कृषि क्षेत्र में गोबर व गोमूत्र का आर्थिक महत्त्व

कृषि क्षेत्र में गोबर व गोमूत्र का आर्थिक महत्त्व

वास्तविकता यह है कि भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के रचनाकार स्वयं में महान दूरदर्शी वैज्ञानिक थे। अपने ज्ञान के आधार पर उन्होंने सामान्य व साधारण नियम-कानून एक धार्मिक क्रिया के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत किये ताकि मानव समाज पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके वैज्ञानिक ज्ञान व अनुभवों का लाभ उठते हुए प्राकृतिक पर्यावरण को बिना हानि पहुँचाए एक स्वस्थ जीवन बिता सके।

गाय को भारत में ‘माता’ का स्थान प्राप्त है। भारत के कई प्राचीन ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर पढ़ने को मिलता है कि ‘गोबर में लक्ष्मीजी का वास होता है’। यह कथन मात्र ‘शास्त्र’ वचन नहीं है यह एक वैज्ञानिक सत्य है।

इस यथार्थ के महत्त्व को समझते हुए भारतीय वैज्ञानिकों ने 1953-54 में विकसित प्रथम बायोगैस संयन्त्र का नामकरण ‘ग्राम लक्ष्मी’ रखा था, जिसे अन्तरराष्ट्रीय ख्याति भी मिली थी।

भारत में आज भी गोबर को शुद्ध मानते हुए धार्मिक अनुष्ठानों व पूजा-अर्चना के समय उसका उपयोग किया जाता है जैसे पूजास्थल लीपने, दीप स्थापन, पंचामृत बनाने आदि के लिये। इसके अलावा सभी भारतीय ग्रामीण घरों को नियमित रूप में गोबर से लीपने की प्रथा आज भी सर्वत्र विद्यमान है।

कुछ दशक पूर्व तक प्रायः सभी भारतीय घरों में ‘गोमूत्र’ सम्भाल कर रखने की परम्परा थी जिसका उपयोग औषधीय गुणों से युक्त होने के कारण शुद्धिकरण (अर्थात रोगाणुनाशी क्षमता) के लिये किया जाता था- रजस्वला स्त्री की छूत से बचने के लिये, जो निरोधा (क्वारनटीन) नियम का पालन करते हुए घर के एक विशिष्ट भाग में उस दौरान अलग रहती थीं; नवजात शिशु की माता को पिलाने के लिये आदि। 

आधुनिक बनने व दिखने की दौड़ में इन परम्पराओं के पीछे छिपे वैज्ञानिक पक्ष से अनभिज्ञ होने के फलस्वरूप इन्हें अंधविश्वास की संज्ञा प्राप्त हो चुकी है, जिसे निर्मूल करना आर्थिक विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है।

भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में गोबर व गोमूत्र सर्वत्र सहजता से मिलने वाला पदार्थ है। इन दोनों को समुचित व्यवहारिक उपयोग में लाने की कई सरल व प्राचीन ग्रामीण प्रौद्योगिकियाँ भारत में उपलब्ध हैं जिनके माध्यम से कृषि संवर्धन व स्वास्थ्य संरक्षण क्षेत्र में भरपूर लाभ उठाने के साथ-साथ गैस व बिजली जैसे अधिक तापक्षमता युक्त आधुनिक ईंधनों का उत्पादन कर स्थानीय ऊर्जा माँग के एक बड़े भाग की पूर्ति की जा सकती है।

पिछले कुछ वर्षों में भारत में कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने गोबर व गोमूत्र आधारित कृषि व रोग उपचारक पद्धतियों को अपनाकर सभी का ध्यान इनके अधिकाधिक उपयोग की ओर आकृष्ट किया है। इनमें से कुछ संस्थाएँ हैं श्राफ फाउंडेशन, कच्छ; अखिल भारतीय कृषि गौ सेवा संघ, गौपुरी, वर्धा एवं दीनदयाल शोध संस्थान चित्रकूट।

सूक्ष्मदर्शक यंत्र से देखने पर ज्ञात होता है कि गाय के एक ग्राम गोबर में 100 करोड़ से लेकर 1000 करोड़ विविध क्षमतायुक्त सूक्ष्म जीवाणु विद्यमान होते हैं। वास्तविक परीक्षणों से यह देखने में आता है कि कैसा भी गंदा/विषाक्त कचरा क्यों न हो, गोबर में समाये सूक्ष्म जीवाणु उसे ठीक कर देते हैं। 

एक टन कचरे में 10 किलोग्राम गोबर मिलाने पर ये सूक्ष्म जीवाणु सक्रिय होकर कुछ ही दिनों में सजीव खेती के लिये उत्तम खाद तैयार कर देते हैं।

मुम्बई में आयोजित (1997) भारतीय जनता पार्टी के सम्मेलन स्थल पर ‘श्राफ फाउंडेशन’ ने मानव मल-मूत्र सफाई का कार्य किया था। यह कार्य पर्यावरण समकक्ष विधि से करने के लिये उन्होंने मल के साथ गोबर और राक फास्फेट मिलाया जिसके फलस्वरूप 15 मिनटों में दुर्गंध समाप्त होने के अलावा मच्छर व मक्खी की समस्या से छुटकारा भी मिला। 

