गन्ने में फसल सुरक्षा

गन्ने की फसल से अधिक आर्थिक लाभ के लिए यह आवश्यक है कि फसल में कीटों, बिमारियों और चूहों से होने वाली क्षति पर नियंत्रण रखा जाय। गन्ने की फसल को हानि पहुचाने वाले प्रमुख कारकों यथा कीटों, बिमारियों और चूहों पर नियंत्रण रखने हेतु कुछ सुझाव।

गन्ने के प्रमुख कीट और उनका प्रबंधन –

बेधक कीट ग्रस्त पौधों को गिडार सहित जमीन की सतह से निकालकर नष्ट कर दें। यदि कीट का प्रकोप अधिक हो तो सिंचाई उपरान्त कार्बोफ्यूरान 3 जी॰ 33 किलोग्राम/हेक्टेयर की दर से लाइनों में जड़ के निकट प्रयोग करें। बेधक कीटों के नियन्त्रण के लिये 50,000 ट्राइकोग्रामा के अंडे युक्त ट्राइकोकार्ड का भी प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जा सकता है। इन कार्डों को 10 दिन के अंतराल पर लगाते रहें।

अप्रैल के अंतिम सप्ताह में निचली पत्तियों पर पायरिल्ला के सफ़ेद रंग के अण्डसमूह दिखाई देते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में इन अण्ड समूहों को सावधानी से पत्ती सहित काटकर नष्ट कर दें। इसी समय खेत में काला चिकटा का आक्रमण होता है। इनके नियंत्रण हेतु 1600 लीटर पानी में क्लोरोपायरीफॉस 20 ई॰सी॰ 1.0 लीटर सक्रिय तत्व (6.25 लीटर) के साथ 3-5% यूरिया घोल बनाकर गन्ने की गोफ में छिड़काव करें। पायरिल्ला के साथ ही इसका परजीवी इपीरिकैनिया भी खेतों में पाया जाता है। पत्ती की निचली सतह पर इसके कोकून सफ़ेद रंग के तथा अण्ड समूह चटाईनुमा हल्के भूरे रंग के होते हैं। यदि खेत में पर्याप्त संख्या में कोकून या अण्ड समूह हैं तो रसायनिक कीटनाशी प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं है। इन्हें दूसरे खेत से लाकर भी पायरिल्ला प्रभावित खेत में छोड़ा जा सकता है।

गन्ने के प्रमुख रोग और उनका प्रबन्धन –

गन्ने की फसल में नियमित रूप से खेत की निगरानी करते रहें तथा रोगग्रस्त पौधों को भूमि की सतह से निकालकर नष्ट कर दें। प्रायः गन्ने की खड़ी फसल में रोगों का उपचार सम्भव नहीं हो पाता है अतः रोगरोधी क़िस्मों की बुवाई, कीट-बीमारी रहित खेत से बीज लेना, गन्ने में बीज शोधन, खेत की नियमित अन्तराल पर निगरानी का रोगी पौधों को खेत से निकालकर नष्ट करना आदि गन्ने में रोग प्रबन्धन के लिये अति आवश्यक बिन्दु हैं।

1. पोक्का बोइंग – रोग की शुरुआत नई पत्तियों के आधार पर पीले-सफेद धब्बों से होती है जो आगे चलकर लाल-भूरे हो जाते हैं। पत्तियाँ सिकुड़न युक्त, घुमावदार, सामान्य से छोटे आकार की होती है जो कट-फट कर विकृत हो जाती हैं। धीरे-धीरे संक्रमण नीचे की तरफ तने के वृद्धि बिन्दु को प्रभावित करता है तथा तने की छाल पीआर एक, दो या अधिक चाकू के कट जैसे आड़े निशान दिखते हैं। 20-30° सेन्टीग्रेड तापमान, 70-80% आपेक्षिक आर्द्रता, बदली या फुहार वाली बारिश इस रोग के प्रसार के लिये सहायक परिस्थितियाँ हैं। कार्बण्डाजिम (1 मिलीलीटर/लीटर पानी) कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (2 मिलीलीटर/लीटर पानी) या मेंकोजेब (3 मिलीलीटर/लीटर पानी) का 15 दिन के अन्तराल पर 2 या 3 छिड़काव कर रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।

2. लाल सड़न - रोग की आरम्भिक अवस्था में पत्तियों पर छोटे-छोटे 2-3 मिलीमीटर लम्बे भूरे धब्बे पड़ते हैं जिससे पत्ती का रंग भूरा हो जाता है। जुलाई में पत्तियों की मध्य शिरा तक 1-3 सेंटीमीटर लम्बे, लाल-भूरे धब्बे बनने लगते हैं। वर्षा ऋतु में पौधे की तीसरी व चौथी पत्ती सूखकर सीधी खड़ी रहती है। गन्ने को लम्बाई में फाड़कर देखने पर अन्दर से लाल दिखायी देते हैं जिसके बीच में सफेद धब्बे होते हैं।

