भूमि क्षरण का गहराता संकट कारण एवं निवारण

भूमि क्षरण

भूमि एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन जो हमें भोजन, ईधन, चारा एवं लकड़ी प्रदान करती है। दुर्भाग्यवश भारत में सदियों से खाद्यान्न उत्पादन हेतु भूमि का शोषण किया गया है जो भूमि क्षरण के प्रमुख कारणों में से एक है। भूमि क्षरण के फलस्वरूप उसकी उपजाऊ क्षमता खत्म हो जाती है जिसके कारण उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में तब्दील हो जाती है। क्षरित भूमि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ी हानि है। भारत में विभिन्न कारणों से भूमि क्षरण की दर में लगातार वृद्धि हो रही है। सिकुड़ते भूमि संसाधन आज भारत जैसे विकासशील देश के लिए सबसे बड़ी समस्या है। देश में मनुष्य भूमि अनुपात मुश्किल से 0.48 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है जो दुनिया के न्यूनतम् अनुपातों में से एक है।

 

क्षरित भूमि के अन्तर्गत अपरदित भूमि, लवणीय एवं क्षारीय भूमि, जलजमाव से प्रभावित भूमि, बीहड़ भूमि, खनन गतिविधियों से प्रभावित भूमि आदि शामिल हैं। भारत की कुल भूमि क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टेयर है जिसमें से लगभग 178 मिलियन हेक्टेयर भूमि (54 प्रतिशत) विभिन्न कारणों से बंजर भूमि में परिवर्तित हो चुकी है। इसमें लगभग 40 मिलियन हेक्टेयर क्षरित वन भी सम्मिलित है। देश की कुल कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल 144 मिलियन हेक्टेयर है जिसमें लगभग 56 प्रतिशत (80.6 मिलियन हेक्टेयर) गलत कृषि कार्यों के परिणामस्वरूप बेकार या बंजर हो चुकी है और अब घने वन सिकुड़कर कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का केवल 11 प्रतिशत (36.2 मिलियन हेक्टेयर) रह गये हैं।

 

वर्तमान में भारत में मृदा अपरदन की दर लगभग 2,600 मिलियन टन प्रतिवर्ष है। देश की लगभग 140 मिलियन हेक्टेयर भूमि, जल तथा वायु मृदा अपरदन से प्रभावित है जिसके परिणामस्वरूप मिट्टी की ऊपरी परत की हानि की दर लगभग 6,000 मिलियन टन प्रतिवर्ष है जिसमें 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटास की मात्रा होती है।

 

भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग एक-चौथाई भाग जल अपरदन से प्रभावित है। देश में सिर्फ जल अपरदन द्वारा प्रतिवर्ष लगभग 6,000 टन ऊपरी मिट्टी का कटाव होता है जिसमें पोषक तत्वों की मात्रा की अनुमानित कीमत 1,000 करोड़ रूपये से भी ज्यादा की होती है।

 

जल द्वारा मृदा अपरदन दक्षिण एवं पूर्वी भारत के लाल एवं लैटराइट मृदा की एक प्रमुख समस्या है जहाँ तकरीबन 40 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी की ऊपरी सतह का ह्रास प्रतिवर्ष होता है। मध्य भारत की काली मिट्टी के कुल क्षेत्रफल 70 मिलियन हेक्टेयर का लगभग 6.7 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पहले से ही मृदा अपरदन के चलते बेकार हो चुका है। उत्तरी-पूर्वी भारत की लगभग 4.4 मिलियन हेक्टेयर भूमि झूम कृषि (स्थानान्तरी कृषि) के कारण गंभीर भूमि क्षरण से प्रभावित है।

 

भारत में तीव्र जल अपरदन के कारण लगभग 3.67 मिलियन हेक्टेयर भूमि बीहड़ भूमि में तब्दील हो चुकी है। बीहड़ मुख्यतः उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात राज्य में फैले हैं। यमुना, चम्बल, माही, बेतवा, साबरमती तथा उनकी सहायक नदियाँ इन राज्यों में भूमि अपरदन के लिए उत्तरदायी हैं। एक संरक्षित अनुमान के अनुसार भारत में बीहड़ भूमि पुनरूत्थान न होने के कारण प्रतिवर्ष लगभग 157 करोड़ रूपये का घाटा हो रहा है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान के बीहड़ क्षेत्रों की अनाज उत्पादन क्षमता तकरीबन 3 मिलियन टन प्रतिवर्ष है।

 

