम मौसम तथा अधिक वर्षा का होना सर्वोत्तम पाया गया है। गन्ना बोते समय साधारण तापमान, फसल तैयार होते समय आमतौर पर शुष्क व ठण्डा मौसम, चमकीली धूप और पाला रहित रातें उपयुक्त रहती है। छत्तीसगढ़ क¨ प्रकृति ने ऐसी ही जलवायु से नवाजा है । गन्ने के अंकुरण के लिए 25-32 डि से. तापमान उचित रहता है। गन्ने की बुआई और फसल बढ़वार के लिए 20- 35 डि से. तापक्रम उपयुक्त रहता है। इससे कम या अधिक तापमान पर वृद्धि घटने लगती है। गन्ने की खेती उन सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है जहाँ वार्षिक वर्षा 75 - 120 सेमी. तक होती है। समय पर वर्षा न होने पर सिंचाई आवश्यक है। पानी की कमी होने पर गन्ने मे रेशे अधिक उत्पन्न होते हैं और अधिक वर्षा में शक्कर का प्रतिशत कम हो जाता है। गन्ने की विभिन्न अवस्थाओं के लिए आर्द्रता 56 - 87 प्रतिशत तक अनुकूल होती है। सबसे कम आर्द्रता कल्ले बनते समय एवं सबसे अधिक, गन्ने की वृद्धि के समय चाहिए। सूर्य के प्रकाश की अवधि एवं तापमान का गन्ने में सुक्रोज निर्माण पर अधिक प्रभाव पड़ता है। प्रकाश की उपस्थिति में कार्बोहाइड्रेट बनता है जिससे गन्ने के भार में वृद्धि होती है। लम्बे दिन तथा तेज चमकदार धूप से गन्ने में कल्ले अधिक बनते हैं। तेज हवाएँ गन्ने के लिए हानिकारक है क्योंकि इससे गन्ने गिर जाते हैं जिससे गन्ने की उपज और गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी गन्ने की खेती बलुई दोमट से दोमट और भारी मिट्टी मे सफलता पूर्वक की जा सकती है परंतु गहरी तथा उत्तम जल निकास वाली दोमट मृदा जिनकी मृदा अभिक्रिया 6.0 से 8.5 होती है, सर्वात्तम रहती है। उचित जल निकास वाली जैव पदार्थ व पोषक तत्वो से परिपूर्ण भारी मिट्टियो में भी गन्ने की खेती सफलतार्पूक की जा सकती है। अम्लीय मृदाएं इसकी खेती के लिए हांनिकारक होती है। गन्ने की पेड़ी लेने के कारण इसकी फसल लम्बे समय (2 - 3 वर्ष) तक खेत में रहती है । इसलिए खेत की गहरी जुताई आवश्यक है। खेत तैयार करने के लिए सबसे पहले पिछली फसल के अवशेष भूमि से हटाते है। इसके बाद जुताई की जाती है और जैविक खाद मिट्टी में मिलाते है। इसके लिए रोटावेटर उपकरण उत्तम रहता है। खरीफ फसल काटने के बाद खेत की गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से की जाती है । इसके बाद 2 - 3 बार देशी हल अथवा कल्टीवेटर से जुताई करने के पश्चात् पाटा चलाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा तथा खेत समतल कर लेना चाहिए। हल्की मिट्टियो की अपेक्षा भारी मिट्टी में अधिक जुताईयाँ करनी पड़ती है । बेहतर उपज के लिए अपनाएं उन्नत किस्में गन्ने की उपज क्षमता का पूर्ण रूप से दोहन करने के लिए उन्नत किस्मो के स्वस्थ बीज का उपयोग क्षेत्र विशेष की आवश्यकता के अनुरूप करना आवश्यक है। रोग व कीट मुक्त बीज नई फसल (नोलख फसल) से लेना चाहिए। गन्ने की पेड़ी फसल को बीज के रूप में प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। छत्तीसगढ. के लिए अनुमोदित गन्ने की नवीन उन्नत किस्मों की विशेषताएँ यहाँ प्रस्तुत है । 1.को -8371(भीम): यह किस्म नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त है । स्मट रोग रोधी, सूखा व जल जमाव सहनशील । इसकी उपज 117.7 टन प्रति हैक्टर तथा रस में 18.6 प्रतिषत शुक्रोस पाया जाता है । 2.को -85004 (प्रभा): शीघ्र तैयार ह¨ने वाली इस किस्म की उपज क्षमता 90.5 टन प्रति हैक्टर है तथा रस में 19.5 प्रतिशत शुक्रोस होता है । नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए यह उपयुक्त किस्म है । यह स्मट रोग रो धी , रेड रॉट से मध्यम प्रभावित, पेड़ी फसल हेतु उपयुक्त किस्म है। 3.को -86032 (नैना): मध्यम समय में तैयार ह¨ने वाली इस किस्म से 102 टन प्रति हैक्टर उपज प्राप्त ह¨ती है एवं रस में 20.1 प्रतिशत शुक्र¨स ह¨ता है । मैदानी क्षेत्रो में नवम्बर-जनवरी में लगाने हेतु उपयुक्त है । स्मट व रेड रॉट रोग रो धी होने के साथ साथ सूखा रोधी किस्म है जो पेड़ी फसल के लिए उपयुक्त है । 4 .को -87044 (उत्तरा): मध्य समय में तैयार होने वाली यह किस्म नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त है । उपज 101 टन प्रति हैक्टर तथा रस में शुक्र¨स 18.3 प्रतिशत । स्मट रोग मध्य अवरोधी तथा रेड रोट रोग से मध्य प्रभावित है। 5 .को -88121(कृष्ना):मध्य समय में तैयार होने वाली यह किस्म छत्तीसगढ में नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त किस्म है । उपज 88.7 टन तथा रस में 18.6 प्रतिषत शुक्रोश पाया जाता है । स्मट रोग रो धी, सूखा सहन यह किस्म गुड़ बनाने के लिए श्रेष्ठ है । पायरिल्ला प्रभावित क्षेत्रो के लिए: को. जेएन. 86 - 141 उपयुक्त है। गुड़ के लिए: को. जेएन. 86 - 141 (सूखा सहनशील), को जेएन. 86 - 572 (चूसने हेतु नरम), को. जेएन. 86 - 2072, को. 86032 (जड़ी फसल के लिए उत्तम), को. जेएन, 86 - 2087 उपयुक्त किस्म है। गन्ने की अन्य प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ किस्म का शक्कर अवधि गन्ना पैदावार नाम (%) (माह) (टन/हे.) को. जेएन. 86 - 141 21.10 10 - 12 90 - 100 को. जेएन. 86 - 572 20.01 10 - 12 90 - 110 को. 7314 18.80 10 - 12 90 - 100 को. जेएन. 86 - 2072 19.90 10 - 12 90 - 100 को. 7219 18.16 12 - 14 100 - 120 को. 86032 17.18 12 - 14 110 - 120 को. 7318 18.16 12 - 14 100 - 120 को. 6304 18.80 12 - 14 100 - 120 को. जेएन. 86 - 600 19.06 12 - 14 100 - 120 को. जेएन. 86 - 2087 19.04 12 - 14 100 - 120 को. पंत 90 - 223 18.02 12 - 14 100 - 120 को. पंत 92 - 227 18.03 12 - 14 100 - 120 गन्ना बोआई-रोपाई का समय गन्ने की बुआई के समय वातावरण का तापमान 25 - 32 डिग्री से.गे. अच्छा माना जाता है। भारत के उत्तरी राज्यों में इतना तापमान वर्ष में दो बार रहता है - एक बार अक्टूबर-नवम्बर में तथा दूसरी बार फरवरी-मार्च में। अतः इन दोनों ही समय पर गन्ना बोया जा सकता है। भारत में गन्ने की बुआई शरद ऋतु (सितम्बर - अक्टूबर), बसन्त ऋतु (फरवरी - मार्च) एवं वर्षा ऋतु (जुलाई) में की जाती है।छत्तीसगढ़ में शरद व बसंत ऋतु में ही गन्ना ब¨या जाना लाभप्रद है । 1. शरद कालीन बुआई: वर्षा ऋतु समाप्त होते ही शरद कालीन गन्ना लगाया जाता है। गन्ना लगाने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर - नवम्बर रहता है। देर से बुआई करने पर तापक्रम घटने लगता है, फलस्वरूप अंकुरण कम होता है और उपज में कमी आ जाती है। फसल वृद्धि के लिए लम्बा समय, भूमि में नमी का उपयुक्त स्तर और प्रारम्भिक बढ़वार के समय अनुकूल मौसम मिलने के कारण शरद ऋतु की बुआई से 15-20 प्रतिशत अधिक उपज और रस में शक्कर की मात्रा ज्यादा प्राप्त होती है। 