चकवड़ पवाड़ की उपयोगी औषधीय फसल

चिरोटा या चक्रमर्द हिन्दुस्तान के हर प्रांतों में भरपूर देखा जा सकता है। खेत- खलिहानों, मैदानी भागों, सड़क के किनारे और जंगलों में प्रचुरता से पाए जाने वाले इस पौधे में अनेक औषधीय गुणों की भरमार है हालांकि इसे किसी खरपतवार से कम नही माना जाता है। इसका वानस्पतिक नाम केस्सिया टोरा है। चकवड़ को पवाड़,पमाड, पवाँर, जकवड़ आदि नामों से पुकारा जाता है। संस्कृत- चक्रमर्द। हिन्दी-पवाड़, पवाँर, चकवड़। मराठी- टाकला। गुजराती- कुवाड़ियों। बंगला- चाकुन्दा। तेलुगू- तागरिस। तामिल- तगरे। मलयालम- तगर। फरसी- संग सबोया। इंगलिश- ओवल लीव्ड केशिया।

वर्षा ऋतु की पहली फुहार पड़ते ही इसके पौधे खुद उग आते हैं और गर्मी के दिनों में जो-जो जगह सूखकर खाली हो जाती है, वह घास और पवाड़ के पौधे से भरकर हरी-भरी हो जाती है। इसके पत्ते अठन्नी के आकार के और तीन जोड़े वाले होते हैं।इसकी फलियाँ पतली व गोल होती हैं।

चक्रमर्द को उगानें के लिए विशेष प्रकार की जलवायु या मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती है यह प्राय  इसके पौधे खुद उग आते हैं  इसके पत्ते मैथी के पत्तों जैसे होते हैं। इसी से मिलता-जुलता एक पौधा और होता है, जिसे कासमर्द या कसौंदी कहते हैं। यह पौधा चक्र मर्द से थोड़ा छोटा होता है और इसकी फलियाँ पतली व गोल होती हैं। यह खाँसी के लिए बहुत गुणकारी होता है, इसलिए इसे कासमर्द यानी कास (खाँसी) का शत्रु कहा जाता  है।

इसकी खेती के लिए न तो पूँजी आवश्यकता है न किसी प्रकार की लागत आती है चक्रमर्द को उगानें के लिए इसके बीजों को खेत में बखेर दिया जाता है किसी प्रकार की उर्वरक की आवश्यकता नही होती है 

उपयोग 

आदिवासी अंचलों में इसकी पत्तियों का उपयोग भाजी के तौर पर भी होता है और ऐसा माना जाता है कि यह भाजी अत्यधिक पौष्टिक होती है और इसे आदिवासी रसोई में भाजी के तौर पर पकाया और बड़े चाव से खाया जाता है।

 दूधिया कमरदर्द, चकवड़ से फोड़ा-फुंसी, खांसी, दमा और प्रसूति की बीमारी के लिए अडूसा रामबाण दवा है। कुष्ठ रोग दूर करने में सहायक ममीरी व चवन्नी घास और रक्त शोधन में वराही का इस्तेमाल किया जाता है,

 दाद-खाज और खुजली की समस्या हो तो चिरोटा के बीजों को पानी में कुचलकर रोग-ग्रस्त अंग पर लगाने से फायदा होता है।

पीलिया होने पर डांग गुजरात के हर्बल जानकार चिरोटा की पत्तियों और बीजों का काढ़ा रोगी को देते है। लगभग 50 ग्राम पत्तियों को 2 कप पानी में उबाला जाता है, जब पानी एक कप शेष बचता है तो इसे छानकर रोगियों को दिया जाता है। माना जाता है कि पीलिया जल्द ही ठीक हो जाता है।

पातालकोट के आदिवासी मुर्गी के अंडों से एल्बूमिन (अंडे के अंदर का चिपचिपा तरल पदार्थ) के साथ पत्तियों को अच्छी तरह से फेंट कर टूटी हुयी हड्डियों के ऊपर प्लास्टर की तरह लगाते है, इनका मानना है कि ये हड्डियों को जोडऩे का कार्य करता है।

पत्तियों के काढे को दांतों पर लगाने और इसी काढे से कुल्ला करने से से दांतों की समस्या जैसे दांत दर्द, मसूड़ों से खून आना आदि शिकायत में आराम मिलता है।
 लगभग 10 ग्राम बीजों को एक कप पानी में उबालकर काढा तैयार कर बच्चों को देने से पेट के कृमि मर जाते हैं और शौच के साथ बाहर निकल आते हैं।

खेती में जैविक प्रयोग 

इसका प्रयोग सामान्यता हरी खाद के रूप में किया जाता है इसमें नाइट्रोजन , पोटाश , प्रोटीन की भरपूर मात्रा होती है 

यह सब्जियों पर वायरस , इल्ली , झोका ,चित्ता रोग आने पर गौमूत्र नीम की पत्ती ,तम्बाकू के साथ प्रयोग करने से उत्तम रूप का कीटनाशक का कार्य करता है 

इसका बाजार में मूल्य लगभग 4000 - 5000 रु. किलो तक है 

अमर कान्त 

लेखक एक उन्नतशील किसान है 

 

जैविक खेती: