जैव वृद्धि कारक

जैव उर्वरक को सामान्‍य रूप से सूक्ष्‍म जीवाणुओं का संग्रह के रूप में जाना जाता है, जिसमें कुछ विशेष तरह के सूक्ष्‍म जीवाणुओं का प्रयोगशाला में प्रजनन किया जाता है, जो मृदा की गुणवत्‍ता और फसलों की पैदावार को बढ़ाने में मदद करते हैं। हालांकि दलहनों के लाभकारी प्रभाव जिससे की मिट्टी की गुणवत्‍ता बढ़ती है, की जानकारी पूर्वकाल से हमारे पुरखे किसानों को भी थी। जैविक नत्रजन स्थिरीकरण की जानकारी हुए करीब 100 वर्षों से भी अधिक समय व्‍यतीत हो चुका है, लेकिन इस जैविक प्रक्रिया के वाणिज्यिक दोहन की आज आवश्‍यकता अनुभव की गई है।जैव उर्वरक के वाणिज्‍य इतिहास की शुरूआत सन् 1895 से हुई जब दो वैज्ञानिकों ‘श्री नोब और श्री हिल्‍टनर’ के सहयोग से नत्रजन उत्‍पाद राइजोबियम कल्‍चर के रूप में शुरू हुआ। इसके पश्‍चात एजोटोबैक्‍टर तथा नील हरित शैवाल तथा अन्‍य सूक्ष्‍म जीवों की खोज हुई। एजोसप्रिलम तथा वेसिकुलर अर्बस्‍कूलर माइकोराइज़ा (वीएएम) अभी हाल की खोज हैं।

भारत में सर्वप्रथम लेग्‍यूम राइज़ोबियम सहजीविता का अध्‍ययन हमारे वैज्ञानिक श्री एन वी जोशी ने किया था। इसका सर्वप्रथम वाणिज्यिक उत्‍पादन सन् 1956 में शुरू हुआ। भारत सरकार की 9वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कृषि मंत्रालय ने ‘जैव उर्वरक के उपयोग तथा विकास के लिए राष्‍ट्रीय परियोजना’ के माध्‍यम से वास्‍तविक रूप से इसको बढ़ावा देने तथा लोगों में जागरूकता उत्‍पन्‍न करने का काम शुरू किया।

जैजैव संरक्षण, प्रजातियां, उनके प्राकृतिक वास और पारिस्थितिक तंत्र को विलोपन से बचाने के उद्देश्य से प्रकृति और पृथ्वी की जैव विविधता के स्तरों का वैज्ञानिक अध्ययन है। यह विज्ञान, अर्थशास्त्र और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के व्यवहार से आहरित अंतरनियंत्रित विषय है।[ शब्द कन्सर्वेशन बॉयोलोजी को जीव-विज्ञानी ब्रूस विलकॉक्स और माइकल सूले द्वारा 1978 में ला जोला, कैलिफ़ोर्निया स्थित कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में आयोजित सम्मेलन में शीर्षक के तौर पर प्रवर्तित किया गया। बैठक वैज्ञानिकों के बीच उष्णकटिबंधीय वनों की कटाई, लुप्त होने वाली प्रजातियों और प्रजातियों के भीतर क्षतिग्रस्त आनुवंशिक विविधता पर चिंता से उभरी. परिणत सम्मेलन और कार्यवाहियों ने एक ओर उस समय के पारिस्थितिकी सिद्धांत और जीव-समुदाय जैविकी के बीच मौजूद अंतराल को पाटने और दूसरी ओर संरक्षण नीति और व्यवहार की मांग की.[8] जैव संरक्षण और जैव विविधता की अवधारणा (जैव विविधता), संरक्षण विज्ञान और नीति के आधुनिक युग को निश्चित रूप देने में मदद देते हुए, एक साथ उभरी

कृषि क्षेत्र में गोबर व गोमूत्र का आर्थिक महत्त्व

कृषि क्षेत्र में गोबर व गोमूत्र का आर्थिक महत्त्व

वास्तविकता यह है कि भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के रचनाकार स्वयं में महान दूरदर्शी वैज्ञानिक थे। अपने ज्ञान के आधार पर उन्होंने सामान्य व साधारण नियम-कानून एक धार्मिक क्रिया के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत किये ताकि मानव समाज पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके वैज्ञानिक ज्ञान व अनुभवों का लाभ उठते हुए प्राकृतिक पर्यावरण को बिना हानि पहुँचाए एक स्वस्थ जीवन बिता सके।

गाय को भारत में ‘माता’ का स्थान प्राप्त है। भारत के कई प्राचीन ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर पढ़ने को मिलता है कि ‘गोबर में लक्ष्मीजी का वास होता है’। यह कथन मात्र ‘शास्त्र’ वचन नहीं है यह एक वैज्ञानिक सत्य है।