फिर 15 दिनों के भीतर सम्पूर्ण मल-मूत्र एक अमूल्य खाद में परिवर्तित हो गया जिसे अब ‘सोन खाद’ के नाम से जाना जाता है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग है परती भूमि सुधार। इस महत्त्व को समझते हुए श्राफ फाउंडेशन ने दुर्गंध रहित पखाने व सूखे संडासों की डिजाइन विकसित की है और इसके प्रचार के लिये कच्छ के कई ग्रामों में इनका निर्माण भी किया है।

श्राफ फाउंडेशन, अखिल भारतीय कृषि गौ सेवा संघ और कई अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा किये गए वास्तविक परीक्षणों से स्पष्ट है कि एक गाय अथवा बैल एक हेक्टेयर भूमि-सुधार के लिये पर्याप्त हैं। 

इस प्रकार भारत में 14.2 करोड़ कृषि भूमि के लिये गाय/बैलों की संख्या की दृष्टि से भारत एक समृद्ध देश है (1992 की गणना में 28.87 करोड़)। इसलिये गोबर-गोमूत्र आधारित कृषि प्रचार भारत में लाभदायक सिद्ध होगा।

परीक्षणों से ज्ञात होने लगा है कि जिस कृषिभूमि को गोबर व गोमूत्र प्राप्त होता है, उसमें समाये सूक्ष्म जीवाणु अपनी सक्रियता से फसल को नुकसान पहुँचाने वाले अन्य जीवाणुओं पर अंकुश लगा देते हैं।

30 भारतीय गौशालाओं में गोमूत्र के आधार पर 100 से अधिक रोगों के इलाज की दवाए बन रही हैं। इनमें से कई गौशालाएँ तो अपना पूरा खर्च केवल गोमूत्र-आधारित औषधियों के निर्माण से निकाल रही हैं। एक सुलभ व सस्ता विकल्प होने के कारण हम गोमूत्र को दवा मानने को तैयार नहीं हैं। इस भावना को प्रचार के माध्यम से निर्मूलकर इसके सर्वसाधारण उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।उदाहरण के लिये कपास की खेती में इस प्रयोग से यह देखने में आया है कि रासायनिक खाद के विपरीत गोबर-गोमूत्र खाद उपयोग करने पर हानिकारक कीटाणुओं की रोकथाम के साथ-साथ फसल उत्पादन में गुणात्मक वृद्धि होती है- अर्थात अधिक लंबे, मजबूत व सुंदर कपास के रेशे इस कृषि विधि को अपना कर प्राप्त किये जा सकते हैं और फसल उत्पादन भी बढ़ता है।

यद्यपि गोबर व गोमूत्र से खाद और कीटनाशक निर्माण की कई विधियाँ उपलब्ध हैं, कुछ सरल विधियाँ इस प्रकार हैं-

1. एक माटी के मटके में 15 किलोग्राम गोबर, 15 लीटर गोमूत्र और 15 लीटर पानी तथा एक किलोग्राम गुड़ डालकर मटके का मुख सील कर दें। 10 दिनों के पश्चात इस खाद में 5 गुना पानी मिलाकर खेत में नालियों के माध्यम से एक एकड़ भूमि में छोड़ दें। इस खाद का चार बार उपयोग करने पर रासायनिक खाद की आवश्यकता नहीं रहेगी। प्रथम उपचार बुआई पूर्व, तत्पश्चात बुआई के 10 दिन बाद और फिर 15-20 दिनों के अन्तर पर दो बार करना आवश्यक है।

2. एक भारतीय गाय से औसतन 10 कि.ग्रा. गोबर और 17 लीटर गोमूत्र प्रतिदिन प्राप्त होता है। इन्हें शहरी कचरे व मिट्टी के साथ घोलकर एक 3×2×1 मीटर गड्ढे में 75 से 100 दिन दबाकर रखने पर ‘नेडेप’ कम्पोस्ट खाद प्राप्त होती है।

3. गोमूत्र में 10 गुना पानी मिलाकर उसका छिड़काव प्रति सप्ताह फसलों पर करने से सभी फसलें स्वस्थ व हानिकारक कीटाणुओं से सुरक्षित रहती हैं।

4. फसल उगने के पश्चात जब अच्छी तरह बढ़ने लगती (पत्ते व टहनियाँ निकलने पर) है, तब एक लीटर गोमूत्र में 20 लीटर पानी मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। फिर पौध विकसित होने पर फूल निकलने के पूर्व एक लीटर गोमूत्र में 15 लीटर पानी मिलाकर छिड़काव और इस प्रकार तीन बार किये छिड़काव से पेड़-पौधों का अच्छा विकास होता है, कई बीमारियों पर रोक लगती है और पेड़-पौधों को आवश्यकतानुसार पौष्टिक द्रव्य/खनिज प्राप्त होते हैं। इसका प्रयोग गेहूँ सीताफल, प्याज, बैंगन पत्तावर्गीय साग-सब्जियों, केला, आम आदि में करने पर अच्छे परिणाम मिले हैं। गोमूत्र के दो छिड़कावों के बीच या साथ में नीम पत्ती का अर्क या पूरी रात भीगी नीम-खली के पानी को छानकर, बीस गुना पानी के साथ मिलाकर छिड़काव करने से बीमारियों की रोकथाम की जा सकती है।

5. बीज बोने के पहले उनका गोमूत्र से शोधन करना लाभकारी होता है।