2. बसंत कालीन बुआई: रबी फसलों की कटाई के बाद बसंत कालीन गन्ने की बुआई फरवरी - मार्च मे की जाती है। भारत मे लगभग 85 प्रतिशत क्षेत्र में गन्ने की बुआई इसी ऋतु में की जाती है। इस समय बोई गई गन्ने की फसल को 4 - 5 माह का वृद्धि काल ही मिल पाता है और चरम वृद्धि काल के दौरान फसल को नमी की कमी और अधिक तापक्रम तथा गर्म हवाओं का सामना करना पड़ता है जिससे शरद कालीन बुआई की अपेक्षा बसंतकालीन गन्ने से उपज कम प्राप्त होती है। कैसा हो गन्ने का बीज उत्तर भारत मे गन्ने की फसल मे बीज नहीं बनते है। अतः गन्ने की बुआई वानस्पतिक प्रजनन (तने के टुकड़ों) विधि से की जाती है। गन्ना बीज चयन एवं बीज की तैयारी से सम्बन्धित निम्न बातें ध्यान में रखना आवश्यक है। 1. बीज के लिए गन्ने का भाग अपरिपक्व गन्ने अथवा गन्ने के ऊपरी भाग का प्रयोग बीज के लिए करना चाहिए । वस्तुतः गन्ने के ऊपरी हिस्से से लिये गये बीज शीघ्र अंकुरित हो जाते है, जबकि निचले भाग से लिए गए टुकड़े देर से जमते है, क्योंकि ऊपरी भाग की आँखे ताजी एवं स्वस्थ होने के कारण शीघ्र जम जाती है, जबकी निचले भाग की पुरानी आँख पर एक कठोर परत जम जाती है जो अंकुरण में बाधक होती है। गन्ने के ऊपरी 1/3 हिस्से में घुलनशील नत्रजन युक्त पदार्थ, नमी तथा ग्लूकोज की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है जिससे गन्ने के टुकड़ो को अंकुरण के लिए तुरन्त शक्ति मिल जाती है और जमाव शीघ्र हो जाता है। गन्ने के निचले हिस्से में सुक्रोज (जटिल अवस्था में) होने से देर में अंकुरण होता है। इसके अलावा ऊपरी भाग में पोर छोटे होते है। इसलिए पंक्ति की प्रति इकाई लम्बाई में अपेक्षाकृत अधिक कलियाँ पाई जा सकती है और इस प्रकार रिक्त स्थान होने की संभावना कम हो जाती है। फूल आने के बाद गन्ना का प्रयोग बुआई के लिए नहीं करना चाहिए क्योंकि गन्ने में पिथ बनने के कारण अंकुरित होने वाले भाग में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। 2. गन्ने को टुकड़ों में काटकर बोना गन्ना के पूरे तने को न बोकर इसको काटकर (2 - 3 आँख वाले टुकड़े) छोटे - छोटे टुकड़ों में बोया जाता है। क्योकि गन्ने के पौधे या तने में शीर्ष सुषुप्तावस्था पाई जाती है। यदि पूरा गन्ना बगैर काटे बो दिया जाता है, तो उसका ऊपरी हिस्सा तो अंकुरित हो जाता है परन्तु नीचे वाला भाग नहीं जमता। गन्ने के पेड़ में कुछ ऐसे हार्मोन्स भी पाये जाते है जो पौधें में ऊपर से नीचे की और प्रवाहित होते है तथा इन हार्मोन्स का प्रभाव नीचे की आँख के ऊपर प्रतिकूल पड़ता है। कुछ हार्मोन्स गन्ने की आँख या कली को विकसित होने से रोकते है । गन्ने को टुकड़ो में काट कर बोने से इन हार्मोन्स का प्रवाह रूक जाता है। जिससे प्रत्येक आँख अपना कार्य सही ढंग से करने लगती है। इसके अलावा गन्ने को टुकड़ों में काटने से कटे हुए हिस्सों से पानी एवं खनिज लवण शीघ्र प्रवेश कर जाते है, जो शीघ्र अंकुरण में सहायक होते है। 3. गन्ने के टुकड़ो को सीधा नहीं तिरछा काटा जाए बीज के लिए गन्ने के टुकड़ो को हमेशा तिरछा काटा जाना चाहिए क्योंकि सीधा काटने से गन्ना फट जाता है जिससे उनसे काफी रस निकल जाता है और बीज में कीट-रोग लगने की संभावना भी बढ़ जाती है। तिरछा काटने से गन्ना फटता नहीं है और उसका जल-लवण अवशोषण क्षेत्र भी बढ़ जाता है। शीघ्र अंकुरण के लिए टुकड़ो का अधिक अवशोषण क्षेत्र सहायक होता है। सीधा काटने से कटा क्षेत्र कम रहता है अर्थात् अवशोषण क्षेत्र समिति होता है।बोआई के लिए गन्ने के तीन आँख वाले टुकड़े सर्वोत्तम माने जाते है, परन्तु आमरतोर पर अब दो आँख वाले टुकडे का प्रयोग होने लगा है । सही हो बीज बोने की दर गन्ने की बीज दर टुकड़े के अंकुरण प्रतिशत, गन्ने की किस्म, बोने के समय आदि कारको पर निर्भर करती है। सामान्यतौर पर गन्ने की 50-60 प्रतिशत कलिकायें ही अंकुरित होती है। नीचे की आँखें अपेक्षाकृत कम अंकुरित होती है। बोआई हेतु मोटे गन्ने की मात्रा अधिक एवं पतले गन्ने की मात्रा कम लगती है। शरदकालीन ब¨आई में गन्ने में अंकुरण प्रतिशत अधिक होता है। अतः बीज की मात्रा भी कम लगती है। बसंतकालीन गन्ने में कम अंकुरण होने के कारण अपेक्षाकृत अधिक बीज लगता है। एक हेक्टेयर ब¨आई के लिए तीन कलिका वाले 35,000 - 40,000 (75 - 80 क्विंटल ) तथा दो कलिका वाले 40,000 - 45,000 (80 - 85 क्विंटल ) टुकड़ों की आवश्यकता पड़ती है। इन टुकड़ों को आँख - से - आँख या सिरा - से - सिरा मिलाकर लगाया जाता है। गन्ने के टुकड़ों को 5 - 7 सेमी. गहरा बोना चाहिए तथा कलिका के ऊपर 2.5 से. मी. मिट्टी चढ़ाना चाहिए। बीज उपचार से फसल सुरक्षा फसल को रोगो से बचाव हेतु गन्ने के टुकड़ो को एमीसान नामक कवकनाशी की 250 ग्राम मात्रा को 200 लीटर पानी के घोल में 5 से 10 मिनट तक डुबाना चाहिये। इस दवा के न मिलने पर 600 ग्राम डायथेन एम - 45 का प्रयोग करना चाहिए । रस चूसने वाले कीड़ो की रोकथाम के लिए उक्त घोल में 500 मि. ली. मेलाथियान कीटनाशक मिला लेना चाहिए। गन्ने के टुकड़ों को लगाने के पूर्व मिट्टी के तेल व कोलतार के घोल अथवा क्लोर¨पायरीफाॅस दवा को 2.5 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर गन्ना बीज के टुकड़ों के किनारों को डुबाकर उपचारित करने से दीमक आदि भूमिगत कीटो का प्रकोप कम हो जाता है। अच्छे अंकुरण के लिए बीजोपचार से पूर्व गन्ने के बीजू टुकड़ों को 24 घन्टे तक पानी में डुबाकर रखना चाहिए। गन्ना कारखाने में उपलब्ध नम - गर्म हवा संयंत्र में (54 डि. से. पर 4 घंटे तक) गन्ने के टुकड़ों को उपचारित करने पर बीज निरोग हो जाता है। गन्ना लगाने की विधियाँ गन्ने की बुवाई सूखी या पलेवा की हुई गीली दोनो प्रकार की भूमि पर की जाती है । सूखी भूमि में पोरिया (गन्ने के टुकड़े) डालने के तुरन्त बाद सिंचाई की जाती है । गीली बुवाई में पहले पानी नालियो या खाइयो में छोड़ा जाता है और फिर गीली भूमि में पोरियो को रोपा जाता है । गन्ने की बुआई भूमि की तैयारी , गन्ने की किस्म, मिट्टी का प्रकार, नमी की उपलब्धता, बुआई का समय आदि के अनुसार निम्न विधियों से की जाती है: 1. समतल खेत में गन्ना बोना: इसमें 75 - 90 सेमी. की क्रमिक दूरी पर देशी हल या हल्के डबल मोल्ड बोर्ड हल से 8 - 10 सेमी. गहरे कूँड़ तैयार किये जाते है। इन कूडों में गन्ने के टुकड़ों की बुआई (एक सिरे से दूसरे सिरे तक) करके पाटा चलाकर मिट्टी से 5-7 सेमी. मिट्टी से ढंक दिया जाता है। आज कल ट्रेक्टर चालित गन्ना प्लांटर से भी बुआई की जाती है। 