देश की कुल लवण प्रभावित भूमि का लगभग 40 प्रतिशत क्षेत्रफल सिन्धु गंगा मैदानों के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, हरियाणा तथा पंजाब राज्यों में वितरित है।

 

वायु अपरदन आमतौर से देश के शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों की समस्या है जहाँ की मिट्टी मुख्यतः बलुई होती है जिसके कारण पेड़-पौधे कम संख्या में उगते हैं या पूर्णतः अनुपस्थित होते हैं। भारत में वायु अपरदन से लगभग 50 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित है जिसमें से ज्यादातर भाग राजस्थान एवं गुजरात राज्य के अन्तर्गत आते हैं। इन क्षेत्रों में अत्यधिक चराई भूमि अपरदन का एक प्रमुख कारण है। एक अनुमान के अनुसार वायु अपरदन से प्रभावित इन क्षेत्रों में अपरदन के नियन्त्रण में लगभग 3,000 करोड़ रूपये का खर्च आयेगा।

 

भूमि क्षरण के कारण:

जनसंख्या विस्फोट, औद्योगीकरण, शहरीकरण, वनविनाश, अत्यधिक चराई, झूम कृषि तथा खनन गतिविधियाँ भूमि संसाधनों के क्षरण के प्रमुख कारण हैं। इनके अतिरिक्त रासायनिक उर्वरकों एवं नाशिजीवनाशकों (पेस्टीसाइड्स) पर आधारित पारम्परिक कृषि भी भूमि क्षरण का एक प्रमुख कारण है। हरित क्रान्ति के आगमन से कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए रासायनिक खादों, कीटनाशकों तथा शाकनाशकों के अंधाधुन्ध प्रयोग से न केवल वातावरण प्रदूषित हुआ है, अपितु भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने वाले सूक्ष्मजीवों की जनसंख्या में भी लगातार गिरावट दर्ज की गयी है जिससे मृदा की पैदावार शक्ति में कमी आयी है।

 

अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों विशेषकर यूरिया के प्रयोग से भूमि अम्लीय हो जाती है। अम्लीय मृदा में सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे कापर तथा जिंक पौधों को उपलब्ध नही हो पाते हैं। इसके अतिरिक्त इस प्रकार की मृदा में आमतौर से कैल्शियम तथा पोटैशियम तत्वों का अभाव होता है। इसलिए इस प्रकार की मृदा में फसल की पैदावार में गिरावट आ जाती है।

 

रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुन्ध प्रयोग से मृदा संरचना नष्ट हो जाती है जिससे मृदा के कण एक दूसरे से अलग हो जाते हैं परिणामस्वरूप मृदा अपरदन की दर में तीव्र वृद्धि की सम्भावना बढ़ जाती है।

 

कृषि में जल के अत्यधिक प्रयोग से जलजमाव के कारण मृदा की लवणता एवं क्षारीयता में वृद्धि होती है जिससे उपजाऊ भूमि उसर भूमि में परिवर्तित हो जाती है। सिंचाई जल के कुप्रबन्धन के कारण देश की लगभग 6 मिलियन हेक्टयर भूमि जल जमाव से प्रभावित है तथा तकरीबन 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता एवं क्षारीयता से प्रभावित है।

 

भूमि क्षरण का निवारण:

भूमि जैसे महत्वपूर्ण संसाधन का क्षरण देश के समक्ष एक गम्भीर समस्या है। अतः इस समस्या का निराकरण समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो निकट भविष्य में देश में खाद्यान्न उत्पादन की दर में गिरावट होगी परिणामस्वरूप आर्थिक विकास अवरूद्ध होगा और 125 करोड़ की आबादी वाले देश भारत में भूख और कुपोषण के चलते मृत्यु दर में अभूतवपूर्व बढ़ोत्तरी होगी। यद्यपि 1950 की तुलना में (लगभग 51 मिलियन टन) आज देश की कुल खाद्यान्न उत्पादन क्षमता में पांच गुना से ज्यादा वृद्धि हुई है (लगभग 259 मिलियन टन)। 

 

फिर भी बढ़ती जनसंख्या एवं माँग को देखते हुए खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता है क्योंकि देश की लगभग 42 करोड़ आबादी आज भी अत्यन्त ही गरीब होने के कारण भूखमरी एवं कुपोषण की शिकार है। इसलिए उपजाऊ भूमि का संरक्षण तथा क्षरित भूमि का पुनरुत्थान अत्यन्त ही आवश्यक है ताकि देश में खाद्यान्न उत्पादन को और बढ़ाया जा सके जिससे कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था को और सुदृढ़ किया जा सके।

