हरी खाद - प्रयोग की विधि व लाभ

मिटटी की उर्वरा शकित, जीवाणुओं की मात्रा एवं क्रियाशीलता पर निर्भर रहती है क्योकिं बहुत सी रसयानिक क्रियाओं के लिए सूक्ष्मजीवों की आवश्यकता रहती है। जीवित व सक्रिय मृदा वही कहलाती है जिसमें अधिक से अधिक जीवांश हो। जीवाणुओं का भोजन प्राय: कार्बनिक पदार्थ ही होते है। इनकी अधिकता से मृदा की उर्वरा शकित पर प्रभाव पड़ता है। केवल कार्बनिक खादों जैसे गोबर खाद, हरी खाद, जीवाणु खाद द्वारा ही स्थायी रूप से मृदा की क्रियाओं को बढ़ाया जा सकता है जिसमें हरी खाद प्रमुख है। इस क्रिया में अधिकांशत: हरे दलहनी पौधों के वानस्पतिक सामग्री को उसी खेत में उगाकर मिटटी में मिला देते है।

हरीखाद फसल के आवश्यक गुण

1  फसल में वानस्पतिक भाग अधिक व तेजी से बढ़ने वाली हो।

2  फसलों की वानस्पतिक भाग मुलायम और बिना रेशे वाली हो ताकी जल्दी से मिटटी मे मिल जायें।

3  फसलों की जड़े गहरी हो ताकी नीचे की मिटटी को भुरभुरी बना सके और नीचे की मिटटी के पोषक तत्व उपरी सतह पर इकटठा हो।

4  फसलों की जड़ो में अधिक ग्रंथियां हो ताकि वायु के नाइट्रोजन को अधिक मात्रा में सिथरीकरण कर सकें।

5 फसलों का उत्पादन खर्च कम हो तथा प्रतिकुल अवस्था जैसे अधिक ताप] वर्षा इत्यादि के प्रति सहनशील हो।

हरी खाद उगाने की विधि :-

सिंचित अवस्था में मानसून आने के 15 से 20 दिन पूर्व या असिंचित अवस्था में मानसून आने के तुरंत बाद खेत अच्छी प्रकार से तैयार कर हरीखाद की फसल के बीज बोना चाहिए। हरीखाद बोने के समय 80 कि.ग्रा. नत्रजन तथा 40-60 कि.ग्रा/हे. सल्फर देना चाहिए। इसके बाद जो दूसरी फसल लेनी हो उसमें सल्फर की मात्रा देने की आवश्यकता नहीं होती। तथा नत्रजन में भी 50 प्रतिशत तक की बचत की जा सकती है। जब फसल की बढ़वार अच्छी हो गयी हो तथा फूल आने के पूर्व इसे हल या डिस्क हैरो द्वारा खेत में पलट कर पाटा चला देना चाहिए। यदि खेत में 5-6 सें.मी. पानी भरा रहता है तो पलटने व मिटटी में दबाने में कम मेहनत लगती है। जुताई उसी दिशा में करनी चाहिए जिसमे पौधों को गिराया गया हो। इसके बाद खेत में 8-10 दिन तक 4-6 सें.मी. पानी भरा रहना चाहिए जिससे पौधों के अपघटन में सुविधा होती है। यदि पौधों को दबाते समय खेत में पानी की कमी हो या देरे से जुताई की जाती है तो पौधों के अपघटन में अधिक समय लगता है साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि इसके बाद लगायी जाने वाली फसल में आधार नत्रजन की मात्रा नहीं दी जानी चाहिए। इस विधि को अर्थात हरी खाद को जिस में उगाकर उसी खेत में दबाने की प्रक्रिया को हरी खाद की सीटू विधि (Green Manuring In Situ) कहते है। यह विधि उस खेत में प्रयोग की जाती है जहां पानी की प्रचुर मात्रा हो और जहां पानी की मात्रा पर्याप्त नहीं है वहां हरीखाद की फसल एक क्षेत्र में उगाकर उसकी पतितयां व तना दूसरे क्षेत्र में ले जाकर दबाते है। इस विधि को हरी पतितयों से हरी खाद (Green Leaf Manuring) के नाम से जानते है।

हरीखाद के लाभ :-

1-  हरीखाद केवल नत्रजन व कार्बनिक पदार्थो का ही साधन नहीं है बल्की इससे मिटटी में कइ पोषक तत्व भी उपलब्ध होते है।

2-  हरीखाद के प्रयोग से मृदा भुरभुरी] वायु संचार में अच्छा] जल धारण क्षमता में वृद्धि] अम्लीयता/क्षारीयता में सुधार एवं मृदा क्षरण भी कम होता है।

3-  हरीखाद के प्रयोग से मृदा में सुक्ष्मजीवों की संख्या एवं क्रियाशीलता बढ़ती है तथा मृदा की उर्वरा शकित एवं उत्पादन क्षमता भी बढ़ता है।

4-  हरीखाद के प्रयोग से मृदा जनित रोगों में भी कमी आती है।

5-  यह खरपतवारों की वृद्धि भी रोकने में सहायक है।

6-  इसके प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों का उपयोग कम कर बचत कर सकते है तथा टिकाऊ खेती भी कर सकते है।

 

हिमाचल मोटघरे

(ग्राम विकास अधिकारी, कार्यालय उप संचालक, रायपुर)