2. कूँड़ में गन्ना बोनाः इस विधि मे गन्ना रिजर द्वारा उत्तरी भारत में 10 - 15 सेमी. गहरे कूँड़ तथा दक्षिण भारत मे 20 सेमी. गहरे कूँड़ तैयार किये जाते है। गन्ने के टुकड़ों को एक - दूसरे के सिरे से मिलाकर इन कूँड़¨ में बोकर ऊपर से 5-7 सेमी. मिट्टी चढ़ा देते है । इस विधि में बुवाई के तुरन्त बाद पानी दे दिया जाता है, पाटा नहीं लगाया जाता । 3. नालियों में गन्ना बोना: गन्ने की अधिकतम उपज लेने के लिए यह श्रेष्ठ विधि है ।गन्ने की बुआई नालियों में करने के लिए 75 - 90 सेमी. की दूरी पर 20 - 25 सेमी. गहरी एवं 40 सेमी. चौड़ी नालियाँ बनाई जाती है। सामान्यतः 40 सेमी. की नाली और 40 सेमी. की मेढ़ बनाते है। गन्ने के टुकड़ों को नालियों के मध्य में लगभग 5 - 7 सेमी. की गहराई पर बोते है तथा कलिका के ऊपर 2.5 सेमी. मिट्टी होना आवश्यक है। प्रत्येक गुड़ाई के समय थोड़ी सी मिट्टी मेढ़ो की नाली में गिराते रहते है। वर्षा आरम्भ होने तक मेढ़ो की सारी मिट्टी नालियों में भर जाती है और खेत समतल हो जाता है। वर्षा आरंभ हो जाने पर गन्ने में नत्रजन की टापड्रेसिंग करके जड़ों पर मिट्टी चढ़ा देते हैं। इस प्रकार मेढ़ों के स्थान पर नालियाँ और नालियों के स्थान पर मेढ़ें बन जाती हैं। इन नालियों द्वारा जल निकास भी हो जाती है। इस विधि से गन्ना लगाने के लिए ट्रेक्टर चालित गन्ना प्लान्टर यंत्र सबसे उपयुक्त रहता है। नालियो में गन्ने की रोपनी करने से फसल गिरने से बच जाती है । खाद एवं पानी की बचत होती है । गन्ने की उपज में 5-10 टन प्रति हैक्टर की वृद्धि होती है । गन्ना नहीं गिरने से चीनी की मात्रा में भी वृद्धि पायी जाती है । 4. गन्ना बोने की दूरवर्ती रोपण विधि (स्पेस ट्रांस्प्लान्टिंग): यह विधि भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित की गई है । इसमें 50 वर्ग मीटर क्षेत्र में (1 वर्ग मीटर की 50 क्यारियाँ) पोधशाला बनाते हैं। इनमें एक आँख वाले 600 - 800 टुकड़ें लगाते हैं। इसमें सिर्फ 20 क्विंटल ही बीज लगता है। बीज हेतु गन्ने के ऊपरी भाग का ही प्रयोग करना चाहिए। क्यारियों में नियमित रूप से सिंचाई करें। बीज लगाने के 25 - 30 दिन बाद (3 - 4 पत्ती अवस्था) पौध को मुख्य खेत में रोपना चाहिए। इस विधि से गन्ना लगाने हेतु पौध स्थापित होने तक खेत में नमी रहना आवश्यक है। इस विधि से बीज की बचत होती है। खेत में पर्याप्त गन्ना (1.2 लाख प्रति हे.) स्थापित होते हैं। फसल में कीट-रोग आक्रमण कम होता है। परंपरागत विधियों की अपेक्षा लगभग 25 प्रतिशत अधिक उपज मिलती है। 5. गन्ना बोने की दोहरी पंक्ति विधिः भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित गन्ना लगाने की यह पद्धति अच्छी उपजाऊ एवं सिंचित भूमियो के लिए उपयुक्त रहती है । दोहरी पंक्ति विधि में गन्ने के दो टुकड़ो को अगल-बगल बोया जाता है जिससे प्रति इकाई पौध घनत्व बढ़ने से पैदावार में 25-50 प्रतिशत तक बढोत्तरी होती है । अधिकतम उपज के लिए खाद एवं उर्वरक गन्ने की 100 टन प्रति हे. उपज देने वाली फसल भूमि से लगभग 208 किलो नत्रजन, 53 किलो फास्फोरस तथा 280 किलो पोटाश ग्रहण करती है। अतः वांक्षित उत्पादन के लिए गन्ने में खाद एवं उर्वरको को सही एवं संतुलत मात्रा में देना आवश्यक रहता है । खेत की अंतिम जुताई के पूर्व 10-12 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी गोबर की खाद भूमि में मिला दें। यदि मिट्टी परीक्षण नहीं किया गया है तो प्रति हे. 120 - 150 किग्रा. नत्रजन, 80 किग्रा. स्फुर व 60 किग्रा. पोटाश की अनुशंसा की जाती है। यदि भूमि मे जस्ते की कमी हो तो 20 से 25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हे. गन्ना लगाते समय देना चाहिए । बसन्तकालीन फसल में नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फूर और पोटाश की पूरी मात्रा गन्ना लगाने के समय कूँड़ में डालें । नत्रजन की शेष मात्रा बआई के 80 - 90 दिन बाद दी जाना चाहिए । शरदकालीन गन्ने में भी नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फूर और पोटाश की पूरी मात्रा गन्ना लगाने के समय कूँड़ में डालें। नत्रजन की शेष मात्रा बुआई के 110 - 120 दिन बाद दी जानी चाहिए। पोषक तत्वो की कुल आवश्यकता का एक तिहाई हिस्सा गोबर की खाद या कम्पोस्ट द्वारा तथा शेष दो तिहाई भाग रसायनिक उर्वरक के रूप मे देने से गन्ने के उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि होती है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति में सुधार होता है। इस तरह उर्वरकों का प्रयोग करने पर अधिक लाभ व उत्पादन मिलता है। समय पर सिंचाई और जल निकासी गन्ने की फसल को जीवन काल में 200-300 सेमी. पानी की आवश्यकता होती है। फसल की जलमांग क्षेत्र, मृदा का प्रकार, किस्म, बुआई का समय और बोने की विधि पर निर्भर करती है। गन्ने की विभिन्न अवस्थाओं में जल माँग को निम्नानुसार विभाजित किया गया है - फसल अवस्थाएँ समय (दिन) जलमाँग (सेमी. 1. अंकुरण बुआई से 45 30 2. कल्ले बनने की अवस्था 45 से 120 55 3. वृद्धि काल 120 से 270 100 4. पकने की अवस्था 270 से 360 65 गन्ने में सर्वाधिक पानी की माग बुआई के 60 दिन से लेकर 250 दिन तक होती है। फसल में प्रति सिंचाई 5-7 सेमी. पानी देनी चाहिए। गर्मी में 10 दिन व शीतकाल में 15 से 20 के अंतर से सिंचाई करें। मृदा में उपलब्ध नमी 50 प्रतिशत तक पहुचते ही गन्ने की फसल में सिंचाई कर देनी चाहिए। शरदकालीन फसल के लिए औसतन 7 सिंचाईयाँ (5 मानसून से पहले व 2 मानसून के बाद) और बसन्तकालीन फसल के लिए 6 सिंचाईयों की आवश्यकता पड़ती है। पानी की कमी वाली स्थिति में गरेडों में सूखी पत्तियाँ बिछाने से सिंचाई संख्या कम की जा सकती हैं। खेत को छोटी-छोटी क्योरियों में बाँटकर नालियों मे सिंचाई करना चाहिए। फव्वारा विधि से सिंचाई करने से पानी बचत होती है तथा उपज में भी बढोत्तरी होती है। वर्षा ऋतु में मृदा मे उचित वायु संचार बनाये रखने के लिए जल - निकास का प्रबन्ध करना अति आवश्यक ह। इसके लिए नाली में बोये गये गन्ने की नालियों को बाहरी जलनिकास नाली से जोड़ देना चाहिए। जल निकास के अभाव मे जड़ों का विकास ठीक से नहीं होता है। सबसे अधिक क्रियाशील द्वितीयक जड़े मरने लगती है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती है जिससे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया मन्द पड़ जाती है। गन्ने की उपज और सुक्रोज की मात्रा घट जाती है। अतः सिंचाई के साथ साथ गन्ने मे जल निकास भी आवश्यक है। गन्ना विकास हेतु आवश्यक है पौधो पर मिट्टी चढ़ाना गन्ने में खरपतवार नियंत्रण एवं अंकुरण बढ़ाने के उद्देश्य से गन्ने के अंकुरण से पहले ही खेत की गुड़ाई की जाती है जिसे अंधी गुड़ाई कहते है। इसका प्रमुख उद्देश्य वर्षा के पश्चात् मृदा पपड़ी को तोड़ना, कड़ी मिट्टी को ढीला करना, गन्ने के खुले टुकड़ों को ढँकना, खरपतवारों को नष्ट करना तथा सड़े - गले टुकड़ों को निकालकर अंकुरित गन्ने को बोना है। इससे ख्¨त में वायु संचार तथा मृदा नमी संरक्षण भी ह¨ता है । गुड़ाई का यह कार्य कुदाली अथवा बैल चालित कल्टीवेटर द्वारा किया जा सकता है।