 

इसके लिए आवश्यक है कि पारम्परिक कृषि के स्थान पर संपोषित कृषि को अपनाया जाये जिसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, शाकनाशकों आदि का प्रयोग केवल आवश्यकता पड़ने पर सीमित मात्रा में होता है। संपोषित कृषि में मृदा की उर्वरा शक्ति की वृद्धि के लिए हरी खाद, गोबर खाद, कम्पोस्ट, केंचुआ खाद, जैविक खाद आदि का उपयोग होता है जिससे मिट्टी का स्वास्थ्य बना रहता है परिणामस्वरूप मृदा संरक्षण को बढ़ावा मिलता है। साथ ही क्षरित अथवा बंजर भूमि को वनस्पतियों से आच्छादित कर उसे उपजाऊ बनाना तकनीकी दृष्टि से पिछड़े भारत जैसे देश के लिए भूमि पुनरूत्थान की सस्ती एवं उत्तम विधि है। इस प्रकार की भूमि पुनरूत्थान विधि को जैविक-पुनरूत्थान विधि के नाम से जाना जाता है।

 

जल अपरदन से प्रभावित कृषि भूमि का संरक्षण एवं पुनरूत्थान घास की प्रजातियों जैसे दूब (साइनोडान डेक्टिलान), अंजान (सिनक्रस सिलिएटस) तथा मुंज (सैक्रम मुंजा) के रोपण से किया जा सकता है। उक्त घास की प्रजातियाँ आमतौर से बहुवर्षीय एवं कठोर प्रवृत्ति की होती हैं। इनकी जड़े मिट्टी के कड़ों को बाँधकर मृदा अपरदन को रोकने में सहायक होती हैं। घासों के निरन्तर उगने से मृदा में जीवांश पदार्थ की वृद्धि होती है जिससे मृदा संरचना में सुधार के साथ-साथ उसकी उपजाऊ क्षमता में भी वृद्धि होती है।

 

देश के शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में वायु अपरदन एक गम्भीर समस्या है। वायु अपरदन से प्रभावित भूमि को मेंहदी (लावसोनिया एल्बा), कनेर (थीबेटिया नेरीफोलिया), आक (कैलोट्राफिस प्रोसेरा), मदार (कैलोट्रापिस जाईजेण्टिया) अरण्ड (रीसिनस कम्यूनिस), बेर (जीजीफस मारिसियाना), खैर (अकेसिया कटेचू), सफेद कीकर (अकेसिया ल्यूकाफोलिया) शीशम (डेलबर्जिया शीशू), ईमली (टेमरिण्डस इण्डिका) तथा खेजरी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) जैसे कठोर पौधों की प्रजातियों के रोपण से संरक्षण प्रदान किये जाने की तत्काल आवश्यकता है।

 

यद्यपि बीहड़ भूमि का पुनरूत्थान मुश्किल कार्य है बावजूद इसके खैर (अकेसिया कटेचू), खेजरी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया), पलास (ब्यूटिया मोनोस्परमा), शिरीष (एल्बिजिया लिबेक), नीम (एजाडिराक्टा इण्डिका), शीशम (डेलबर्जिया शीशू), चिलबिल (होलोप्टीलिया इन्ट्ग्रीफोलिया), करंज (पानगैमिया पिन्नेटा) तथा नरबॉस (डेण्ड्रोकेलैमस स्ट्रिक्ट्स) जैसी काष्ठीय प्रजातियों का रोपण कर बीहड़ भूमि को स्थिरता प्रदान किये जाने की आवश्यकता है ताकि बीहड़ भूमि विस्तार को रोका जा सके।

 

यद्यपि खनन गतिविधयाँ पर्यावरण के दृष्टिकोण से हानिकारक होती हैं परन्तु आर्थिक विकास के लिए अत्यन्त ही आवश्यक होती हैं। खनन गतिविधयों के कारण भूमि में जबरदस्त उलटफेर होता है फलस्वरूप नीचे की मृदा जिसमें पोषक तत्वों तथा कार्बनिक पदार्थों का अभाव होता है ऊपर आ जाती है जबकि इसके विपरीत ऊपर की उपजाऊ मृदा की परत नीचे चली जाती है। इस प्रकार खनन कार्य से प्रभावित भूमि की उपजाऊ क्षमता शून्य हो जाती है।

 

