हरित क्रान्ति के जख्म

हरित क्रान्ति के जख्म

पंजाब का खेती प्रधान इलाका मालवा इन दिनों खेती से जुड़े जिन घपले-घोटालों और कपास उगाने वाले 15 किसानों की आत्महत्यायों की वजह से चर्चा में है, उसमें ऊपरी तौर पर दो चीजें दिख रही हैं। एक, जिस बीटी कपास (जीन संवर्धित कॉटन) को सुखे और कीटों के हमलों से सुरक्षित बताया जा रहा था- वह दावा सफेद मक्खी (वाइट फ्लाई) के हमले के साथ खोखला साबित हो गया। इस मक्खी ने चार हजार करोड़ रुपए से ज्यादा के बीटी कपास की खेती चौपट कर दी, जिससे प्रभावित किसानों को मौत आसान लगने लगी। दूसरी बात नकली कीटनाशकों से जुड़े घपले की है जिसमें पंजाब स्वास्थ्य विभाग के आला अफसर और बाजार के बिचौलिए शामिल थे, जिनकी ‘कृपा’ से किटनाशकों का छिड़काव बेअसर साबित हुआ और सफेद मक्खी को अपनी कारस्तानी का मौका मिल गया। मगर जिस एक तीसरी अहम घटना पर फिलहाल नजर नहीं जा रही है, वह उस हरित क्रान्ति से जुड़ी है जिसने देश को कथित तौर पर अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर तो बनाया है पर कई ऐसे घाव भी दिए हैं जो जब-तब अपना असर छोड़ते दिखाई पड़ते हैं। पंजाब के मौजूदा हादसे का फौरी कारण अवसरण- बिचौलिया की मिलीभगत से किसानों तक नकली और बेअसर रहने वाले कीटनाशकों का पहुँचना बताया जा रहा है। भ्रष्टाचार ने जिस तरह देश के तमाम गलियारों में सड़ांध पैदा कर रखी है, उसका एक असर अब खेत-खलियानों तक पहुँच गया है। इसकी पूरी आशंका है कि पंजाब में डेढ़ सौ करोड़ के कीटनाशकों के फुस्स निकल जाने की यह घटना चंद दिनों तक चर्चा में रहने या जाँच के सिफारिश के बाद ठंडे बस्ते के हवाले कर दी जाए, जैसा कई और घोटालों में किया जाता रहा है। पर कीटनाशकों के नकलीपन के अलावा यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि आखिर बीटी कपास में ऐसी क्या खामी रह गई जो यह फसल खुद कीटों से लड़ नहीं पाई। आखिर जीन संवर्धन (जीन मॉडिफिकेशन) तकनीक का और क्या फायदा है कि कोई जीएम फसल सूखे और कीटों के हमले जैसे विपरीत हालात से ही न लड़ पाए? अगर रासायनिक कीटनाशकों और रासायनिक खादों के बल पर ही फसल उत्पादन बढ़ सकता है और कीटों से सुरक्षित रह सकता है, तो फिर उन जीएम फसलों के उत्पादन की मंजूरी की जरुरत ही क्या है जिन्हें परीक्षणों के बाद एक-एक करके देश में उगाने की पहल-कदमी हो रही है। उल्लेखनीय है कि पिछले सवा-एक साल में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी और उनके मन्त्री कुछ अवसरों पर देश में दूसरी हरित क्रान्ति लाने का आह्वान कर चुके हैं। पर क्या दूसरी हरित क्रान्ति भी रसायनों के बल पर ही आ सकेगी? ऐसी पहल कदमी से पहले थोड़ा ठहर कर पिछली हरित क्रान्ति के जख्मों पर गौर करने की जरुरत है। ये घाव ऐसे हैं जिन्होंने जमीन को कहीं का नहीं छोड़ा है। एक उदाहरण तो पंजाब का मौजूदा घटनाक्रम ही है। ऐसे कई रिपोर्टें आई हैं जिनके मुताबिक वहाँ कपास के जिन खेतों में रासायनिक कीटनाशक नहीं डाले गए थे, उनमें कपास में स्वभाविक रुप से लगने वाले मकड़ी के जाले ने फसल को सफेद मक्खी के हमले से बचा लिया। ऐसे