इसके बाद गन्ने को गिरने से बचाने के लिए दो बार गुड़ाई करके पौधों पर मिट्टी चढाना चाहिए। अप्रैल या मई माह में प्रथम बार व जून माह में दूसरी बार यह कार्य करना चाहिए। गुड़ाइयों से मिट्टी में वायु संचार, नमी धारण करने की क्षमता, खरपतवार नियंत्रण तथा कल्ले विकास मे प्रोत्साहन मिलता है। गन्ने के पौधो को सहारा भी देना है गन्ने की फसल को गिरने से बचाने हेतु जून - जुलाई में बँधाई की क्रिया की जाती है। इसमें गन्नों के झुड को जो कि समीपस्थ दो पंक्तियों में रहते हैं, आर - पार पत्तियों से बाँध देते है। गन्ने की हरी पत्तियों के समूह को एक साथ नहीं बाँधते है क्यांेकि इससे प्रकाश संश्लेषण बाधित होती है। लपेटने की क्रिया में एक - एक झुंड को पत्तियों के सहारे तार या रस्सी से लपेट देते है और बाँस या तार के सहारे तनों को खड़ा रखते है। यह खर्चीली विधि है। इसके लिए गुडीयत्तम की विधि सर्वोत्तम है। इस विधि में जब गन्ने के तने 75 - 150 सेमी. के हो जाते है तब नीचे की सूखी एवं हरी पत्तियों की सहायता से रस्सियाँ बांध ली जाती है और उन्हे गन्ने की ऊँचाई तक लपेट देते है। इससे गन्ने की कोमल किस्में फटती नहीं है। सहारा देना विधि से बाँधे या लपेटे हुए झुंडों को सहारा देने के लिए बाँस या तार का प्रयोग करते है। उपर्युक्त क्रियाओं से गन्ने का गिरना रूक जाता है और उपज में भी वृद्धि होती है। खरपतवारो को रखे काबू में शदरकालीन गन्ने का अंकुरण 3 - 4 सप्ताह में तथा बसन्तकालीन गन्ने का अंकुरण 4 - 5 सप्ताह में हो जाता है गन्ने की बुआई के 1 - 2 सप्ताह बाद एक प्रच्छन गुडाई करनी चाहिए। इससे अंकुरण शीघ्र हो जाती है तथा खरपतवार भी कम आते है। अंकुरण के 3 माह तक खरपतवार की सघनता के अनुसार 3 से 4 बार निंदाई करना आवश्यक है जिससे कल्ले ज्यादा बनतें है। शरदकालीन गन्ने में चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों (बथुआ, मटरी, अकर, कृष्णनील, मकोय आदि) की रोकथाम के लिए 2, 4-डी (80 प्रतिशत सोडियम साल्ट) 1 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 700 लीटर पानी में घोलकर बुआई से 25 -30 दिन बाद या खरपतवारों की 3-4 पत्ति अवस्था से पहले छिड़कना चाहिए। बसन्तकालीन गन्ने की फसल में सिमाजीन या एट्राजिन या एलाफ्लोर 2 किग्रा. प्रति हे. की दर से 700 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त बाद छिड़काव करना चाहिये। छिड़काव करते समय खेत में नमी होना आवश्यक है। गन्ने में कहीं-कहीं जड़ परीजीवी जैसे स्ट्राइगा (स्ट्राइगा ल्युटिया) से भी क्षति ह¨ती है । यह हल्के हरे रंग का 15-30 सेमी लम्बा पोधा होता है जो गन्ने की जड़ से पोषण लेता है । इसकी रोकथाम के लिए 2,4-डी (सोडियम साल्ट) 2.5 किग्रा. प्रति हेक्टर 2250 लिटर पानी में घ¨लकर छिड़कने से यह नष्ट ह¨ जाता है । इस परिजीवी की कम संख्या ह¨ने पर इसे उखाड़कर नष्ट किया जा सकता है । गन्ने के साथ साथ बोनस फासले भी गन्ना की खेती धान, गेहूँ, मक्का, ज्वार, आलू या सरसो के बाद की जाती है। शरदकालीन गन्ना के साथ आलू की सह फसली खेती में गन्ना की बुआई अक्टूूबर के प्रथम सप्ताह में कतारों में 90 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए। गन्ने की दो कतारों के बीच आलू की एक कतार पौधे की दूरी 15 से.मी. रखकर ब¨ना चाहिए। शरदकालीन गन्ना के साथ चना या मसूर की सह फसली खेती हेतु गन्ने की दो पंक्तियों के मध्य (90 सेमी.) चना या मसूर की 2 कतारें 30 सेमी. की दूरी पर बोना चाहिए। बसन्तकालीन गन्ना के साथ मूँग की सह फसली खेती में गन्ना की बुआई फरवरी में 90 से.मी. की दूरी पर करते है। गन्ने की दो पंक्तियों के मध्य मूँग या उड़द की दो कतारें 30 से.मी. की दूरी पर बोना चाहिए। मूँग व उड़द की बीज दर 7 - 8 किग्रा. प्रति हैक्टर रखते है। सही समय पर कटाई गन्ने की फसल 10 - 12 माह में पककर तैयार हो जाती है। गन्ना पकने पर इसके तने को ठोकने पर धातु जैसी आवाज आती है। गन्ने को मोड़ने पर गाँठों पर आसानी से टूटने लगता है। गन्ने की कटाई उस समय करनी चाहिए जब रस में सुक्रोज की मात्रा सर्वाधिक हो। गन्ने के रस में चीनीे की मात्रा (पकने का सही समय) हैण्डरिफ्रेक्ट्र¨मीटर से ज्ञात की जा सकती है। फसल की कटाई करते समय ब्रिक्स रिडिंग 17 - 18 के बीज में होना चाहिए या फिर पौधों के रस में ग्लूकोज 0.5 प्रतिशत से कम होने पर कटाई करना चाहिए। फेहलिंग घोल के प्रयोग से रस में ग्लूकोज का प्रतिशत ज्ञात किया जा सकता है। तापक्रम बढ़ने से सुक्रोज का परिवर्तन ग्लूकोज मे होने लगता है। गन्ना सबसे निचली गाँठ से जमीन की सतह में गंडासे से काटना चाहिए। कटाई के पश्चात् 24 घंटे के भीतर गन्ने की पिराई कर लें अथवा कारखाना भिजवाएँ क्योकि काटने के बाद गन्ने के भार में 2 प्रतिशत प्रतिदिन की कमी आ सकती है। साथ ही कारखाने में शक्कर की रिकवरी भी कम मिलती है। यदि किसी कारणवश गन्ना काटने के बाद रखना पड़े तो उसे छाँव में ढेर के रूप में रखें। हो सके तो, ढेर को ढँक दें तथा प्रतिदिन पानी का छिड़काव करें। अब मन बांक्षित उपज गन्ने की उपज मृदा, जलवायु, किस्म, सस्य प्रबन्धन पर निर्भर करती है। सामान्यतया औसतन 400 - 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गन्ना पैदा होता है। उचित प्रबंध होने पर 700 - 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। रस की गुणवत्ता उसमें उपलब्ध सुक्रोज की मात्रा से आँकी जाती है, जो गन्ने की किस्म, भूमि, जलवायु, कटाई काल तथा पेरे गये तने के भाग पर निर्भर करती है। प्रायः रस में 12 - 24 प्रतिशत तक सुक्रोज रहती है। जिन गन्नों में 18 -20 प्रतिशत तक सुक्रोज होती है उन्हे आदर्श माना जाता है। देशी विधि से 6-7 प्रतिशत तथा चीनी मिलों से 9 - 10 प्रतिशत शक्कर प्राप्त होती है। औसतन गन्ने के रस से 12 - 13 प्रतिशत गुड़, 18 - 20 प्रतिशत राब तथा 9 -11 प्रतिशत चीनी प्राप्त होती है। गन्ने में 13-24 प्रतिशत सुक्रोज तथा 3-5 प्रतिशत शीरा पाया जाता है। गन्ना के लिए उष्ण कटिबन्धीय जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। गन्ना