3. कंडुआ – गन्ने के सिरे पर काली चाबुक जैसी संरचना दिखाई देती है। पत्तियाँ तने पर दूर-दूर लगी होती हैं व पतली, नुकीली तथा सीधी होती हैं। कंडुआ ग्रस्त पौधे के चाबुक को पॉलीथीन से अच्छी तरह ढककर पौधे को जमीन की सतह से निकाल कर नष्ट कर दें।

4. पर्णदाह (लीफ स्काल्ड) – नवनिर्मित पत्तियों में पर्णशिरा के समानांतर सफ़ेद धारियाँ दिखती हैं तथा बाद में पत्ती सूखने लगती है।

5. उकठा – यह फफूँदी जनित रोग प्रायः सितम्बर से कटाई के मध्य होता है। इसमें अचानक गन्ना मुरझाकर सूख जाता है, पोरियाँ पिचक जाती हैं, गन्ना बीच से खोखला हो जाता है।

6. घासी प्ररोह (ग्रासी शूट) –इस माइकोप्लाज्मा जनित रोग में अनेक छोटे-छोटे, पतले कल्ले निकलते हैं जिनकी पत्तियाँ सफेद- पीलापन लिये हुये, छोटी तथा पतली होती हैं। इस रोग के लक्षण जुलाई से अक्तूबर तक दिखाई देते हैं पौधा घास जैसा दिखाई देता है।

गन्ने में चूहा नियन्त्रण –

चूहा नियन्त्रण हेतु आवश्यक है की एक क्षेत्र के सभी किसान अभियान के रूप में निम्न बिन्दुओं के अनुसार कार्य करें। साथ ही अधिक सफलता के लिये आवश्यक है कि इस अभियान को नियमित अन्तराल के बाद बार-बार चलायें।

1. पहले दिन पूरे क्षेत्र में बिलों को बन्द करना, चारे की मात्रा, रसायन की मात्रा आदि का आंकलन करना, खरपतवारों व चूहों के अन्य आश्रय स्थलों को नष्ट करना।

2. दूसरे व तीसरे दिन पूरे क्षेत्र में जीवित बिलों (ऐसे बिल जिन्हें पहले दिन बन्द करने के बाद चूहों ने पुनः खोल दिया हो) को खोज कर सादा चारा रखना।

3. सादा चारा (980 ग्राम अनाज + 20 ग्राम मीठा तेल) 8-10 ग्राम/बिल जहरीला चारा रखने से 2-3 दिन पहले दिया जाता है। ऐसा चूहों को किसी नये खाद्य को, एक निश्चित स्थान पर खाने का अभ्यस्त बनाने के लिये किया जाता है।

4. चौथे दिन जहरीला चारा (960 ग्राम अनाज + 20 ग्राम मीठा तेल + 20-25 ग्राम जिंक फॉसफाइड डालकर किसी छड़ से चलाकर अच्छी तरह एकसार मिला लें) रक्खा जाना है। सादा चारा खाने के अभ्यस्त चूहे इस जहरीले चारे को तुरन्त खा लेते हैं और मारे जाते हैं यह कार्य अधिकतम क्षेत्रफल में तथा उन्हीं बिलों पर (6-8 ग्राम/बिल केवल एक दिन के लिये) करना है जहाँ 2-3 दिन सादा चारा रक्खा गया था।

5. पाँचवें दिन मृत चूहों को एकत्र कर गड्ढे में दबा दें जिससे अन्य कोई जीव उसे न खा ले।

6. छठे दिन चूहों की अधिक सक्रियता वाले क्षेत्रों में ब्रोमोडिओलोन का जहरीला चारा (960 ग्राम अनाज + 20 ग्राम मीठा तेल + 20-25 ग्राम ब्रोमाडियोलोन चारा सघनता (0.25%) को डालकर किसी छड़ से चलाकर अच्छी तरह एकसार मिला लें) अधिक से अधिक स्थानों पर (15-20 ग्राम/बिल की दर से) रखना चाहिये।

7. सातवें दिन मृत चूहों का निस्तारण करके चूहों की अधिक समस्या होने पर अल्युमिनियम फॉसफाइड (2 गोली/बिल) की गोली डालकर, बिला को बन्द कर, धूम्रण करना चाहिये।

राकेश पाण्डेय, विषय वस्तु विशेषज्ञ (सस्य)
डॉ आर के सिंह, अध्यक्ष कृषि विज्ञान केंद्र बरेली
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