जालें में फँस कर सफेद मक्खी का अपने आप खात्मा हो जाता है, इसके लिए अलग से कीटनाशक डालने की जरुरत नहीं पड़ती। भारत में हरित क्रान्ति के पुरोधा माने जाने वाले अमेरिकी कृषि विज्ञानी डॉ नॉर्मन बोरलॉग रासायनिक कीटनाशकों और खादों को पशुओं की दवा मानते थे। यहाँ तक कि जब रैचेल कार्लसन ने अपनी शोध पुस्तक ‘द साइलेंट स्प्रिंग’ में यह साबित कर दिया कि रासायनिक खाद और कीटनाशक असल में जमीन और खेती का सत्यानाश ही करते हैं, डॉक्टर बोरलॉग का कथन था कि ऐसे लोग नहीं चाहते कि दुनिया से भुखमरी का खात्मा हो। यहाँ तक कि उन्हीं के समय में इटली स्थित ‘थर्ड वर्ल्ड एकेडेमी’ ने ब्राजील की खेती का एक उदाहरण देकर साफ कर दिया था कि बिना रासायनिक खादों के भी सोयाबीन और गन्ने की उपज आश्चर्यजनक रूप से बढ़ाई जा सकती है। बोरलॉग इससे सहमत नहीं थे कि जैविक खाद्य कीटनाशक रासायनिक तकनीक के मुकाबले बेहतर नतीजे बिना कोई हानिकारक प्रभाव छोड़े दे सकते हैं। अफसोस यह है कि भारत को अकाल और भुखमरी के पँजे से बाहर निकालने में उनके सुझाव पर शुरू की गयी हरित क्रान्ति किसानों और खेती का काल बन चुकी है, पर इसके स्थान पर हानि रहित बायोटेक्नोलॉजी की तरफ किसी का ज्यादा ध्यान नहीं जा रहा है। हरित क्रान्ति के करीब पाँच दशकों के अन्तराल में देश की करोड़ों हेक्टेयर उपजाऊ जमीन क्षरण से गुजर रही है, रासायनिक खाद और कीटनाशकों में पूरी जैव और खाद्य शृंखला में जहर रोप दिया है, पर इससे पिंड छुड़ाने की कोई गम्भीर कोशिश नहीं हो रही है। यों यह बात भुलाई नहीं जा सकती कि आजादी से पहले 1943 और फिर 1955-65 के एक दशकीय अन्तराल में पड़े अकाल ने भारत को दाने-दाने के लिए तरसा दिया था। उस वक्त भारत के विदेशी मुद्रा भंडारण में इतनी रकम भी नहीं थी कि वह कनाडा, अमेरिका और आस्ट्रेलिया में मौजूद अतिरिक्त अनाज का थोड़ा सा हिस्सा भी खरीद पाए। तब अमेरिकी सरकार ने दया का भाव दिखाते हुए रुपयों के बदले भारत को पीएल-480 करार के तहत हर साल 31 लाख टन गेहूँ देना तय किया था जिसकी मात्रा 1966 तक आते-आते एक करोड़ 36 लाख तक पहुँच गई थी। अमेरिका ने एक काम और किया। उसने अपने बाँध विशेषज्ञ हार्वे स्टोकम को भाखड़ा नांगल बाँध बनाकर सिंचाई की किल्लत दूर करने और करीब 300 कृषि विज्ञानियों की टीम के साथ-साथ डॉ नॉर्मन ई बोरलॉग को हरित क्रान्ति की शुरुआत करने के वास्ते भेजा। डॉक्टर बोरलॉग ने भारत पदार्पण के कुछ ही वर्षों में गेहूँ की ‘शर्बती सोनारा’ नामक उन्नत किस्म विकशित कर दिखा दिया कि कैसे कम पानी और सूखे की स्थिति में भी खेतों से ज्यादा फसल ली जा सकती है। इस तरह कम रकबे (क्षेत्रफल) में रासायनिक खादों और कीटनाशकों की सहायता से कई गुना ज्यादा उपज पैदा करके हरित क्रान्ति का वह सपना साकार हुआ, जिसने देश में करोड़ों लोगों को भुखमरी से बचा लिया और आगे चलकर अनाज के मामले में अपने पाँव खड़ा कर दिखाया। अकाल के दौर से उभरने के बाद हरित क्रान्ति की बदौलत पहली बार 1978-79 में देश में 13.1 करोड़ टन अतिरिक्त अनाज पैदा हुआ जो एक नया कीर्तिमान बन गया। कुल मिलाकर 1968 में देश की आबादी 