बढ़वार के समय लंबी अवधि तक गर्म व नम मौसम तथा अधिक वर्षा का होना सर्वोत्तम पाया गया है। गन्ना बोते समय साधारण तापमान, फसल तैयार होते समय आमतौर पर शुष्क व ठण्डा मौसम, चमकीली धूप और पाला रहित रातें उपयुक्त रहती है। छत्तीसगढ़ क¨ प्रकृति ने ऐसी ही जलवायु से नवाजा है । गन्ने के अंकुरण के लिए 25-32 डि से. तापमान उचित रहता है। गन्ने की बुआई और फसल बढ़वार के लिए 20- 35 डि से. तापक्रम उपयुक्त रहता है। इससे कम या अधिक तापमान पर वृद्धि घटने लगती है। गन्ने की खेती उन सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है जहाँ वार्षिक वर्षा 75 - 120 सेमी. तक होती है। समय पर वर्षा न होने पर सिंचाई आवश्यक है। पानी की कमी होने पर गन्ने मे रेशे अधिक उत्पन्न होते हैं और अधिक वर्षा में शक्कर का प्रतिशत कम हो जाता है। गन्ने की विभिन्न अवस्थाओं के लिए आर्द्रता 56 - 87 प्रतिशत तक अनुकूल होती है। सबसे कम आर्द्रता कल्ले बनते समय एवं सबसे अधिक, गन्ने की वृद्धि के समय चाहिए। सूर्य के प्रकाश की अवधि एवं तापमान का गन्ने में सुक्रोज निर्माण पर अधिक प्रभाव पड़ता है। प्रकाश की उपस्थिति में कार्बोहाइड्रेट बनता है जिससे गन्ने के भार में वृद्धि होती है। लम्बे दिन तथा तेज चमकदार धूप से गन्ने में कल्ले अधिक बनते हैं। तेज हवाएँ गन्ने के लिए हानिकारक है क्योंकि इससे गन्ने गिर जाते हैं जिससे गन्ने की उपज और गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी गन्ने की खेती बलुई दोमट से दोमट और भारी मिट्टी मे सफलता पूर्वक की जा सकती है परंतु गहरी तथा उत्तम जल निकास वाली दोमट मृदा जिनकी मृदा अभिक्रिया 6.0 से 8.5 होती है, सर्वात्तम रहती है। उचित जल निकास वाली जैव पदार्थ व पोषक तत्वो से परिपूर्ण भारी मिट्टियो में भी गन्ने की खेती सफलतार्पूक की जा सकती है। अम्लीय मृदाएं इसकी खेती के लिए हांनिकारक होती है। गन्ने की पेड़ी लेने के कारण इसकी फसल लम्बे समय (2 - 3 वर्ष) तक खेत में रहती है । इसलिए खेत की गहरी जुताई आवश्यक है। खेत तैयार करने के लिए सबसे पहले पिछली फसल के अवशेष भूमि से हटाते है। इसके बाद जुताई की जाती है और जैविक खाद मिट्टी में मिलाते है। इसके लिए रोटावेटर उपकरण उत्तम रहता है। खरीफ फसल काटने के बाद खेत की गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से की जाती है । इसके बाद 2 - 3 बार देशी हल अथवा कल्टीवेटर से जुताई करने के पश्चात् पाटा चलाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा तथा खेत समतल कर लेना चाहिए। हल्की मिट्टियो की अपेक्षा भारी मिट्टी में अधिक जुताईयाँ करनी पड़ती है । बेहतर उपज के लिए अपनाएं उन्नत किस्में गन्ने की उपज क्षमता का पूर्ण रूप से दोहन करने के लिए उन्नत किस्मो के स्वस्थ बीज का उपयोग क्षेत्र विशेष की आवश्यकता के अनुरूप करना आवश्यक है। रोग व कीट मुक्त बीज नई फसल (नोलख फसल) से लेना चाहिए। गन्ने की पेड़ी फसल को बीज के रूप में प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। छत्तीसगढ. के लिए अनुमोदित गन्ने की नवीन उन्नत किस्मों की विशेषताएँ यहाँ प्रस्तुत है । 1.को -8371(भीम): यह किस्म नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त है । स्मट रोग रोधी, सूखा व जल जमाव सहनशील । इसकी उपज 117.7 टन प्रति हैक्टर तथा रस में 18.6 प्रतिषत शुक्रोस पाया जाता है । 2.को -85004 (प्रभा): शीघ्र तैयार ह¨ने वाली इस किस्म की उपज क्षमता 90.5 टन प्रति हैक्टर है तथा रस में 19.5 प्रतिशत शुक्रोस होता है । नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए यह उपयुक्त किस्म है । यह स्मट रोग रो धी , रेड रॉट से मध्यम प्रभावित, पेड़ी फसल हेतु उपयुक्त किस्म है। 3.को -86032 (नैना): मध्यम समय में तैयार ह¨ने वाली इस किस्म से 102 टन प्रति हैक्टर उपज प्राप्त ह¨ती है एवं रस में 20.1 प्रतिशत शुक्र¨स ह¨ता है । मैदानी क्षेत्रो में नवम्बर-जनवरी में लगाने हेतु उपयुक्त है । स्मट व रेड रॉट रोग रो धी होने के साथ साथ सूखा रोधी किस्म है जो पेड़ी फसल के लिए उपयुक्त है । 4 .को -87044 (उत्तरा): मध्य समय में तैयार होने वाली यह किस्म नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त है । उपज 101 टन प्रति हैक्टर तथा रस में शुक्र¨स 18.3 प्रतिशत । स्मट रोग मध्य अवरोधी तथा रेड रोट रोग से मध्य प्रभावित है। 5 .को -88121(कृष्ना):मध्य समय में तैयार होने वाली यह किस्म छत्तीसगढ में नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त किस्म है । उपज 88.7 टन तथा रस में 18.6 प्रतिषत शुक्रोश पाया जाता है । स्मट रोग रो धी, सूखा सहन यह किस्म गुड़ बनाने के लिए श्रेष्ठ है । पायरिल्ला प्रभावित क्षेत्रो के लिए: को. जेएन. 86 - 141 उपयुक्त है। गुड़ के लिए: को. जेएन. 86 - 141 (सूखा सहनशील), को जेएन. 86 - 572 (चूसने हेतु नरम), को. जेएन. 86 - 2072, को. 86032 (जड़ी फसल के लिए उत्तम), को. जेएन, 86 - 2087 उपयुक्त किस्म है। गन्ने की अन्य प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ किस्म का शक्कर अवधि गन्ना पैदावार नाम (माह) (टन/हे.) को. जेएन. 86 - 141 21.10 10 - 12 90 - 100 को. जेएन. 86 - 572 20.01 10 - 12 90 - 110 को. 7314 18.80 10 - 12 90 - 100 को. जेएन. 86 - 2072 19.90 10 - 12 90 - 100 को. 7219 18.16 12 - 14 100 - 120 को. 86032 17.18 12 - 14 110 - 120 को. 7318 18.16 12 - 14 100 - 120 को. 6304 18.80 12 - 14 100 - 120 को. जेएन. 86 - 600 19.06 12 - 14 100 - 120 को. जेएन. 86 - 2087 19.04 12 - 14 100 - 120 को. पंत 90 - 223 18.02 12 - 14 100 - 120 को. पंत 92 - 227 18.03 12 - 14 100 - 120 गन्ना बोआई-रोपाई का समय गन्ने की बुआई के समय वातावरण का तापमान 25 - 32 डिग्री से.गे. अच्छा माना जाता है। भारत के उत्तरी राज्यों में इतना तापमान वर्ष में दो बार रहता है - एक बार अक्टूबर-नवम्बर में तथा दूसरी बार फरवरी-मार्च में। अतः इन दोनों ही समय पर गन्ना बोया जा सकता है। भारत में गन्ने की बुआई शरद ऋतु (सितम्बर - अक्टूबर), बसन्त ऋतु (फरवरी - मार्च) एवं वर्षा ऋतु (जुलाई) में की जाती है।छत्तीसगढ़ में शरद व बसंत ऋतु में ही गन्ना ब¨या जाना लाभप्रद है । 1. शरद कालीन बुआई: वर्षा ऋतु समाप्त होते ही शरद कालीन गन्ना लगाया जाता है। गन्ना लगाने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर - नवम्बर रहता है। देर से बुआई करने पर तापक्रम घटने लगता है, फलस्वरूप अंकुरण कम होता है और उपज में कमी आ जाती है। फसल वृद्धि के लिए लम्बा समय, भूमि में नमी का उपयुक्त स्तर और प्रारम्भिक बढ़वार के समय अनुकूल मौसम मिलने के कारण शरद ऋतु की बुआई से 15-20 प्रतिशत अधिक उपज और रस में शक्कर की मात्रा ज्यादा प्राप्त होती है। 