खनिज सम्पदा सम्पन्न भारत में खनन गतिविधियाँ भूमि क्षरण का एक प्रमुख कारण हैं। खननकार्य से अव्यवस्थित भूमि का पुनरूत्थान उस क्षेत्र विशेष में पायी जाने वाली वृक्षों की देसी प्रजातियों से किये जाने की आवश्यकता है। जैसे उष्णकटिबंधीय जलवायु के लिए शीशम (डेलबर्जिया शीशू), करंज (पानगैमिया पिन्नेटा), खैर (अकेसिया कटेचू), सागौन (टेक्टोना ग्राण्डिस), अर्जुन (टर्मिनेलिया अर्जुना), बहेड़ा (टर्मिनेलिया बेलेरिका), आंवला (फाइलैन्थस एम्बिलिका), शिरीष (एल्बिजिया लिबेक), सफेद शिरीष (एल्बिजिया प्रोसेरा), घमार (मेलाइना आरबोरिया) तथा नीम (एजाडिराक्टा इण्डिका) जैसे वृक्षों की प्रजातियाँ जैविक-पुनरूत्थान प्रक्रिया के लिए उत्तम होती हैं।

 

वृक्षों के अतिरिक्त दीनानाथ (पेनिसिटम पेडीसिलेटम) एवं चुराट (हेट्रोपोगान कनटार्ट्स) जैसी देसी प्रजाति की घासें भी इस प्रकार की जलवायु के लिए अति उत्तम होती हैं। उपरोक्त वनस्पतियाँ खनन गतिविधियों से अव्यवस्थित भूमि को स्थिरता प्रदान करने के साथ-साथ मृदा पुनर्विकास प्रक्रिया में सहायक होती हैं।

 

नीलहरित शैवाल (सूक्ष्मजीवी पौधे) लवणीय एवं क्षारीय भूमि के पुनरूत्थान में अत्यन्त ही कारगर होते हैं। नीलहरित शैवालो जैसे- नास्टाक, एनाबीना, अलोसाइरा, साइटोनीमा, सिलेण्ड्रोस्परमम ग्लियोट्राइकिया, आसैलिटोरिया, ग्लियोकैप्सा तथास्टाइगोनीमा की प्रजातियाँ आमतौर से लवणीय एवं क्षारीय मृदा की सतह पर आसानी से उगती हैं जिसके फलस्वरूप न केवल जीवांश पदार्थो की मात्रा में वृद्धि होती है अपितु नीलहरित शैवालों द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण के परिणामस्वरूप नाइट्रोजन की मात्रा में भी पर्याप्त वृद्धि होती है।

 

जलीय पौधा एजोला पिन्नेटा भी लवणीय तथा क्षारीय भूमि के पुनरूत्थान के लिए उत्तम है। इसके अतिरिक्त नीम (एजाडिराक्टा इण्डिका), इमली (टेमरिण्डस इण्डिका), अर्जुन (टर्मिनेलिया अर्जुना), करंज (पानगैमिया पिन्नेटा), आंवला (फाइलैन्थस एम्बिलिका), सफेद शिरीष (एल्बिजिया प्रोसेरा), खेजरी (प्रासोपिस सिनेरेरिया), बेर (जीजीफस मारिसियाना), सफेद शहतूत (मोरस एल्बा) तथा काला शहतूत (मोरस नाइग्रा) जैसी बहुउपयोगी वृक्षों की प्रजातियों के रोपण से भी लवणीय एवं क्षारीय भूमि के उद्धार की आवश्यकता है। उपर्युक्त वृक्षों की प्रजातियाँ लवणीय एवं क्षारीय भूमि पर सफलतापूर्वक उगती हैं तथा अपने मृत अवशेषों जैसे- पत्तियों, टहनियों, पंखुड़ियों, फलों आदि से मृदा के भौतिक तथा रासायनिक गुणों को परिवर्तित कर कृषि योग्य बना देती हैं।

 

जल-जमाव से ग्रसित बंजर भूमि का पुनरूत्थान केवल जल निकासी से ही संभव है। जल-जमाव की समस्या आमतौर से नहर से सिंचाई वाले क्षेत्रों की समस्या है। जल-जमाव से निपटने के लिए आवश्यक है कि सिंचाई के दौरान जल का प्रबन्धन ठीक प्रकार से हो साथ ही खेत से अतिरिक्त जल के निकास के लिए नाली की उपयुक्त व्यवस्था हो।

डॉ0 अरविन्द सिंह