1947 के मुकाबले करीब डेढ़ गुनी हुई, पर गेहूँ उत्पादन तीन गुना बड़ा और 90 का दशक आते-आते देश अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया। इसके बाद से देश लगातार कई मौकों पर रिकॉर्ड फसल उत्पादन के मामले में कामयाब रहा है पर इस सफलता की बड़ी कीमत चुकायी गई। यह हरित क्रान्ति छोटे किसानों को तो दूर से छूकर निकल गई- यह तो इसका एक पक्ष है ही, साथ में डीडीटी जैसे किटनाशकों और रासायनिक खादों ने जमीनों को जिस तरह जहरीला बनाया है, वह अब किसी से छिपा नहीं है। चूँकि हमारी सरकारों की प्राथमिकता अधिक फसल उत्पादन और भोजन के अधिकार के तहत हर किसी को खाद्यान्न उपलब्ध कराना है, इसलिए रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर नियन्त्रण का मामला पीछे छूटता जा रहा है। इस बारे में पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय संगठन चेतावनी दे रहे हैं कि रसायनों के जहर से बुझी खेती पहले तो जमीनों और फसलों को चौपट करती है और फिर इंसान और जीवन की सेहत को तबाह कर डालती है। पर इन खतरों से निपटने का कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं किया जा रहा है। हालात तो ये हैं कि रसायनों को प्रतिबंधित करने की जगह उनके इस्तेमाल को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। जैसे एशिया के कई देश मोनोक्रोटोफॉस नामक कीटनाशक पर पाबंदी लगा चुके हैं, पर भारत में इसका उत्पादन, धड़ल्ले से इस्तेमाल और निर्यात जारी है। ये कीटनाशक इंसानी सेहत पर क्या असर डाल रहे हैं, इसकी जानकारी सीएसई जैसी पर्यावरणवादी संस्थाएँ कई बार दे चुकी हैं। पंजाब के 25 गाँवों पर आधारित सीएसई के एक शोध में पाया गया कि 65 फीसद लोगों में जेनेटिक उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) की शुरुआत हो चुकी है। सीएसई के मुताबिक इसकी वजह कीटनाशक - और अवशेषों की मात्रा है जो फसली उत्पादन (फल-सब्जियों व अनाजों) में रहती है। पूर्व में डीडीटी की मात्रा ही इंसानों में पहुँचने वाली सामान्य और अहानिकर मात्रा के मुकाबले सैकड़ों गुना ज्यादा पाई जा चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की खाद्य एवं कृषि इकाई ने मनुष्यों में कीटनाशकों की उपस्थिति के जो मानक तय कर रखे हैं, सीएसई के मुताबिक उनके मुकाबले यह मौजूदगी 158 गुना ज्यादा थी। इस स्थिति में कोई सुधार अब भी नहीं हुआ है। हाल में, केन्द्रीय कृषि मन्त्रालय ने विभिन्न खुदरा और थोक दुकानों, फल-सब्जियों, दूध व अन्य खाद्य उत्पादों के नमूनों की जाँच में ऐसे कीटनाशकों के अंश पाये हैं, जो मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक हैं। हालत यह है कि वर्ष 2005 में शुरू हुई केन्द्रीय कीटनाशक अवशिष्ट निगरानी योजना (मॉनिटरिंग ऑफ पेस्टिसाइड रेजिड्यूज) के तहत वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान देश भर से इकट्ठा किए गए 20,618 नमूनों में हर आठ में से एक को प्रतिबंधित कीटनाशकों से युक्त पाया गया। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि पिछली हरित क्रान्ति आखिर किस मुकाम पर पहुँची है।