2. बसंत कालीन बुआई: रबी फसलों की कटाई के बाद बसंत कालीन गन्ने की बुआई फरवरी - मार्च मे की जाती है। भारत मे लगभग 85 प्रतिशत क्षेत्र में गन्ने की बुआई इसी ऋतु में की जाती है। इस समय बोई गई गन्ने की फसल को 4 - 5 माह का वृद्धि काल ही मिल पाता है और चरम वृद्धि काल के दौरान फसल को नमी की कमी और अधिक तापक्रम तथा गर्म हवाओं का सामना करना पड़ता है जिससे शरद कालीन बुआई की अपेक्षा बसंतकालीन गन्ने से उपज कम प्राप्त होती है। कैसा हो गन्ने का बीज उत्तर भारत मे गन्ने की फसल मे बीज नहीं बनते है। अतः गन्ने की बुआई वानस्पतिक प्रजनन (तने के टुकड़ों) विधि से की जाती है। गन्ना बीज चयन एवं बीज की तैयारी से सम्बन्धित निम्न बातें ध्यान में रखना आवश्यक है। 1. बीज के लिए गन्ने का भाग अपरिपक्व गन्ने अथवा गन्ने के ऊपरी भाग का प्रयोग बीज के लिए करना चाहिए । वस्तुतः गन्ने के ऊपरी हिस्से से लिये गये बीज शीघ्र अंकुरित हो जाते है, जबकि निचले भाग से लिए गए टुकड़े देर से जमते है, क्योंकि ऊपरी भाग की आँखे ताजी एवं स्वस्थ होने के कारण शीघ्र जम जाती है, जबकी निचले भाग की पुरानी आँख पर एक कठोर परत जम जाती है जो अंकुरण में बाधक होती है। गन्ने के ऊपरी 1/3 हिस्से में घुलनशील नत्रजन युक्त पदार्थ, नमी तथा ग्लूकोज की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है जिससे गन्ने के टुकड़ो को अंकुरण के लिए तुरन्त शक्ति मिल जाती है और जमाव शीघ्र हो जाता है। गन्ने के निचले हिस्से में सुक्रोज (जटिल अवस्था में) होने से देर में अंकुरण होता है। इसके अलावा ऊपरी भाग में पोर छोटे होते है। इसलिए पंक्ति की प्रति इकाई लम्बाई में अपेक्षाकृत अधिक कलियाँ पाई जा सकती है और इस प्रकार रिक्त स्थान होने की संभावना कम हो जाती है। फूल आने के बाद गन्ना का प्रयोग बुआई के लिए नहीं करना चाहिए क्योंकि गन्ने में पिथ बनने के कारण अंकुरित होने वाले भाग में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। 2. गन्ने को टुकड़ों में काटकर बोना गन्ना के पूरे तने को न बोकर इसको काटकर (2 - 3 आँख वाले टुकड़े) छोटे - छोटे टुकड़ों में बोया जाता है। क्योकि गन्ने के पौधे या तने में शीर्ष सुषुप्तावस्था पाई जाती है। यदि पूरा गन्ना बगैर काटे बो दिया जाता है, तो उसका ऊपरी हिस्सा तो अंकुरित हो जाता है परन्तु नीचे वाला भाग नहीं जमता। गन्ने के पेड़ में कुछ ऐसे हार्मोन्स भी पाये जाते है जो पौधें में ऊपर से नीचे की और प्रवाहित होते है तथा इन हार्मोन्स का प्रभाव नीचे की आँख के ऊपर प्रतिकूल पड़ता है। कुछ हार्मोन्स गन्ने की आँख या कली को विकसित होने से रोकते है । गन्ने को टुकड़ो में काट कर बोने से इन हार्मोन्स का प्रवाह रूक जाता है। जिससे प्रत्येक आँख अपना कार्य सही ढंग से करने लगती है। इसके अलावा गन्ने को टुकड़ों में काटने से कटे हुए हिस्सों से पानी एवं खनिज लवण शीघ्र प्रवेश कर जाते है, जो शीघ्र अंकुरण में सहायक होते है। 3. गन्ने के टुकड़ो को सीधा नहीं तिरछा काटा जाए बीज के लिए गन्ने के टुकड़ो को हमेशा तिरछा काटा जाना चाहिए क्योंकि सीधा काटने से गन्ना फट जाता है जिससे उनसे काफी रस निकल जाता है और बीज में कीट-रोग लगने की संभावना भी बढ़ जाती है। तिरछा काटने से गन्ना फटता नहीं है और उसका जल-लवण अवशोषण क्षेत्र भी बढ़ जाता है। शीघ्र अंकुरण के लिए टुकड़ो का अधिक अवशोषण क्षेत्र सहायक होता है। सीधा काटने से कटा क्षेत्र कम रहता है अर्थात् अवशोषण क्षेत्र समिति होता है।बोआई के लिए गन्ने के तीन आँख वाले टुकड़े सर्वोत्तम माने जाते है, परन्तु आमरतोर पर अब दो आँख वाले टुकडे का प्रयोग होने लगा है । सही हो बीज बोने की दर गन्ने की बीज दर टुकड़े के अंकुरण प्रतिशत, गन्ने की किस्म, बोने के समय आदि कारको पर निर्भर करती है। सामान्यतौर पर गन्ने की 50-60 प्रतिशत कलिकायें ही अंकुरित होती है। नीचे की आँखें अपेक्षाकृत कम अंकुरित होती है। बोआई हेतु मोटे गन्ने की मात्रा अधिक एवं पतले गन्ने की मात्रा कम लगती है। शरदकालीन ब¨आई में गन्ने में अंकुरण प्रतिशत अधिक होता है। अतः बीज की मात्रा भी कम लगती है। बसंतकालीन गन्ने में कम अंकुरण होने के कारण अपेक्षाकृत अधिक बीज लगता है। एक हेक्टेयर ब¨आई के लिए तीन कलिका वाले 35,000 - 40,000 (75 - 80 क्विंटल ) तथा दो कलिका वाले 40,000 - 45,000 (80 - 85 क्विंटल ) टुकड़ों की आवश्यकता पड़ती है। इन टुकड़ों को आँख - से - आँख या सिरा - से - सिरा मिलाकर लगाया जाता है। गन्ने के टुकड़ों को 5 - 7 सेमी. गहरा बोना चाहिए तथा कलिका के ऊपर 2.5 से. मी. मिट्टी चढ़ाना चाहिए। बीज उपचार से फसल सुरक्षा फसल को रोगो से बचाव हेतु गन्ने के टुकड़ो को एमीसान नामक कवकनाशी की 250 ग्राम मात्रा को 200 लीटर पानी के घोल में 5 से 10 मिनट तक डुबाना चाहिये। इस दवा के न मिलने पर 600 ग्राम डायथेन एम - 45 का प्रयोग करना चाहिए । रस चूसने वाले कीड़ो की रोकथाम के लिए उक्त घोल में 500 मि. ली. मेलाथियान कीटनाशक मिला लेना चाहिए। गन्ने के टुकड़ों को लगाने के पूर्व मिट्टी के तेल व कोलतार के घोल अथवा क्लोर¨पायरीफाॅस दवा को 2.5 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर गन्ना बीज के टुकड़ों के किनारों को डुबाकर उपचारित करने से दीमक आदि भूमिगत कीटो का प्रकोप कम हो जाता है। अच्छे अंकुरण के लिए बीजोपचार से पूर्व गन्ने के बीजू टुकड़ों को 24 घन्टे तक पानी में डुबाकर रखना चाहिए। गन्ना कारखाने में उपलब्ध नम - गर्म हवा संयंत्र में (54 डि. से. पर 4 घंटे तक) गन्ने के टुकड़ों को उपचारित करने पर बीज निरोग हो जाता है। गन्ना लगाने की विधियाँ गन्ने की बुवाई सूखी या पलेवा की हुई गीली दोनो प्रकार की भूमि पर की जाती है । सूखी भूमि में पोरिया (गन्ने के टुकड़े) डालने के तुरन्त बाद सिंचाई की जाती है । गीली बुवाई में पहले पानी नालियो या खाइयो में छोड़ा जाता है और फिर गीली भूमि में पोरियो को रोपा जाता है । गन्ने की बुआई भूमि की तैयारी , गन्ने की किस्म, मिट्टी का प्रकार, नमी की उपलब्धता, बुआई का समय आदि के अनुसार निम्न विधियों से की जाती है: 1. समतल खेत में गन्ना बोना: इसमें 75 - 90 सेमी. की क्रमिक दूरी पर देशी हल या हल्के डबल मोल्ड बोर्ड हल से 8 - 10 सेमी. गहरे कूँड़ तैयार किये जाते है। इन कूडों में गन्ने के टुकड़ों की बुआई (एक सिरे से दूसरे सिरे तक) करके पाटा चलाकर मिट्टी से 5-7 सेमी. मिट्टी से ढंक दिया जाता है। आज कल ट्रेक्टर चालित गन्ना प्लांटर से भी बुआई की जाती है। 2. कूँड़ में गन्ना बोनाः इस विधि मे गन्ना रिजर द्वारा उत्तरी भारत में 10 - 15 सेमी. गहरे कूँड़ तथा दक्षिण भारत मे 20 सेमी. गहरे कूँड़ तैयार किये जाते है। गन्ने के टुकड़ों को एक - दूसरे के सिरे से मिलाकर इन कूँड़¨ में बोकर ऊपर से 5-7 सेमी. मिट्टी चढ़ा देते है । इस विधि में बुवाई के तुरन्त बाद पानी दे दिया जाता है, पाटा नहीं लगाया जाता । 3. नालियों में गन्ना बोना: गन्ने की अधिकतम उपज लेने के लिए यह श्रेष्ठ विधि है ।गन्ने की बुआई नालियों में करने के लिए 75 - 90 सेमी. की दूरी पर 20 - 25 सेमी. गहरी एवं 40 सेमी. चौड़ी नालियाँ बनाई जाती है। सामान्यतः 40 सेमी. की नाली और 40 सेमी. की मेढ़ बनाते है। गन्ने के टुकड़ों को नालियों के मध्य में लगभग 5 - 7 सेमी. की गहराई पर बोते है तथा कलिका के ऊपर 2.5 सेमी. मिट्टी होना आवश्यक है। प्रत्येक गुड़ाई के समय थोड़ी सी मिट्टी मेढ़ो की नाली में गिराते रहते है। वर्षा आरम्भ होने तक मेढ़ो की सारी मिट्टी नालियों में भर जाती है और खेत समतल हो जाता है। वर्षा आरंभ हो जाने पर गन्ने में नत्रजन की टापड्रेसिंग करके जड़ों पर मिट्टी चढ़ा देते हैं। इस प्रकार मेढ़ों के स्थान पर नालियाँ और नालियों के स्थान पर मेढ़ें बन जाती हैं। इन नालियों द्वारा जल निकास भी हो जाती है। इस विधि से गन्ना लगाने के लिए ट्रेक्टर चालित गन्ना प्लान्टर यंत्र सबसे उपयुक्त रहता है। नालियो में गन्ने की रोपनी करने से फसल गिरने से बच जाती है । खाद एवं पानी की बचत होती है । गन्ने की उपज में 5-10 टन प्रति हैक्टर की वृद्धि होती है । गन्ना नहीं गिरने से चीनी की मात्रा में भी वृद्धि पायी जाती है । 4. गन्ना बोने की दूरवर्ती रोपण विधि (स्पेस ट्रांस्प्लान्टिंग): यह विधि भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित की गई है । इसमें 50 वर्ग मीटर क्षेत्र में (1 वर्ग मीटर की 50 क्यारियाँ) पोधशाला बनाते हैं। इनमें एक आँख वाले 600 - 800 टुकड़ें लगाते हैं। इसमें सिर्फ 20 क्विंटल ही बीज लगता है। बीज हेतु गन्ने के ऊपरी भाग का ही प्रयोग करना चाहिए। क्यारियों में नियमित रूप से सिंचाई करें। बीज लगाने के 25 - 30 दिन बाद (3 - 4 पत्ती अवस्था) पौध को मुख्य खेत में रोपना चाहिए। इस विधि से गन्ना लगाने हेतु पौध स्थापित होने तक खेत में नमी रहना आवश्यक है। इस विधि से बीज की बचत होती है। खेत में पर्याप्त गन्ना (1.2 लाख प्रति हे.) स्थापित होते हैं। फसल में कीट-रोग आक्रमण कम होता है। परंपरागत विधियों की अपेक्षा लगभग 25 प्रतिशत अधिक उपज मिलती है। 5. गन्ना बोने की दोहरी पंक्ति विधिः भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित गन्ना लगाने की यह पद्धति अच्छी उपजाऊ एवं सिंचित भूमियो के लिए उपयुक्त रहती है । दोहरी पंक्ति विधि में गन्ने के दो टुकड़ो को अगल-बगल बोया जाता है जिससे प्रति इकाई पौध घनत्व बढ़ने से पैदावार में 25-50 प्रतिशत तक बढोत्तरी होती है । अधिकतम उपज के लिए खाद एवं उर्वरक गन्ने की 100 टन प्रति हे. उपज देने वाली फसल भूमि से लगभग 208 किलो नत्रजन, 53 किलो फास्फोरस तथा 280 किलो पोटाश ग्रहण करती है। अतः वांक्षित उत्पादन के लिए गन्ने में खाद एवं उर्वरको को सही एवं संतुलत मात्रा में देना आवश्यक रहता है । खेत की अंतिम जुताई के पूर्व 10-12 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी गोबर की खाद भूमि में मिला दें। यदि मिट्टी परीक्षण नहीं किया गया है तो प्रति हे. 120 - 150 किग्रा. नत्रजन, 80 किग्रा. स्फुर व 60 किग्रा. पोटाश की अनुशंसा की जाती है। यदि भूमि मे जस्ते की कमी हो तो 20 से 25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हे. गन्ना लगाते समय देना चाहिए । बसन्तकालीन फसल में नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फूर और पोटाश की पूरी मात्रा गन्ना लगाने के समय कूँड़ में डालें । नत्रजन की शेष मात्रा बआई के 80 - 90 दिन बाद दी जाना चाहिए । शरदकालीन गन्ने में भी नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फूर और पोटाश की पूरी मात्रा गन्ना लगाने के समय कूँड़ में डालें। नत्रजन की शेष मात्रा बुआई के 110 - 120 दिन बाद दी जानी चाहिए। पोषक तत्वो की कुल आवश्यकता का एक तिहाई हिस्सा गोबर की खाद या कम्पोस्ट द्वारा तथा शेष दो तिहाई भाग रसायनिक उर्वरक के रूप मे देने से गन्ने के उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि होती है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति में सुधार होता है। इस तरह उर्वरकों का प्रयोग करने पर अधिक लाभ व उत्पादन मिलता है। समय पर सिंचाई और जल निकासी गन्ने की फसल को जीवन काल में 200-300 सेमी. पानी की आवश्यकता होती है। फसल की जलमांग क्षेत्र, मृदा का प्रकार, किस्म, बुआई का समय और बोने की विधि पर निर्भर करती है। गन्ने की विभिन्न अवस्थाओं में जल माँग को निम्नानुसार विभाजित किया गया है - फसल अवस्थाएँ समय (दिन) जलमाँग (सेमी. 1. अंकुरण बुआई से 45 30 2. कल्ले बनने की अवस्था 45 से 120 55 3. वृद्धि काल 120 से 270 100 4. पकने की अवस्था 270 से 360 65 गन्ने में सर्वाधिक पानी की माग बुआई के 60 दिन से लेकर 250 दिन तक होती है। फसल में प्रति सिंचाई 5-7 सेमी. पानी देनी चाहिए। गर्मी में 10 दिन व शीतकाल में 15 से 20 के अंतर से सिंचाई करें। मृदा में उपलब्ध नमी 50 प्रतिशत तक पहुचते ही गन्ने की फसल में सिंचाई कर देनी चाहिए। शरदकालीन फसल के लिए औसतन 7 सिंचाईयाँ (5 मानसून से पहले व 2 मानसून के बाद) और बसन्तकालीन फसल के लिए 6 सिंचाईयों की आवश्यकता पड़ती है। पानी की कमी वाली स्थिति में गरेडों में सूखी पत्तियाँ बिछाने से सिंचाई संख्या कम की जा सकती हैं। खेत को छोटी-छोटी क्योरियों में बाँटकर नालियों मे सिंचाई करना चाहिए। फव्वारा विधि से सिंचाई करने से पानी बचत होती है तथा उपज में भी बढोत्तरी होती है। वर्षा ऋतु में मृदा मे उचित वायु संचार बनाये रखने के लिए जल - निकास का प्रबन्ध करना अति आवश्यक ह। इसके लिए नाली में बोये गये गन्ने की नालियों को बाहरी जलनिकास नाली से जोड़ देना चाहिए। जल निकास के अभाव मे जड़ों का विकास ठीक से नहीं होता है। सबसे अधिक क्रियाशील द्वितीयक जड़े मरने लगती है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती है जिससे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया मन्द पड़ जाती है। गन्ने की उपज और सुक्रोज की मात्रा घट जाती है। अतः सिंचाई के साथ साथ गन्ने मे जल निकास भी आवश्यक है। गन्ना विकास हेतु आवश्यक है पौधो पर मिट्टी चढ़ाना गन्ने में खरपतवार नियंत्रण एवं अंकुरण बढ़ाने के उद्देश्य से गन्ने के अंकुरण से पहले ही खेत की गुड़ाई की जाती है जिसे अंधी गुड़ाई कहते है। इसका प्रमुख उद्देश्य वर्षा के पश्चात् मृदा पपड़ी को तोड़ना, कड़ी मिट्टी को ढीला करना, गन्ने के खुले टुकड़ों को ढँकना, खरपतवारों को नष्ट करना तथा सड़े - गले टुकड़ों को निकालकर अंकुरित गन्ने को बोना है। इससे ख्¨त में वायु संचार तथा मृदा नमी संरक्षण भी ह¨ता है । गुड़ाई का यह कार्य कुदाली अथवा बैल चालित कल्टीवेटर द्वारा किया जा सकता है।इसके बाद गन्ने को गिरने से बचाने के लिए दो बार गुड़ाई करके पौधों पर मिट्टी चढाना चाहिए। अप्रैल या मई माह में प्रथम बार व जून माह में दूसरी बार यह कार्य करना चाहिए। गुड़ाइयों से मिट्टी में वायु संचार, नमी धारण करने की क्षमता, खरपतवार नियंत्रण तथा कल्ले विकास मे प्रोत्साहन मिलता है। गन्ने के पौधो को सहारा भी देना है गन्ने की फसल को गिरने से बचाने हेतु जून - जुलाई में बँधाई की क्रिया की जाती है। इसमें गन्नों के झुड को जो कि समीपस्थ दो पंक्तियों में रहते हैं, आर - पार पत्तियों से बाँध देते है। गन्ने की हरी पत्तियों के समूह को एक साथ नहीं बाँधते है क्यांेकि इससे प्रकाश संश्लेषण बाधित होती है। लपेटने की क्रिया में एक - एक झुंड को पत्तियों के सहारे तार या रस्सी से लपेट देते है और बाँस या तार के सहारे तनों को खड़ा रखते है। यह खर्चीली विधि है। इसके लिए गुडीयत्तम की विधि सर्वोत्तम है। इस विधि में जब गन्ने के तने 75 - 150 सेमी. के हो जाते है तब नीचे की सूखी एवं हरी पत्तियों की सहायता से रस्सियाँ बांध ली जाती है और उन्हे गन्ने की ऊँचाई तक लपेट देते है। इससे गन्ने की कोमल किस्में फटती नहीं है। सहारा देना विधि से बाँधे या लपेटे हुए झुंडों को सहारा देने के लिए बाँस या तार का प्रयोग करते है। उपर्युक्त क्रियाओं से गन्ने का गिरना रूक जाता है और उपज में भी वृद्धि होती है। खरपतवारो को रखे काबू में शदरकालीन गन्ने का अंकुरण 3 - 4 सप्ताह में तथा बसन्तकालीन गन्ने का अंकुरण 4 - 5 सप्ताह में हो जाता है गन्ने की बुआई के 1 - 2 सप्ताह बाद एक प्रच्छन गुडाई करनी चाहिए। इससे अंकुरण शीघ्र हो जाती है तथा खरपतवार भी कम आते है। अंकुरण के 3 माह तक खरपतवार की सघनता के अनुसार 3 से 4 बार निंदाई करना आवश्यक है जिससे कल्ले ज्यादा बनतें है। शरदकालीन गन्ने में चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों (बथुआ, मटरी, अकर, कृष्णनील, मकोय आदि) की रोकथाम के लिए 2, 4-डी (80 प्रतिशत सोडियम साल्ट) 1 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 700 लीटर पानी में घोलकर बुआई से 25 -30 दिन बाद या खरपतवारों की 3-4 पत्ति अवस्था से पहले छिड़कना चाहिए। बसन्तकालीन गन्ने की फसल में सिमाजीन या एट्राजिन या एलाफ्लोर 2 किग्रा. प्रति हे. की दर से 700 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त बाद छिड़काव करना चाहिये। छिड़काव करते समय खेत में नमी होना आवश्यक है। गन्ने में कहीं-कहीं जड़ परीजीवी जैसे स्ट्राइगा (स्ट्राइगा ल्युटिया) से भी क्षति ह¨ती है । यह हल्के हरे रंग का 15-30 सेमी लम्बा पोधा होता है जो गन्ने की जड़ से पोषण लेता है । इसकी रोकथाम के लिए 2,4-डी (सोडियम साल्ट) 2.5 किग्रा. प्रति हेक्टर 2250 लिटर पानी में घ¨लकर छिड़कने से यह नष्ट ह¨ जाता है । इस परिजीवी की कम संख्या ह¨ने पर इसे उखाड़कर नष्ट किया जा सकता है । गन्ने के साथ साथ बोनस फासले भी गन्ना की खेती धान, गेहूँ, मक्का, ज्वार, आलू या सरसो के बाद की जाती है। शरदकालीन गन्ना के साथ आलू की सह फसली खेती में गन्ना की बुआई अक्टूूबर के प्रथम सप्ताह में कतारों में 90 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए। गन्ने की दो कतारों के बीच आलू की एक कतार पौधे की दूरी 15 से.मी. रखकर ब¨ना चाहिए। शरदकालीन गन्ना के साथ चना या मसूर की सह फसली खेती हेतु गन्ने की दो पंक्तियों के मध्य (90 सेमी.) चना या मसूर की 2 कतारें 30 सेमी. की दूरी पर बोना चाहिए। बसन्तकालीन गन्ना के साथ मूँग की सह फसली खेती में गन्ना की बुआई फरवरी में 90 से.मी. की दूरी पर करते है। गन्ने की दो पंक्तियों के मध्य मूँग या उड़द की दो कतारें 30 से.मी. की दूरी पर बोना चाहिए। मूँग व उड़द की बीज दर 7 - 8 किग्रा. प्रति हैक्टर रखते है। सही समय पर कटाई गन्ने की फसल 10 - 12 माह में पककर तैयार हो जाती है। गन्ना पकने पर इसके तने को ठोकने पर धातु जैसी आवाज आती है। गन्ने को मोड़ने पर गाँठों पर आसानी से टूटने लगता है। गन्ने की कटाई उस समय करनी चाहिए जब रस में सुक्रोज की मात्रा सर्वाधिक हो। गन्ने के रस में चीनीे की मात्रा (पकने का सही समय) हैण्डरिफ्रेक्ट्र¨मीटर से ज्ञात की जा सकती है। फसल की कटाई करते समय ब्रिक्स रिडिंग 17 - 18 के बीज में होना चाहिए या फिर पौधों के रस में ग्लूकोज 0.5 प्रतिशत से कम होने पर कटाई करना चाहिए। फेहलिंग घोल के प्रयोग से रस में ग्लूकोज का प्रतिशत ज्ञात किया जा सकता है। तापक्रम बढ़ने से सुक्रोज का परिवर्तन ग्लूकोज मे होने लगता है। गन्ना सबसे निचली गाँठ से जमीन की सतह में गंडासे से काटना चाहिए। कटाई के पश्चात् 24 घंटे के भीतर गन्ने की पिराई कर लें अथवा कारखाना भिजवाएँ क्योकि काटने के बाद गन्ने के भार में 2 प्रतिशत प्रतिदिन की कमी आ सकती है। साथ ही कारखाने में शक्कर की रिकवरी भी कम मिलती है। यदि किसी कारणवश गन्ना काटने के बाद रखना पड़े तो उसे छाँव में ढेर के रूप में रखें। हो सके तो, ढेर को ढँक दें तथा प्रतिदिन पानी का छिड़काव करें। अब मन बांक्षित उपज गन्ने की उपज मृदा, जलवायु, किस्म, सस्य प्रबन्धन पर निर्भर करती है। सामान्यतया औसतन 400 - 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गन्ना पैदा होता है। उचित प्रबंध होने पर 700 - 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। रस की गुणवत्ता उसमें उपलब्ध सुक्रोज की मात्रा से आँकी जाती है, जो गन्ने की किस्म, भूमि, जलवायु, कटाई काल तथा पेरे गये तने के भाग पर निर्भर करती है। प्रायः रस में 12 - 24 प्रतिशत तक सुक्रोज रहती है। जिन गन्नों में 18 -20 प्रतिशत तक सुक्रोज होती है उन्हे आदर्श माना जाता है। देशी विधि से 6-7 प्रतिशत तथा चीनी मिलों से 9 - 10 प्रतिशत शक्कर प्राप्त होती है। औसतन गन्ने के रस से 12 - 13 प्रतिशत गुड़, 18 - 20 प्रतिशत राब तथा 9 -11 प्रतिशत चीनी प्राप्त होती है। गन्ने में 13-24 प्रतिशत सुक्रोज तथा 3-5 प्रतिशत शीरा पाया जाता है।