बड़ी इलायची/लार्ज कार्डेमम की उन्नत खेती

व्यवसायिक स्तर पर इसको बड़ी इलायची/लार्ज कार्डेमम के नाम से जाना जाता है। जिन्जिबरेसी कुल के इस पौधे का वानस्पतिक नाम एमोमम सुबुलेटम है। तना 0.9-2.0 मीटर तक लम्बा पत्तियां 30-60 सेमी. लम्बी 6 से 9 सेमी. चौडी, रंग हरा व दोनों तरफ रोम रहित होती है। पुष्पवृंत गोल छोटे वृन्त वाला तथा सहपत्र लाल भूरे रंग के अधिक घने व अण्डाकार कटींले व नोकदार होते है। कैप्सूल (फल) 2.5 सेमी. गोलाकार, लाल भूरे रंग का घना व हल्का कण्टीला होता है।

उपयोग

बड़ी इलायची औषधीय तथा सुगन्धीय गुणों के कारण मसाले के रूप मे प्रयोग की जाती है। इलायची को “मसालो की रानी” भी कहा जाता है। यह रोगो के उपचार हेतु आयुर्वेदिक दवाइयों में यथा अलादिघृत क्लायनक घृत आदि बनाने मे भी प्रयोग की जाती है। बड़ी इलायची से बनने वाली दवाइयां अपच, अजीर्ण, वात, कफ, पित्त, रक्त रोगों व मूत्र रोगों के उपचार में लाभकारी है। इसके बीजों का काढा दांतों, मसूड़ों के रोग व पेट दर्द के उपचार में उपयोगी है। बड़ी इलायची विदेशों में भी निर्यात की जाती है।

भौगोलिक बितरण 

 भारत में बड़ी इलायची का नगदी फसल के रूप में वृहद स्तर पर कृषिकरण सिक्किम, पश्चिमी बंगाल (दार्जलिंग) तथा उत्तर-पूर्वी भारतीय राज्यों में किया जा रहा है। बड़ी इलायची उत्तर-पूर्वी भारतीय राज्यों में प्राकृतिक रूप से भी उगती है। भारत के साथ-साथ पड़ोसी देशों नेपाल, भूटान तथा चीन में भी बड़े पैमाने पर इसकी खेती की जाती है।

बड़ी इलायची से निकलने वाले तेल के भौतिक गुण एवं रासायनिक अवयव

रंग हीन (परन्तु गाढा होने पर पीला) विशिष्ट घनत्व (27­­0 C तापमान पर) 924 से 927 घुलनशीलता एल्कोहॉल में घुलनशील रासायनिक अवयव टरपीन्स, टरपीनिओल व सिनिओल

बड़ी इलायची के उत्तम कृषिकरण के लिए 10 डिग्री से 30 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान उपयुक्त है। तापमान के साथ-साथ अधिक उपज के लिए नमी युक्त व छायादार स्थान होना आवश्यक है। 
 

 

आवश्यक मिट्टी

 

इसकी खेती के लिए नमी युक्त अम्लीय दोमट मिट्टी उपयुक्त है तथा भूमि में प्रचुर मात्रा में नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश पाया जाना जरूरी है। इसके कृषिकरण के लिए pH मान 5.0 से 6.5 तक उपयुक्त पाया गया है।
 

खेत की तैयारी एवं बुआई

 

प्राथमिक नर्सरी 
प्राथमिक नर्सरी 6 मी. x 1 मी. x 0.15 मी. (ला. x चौ. x ऊँ.) की बनी होनी चाहिए तथा बीज 10 सेमी. की दूरी पर लाइन में बुआई के पश्चात् नमी बनाये रखने के लिए ऊपर से सूखी घास व पत्तियों की मलचिंग देनी आवश्यक है। अंकुरण मार्च से प्रारम्भ हो जाता है तथा अप्रैल-मई तक होता रहता है। अंकुरण के पश्चात् प्राथमिक नर्सरी से मलचिंग हटा देनी चाहिए व छाया की उचित व्यवस्था कर देना चाहिए। प्रतिदिन दो बार हल्की सिंचाई करनी चाहिए जिससे बेडों में नमी बनी रहे। बीज अंकुरण के पश्चात 4 से 6 पत्तियो की पौध तैयार होने पर जुलाई में द्धितीयक नर्सरी में रोपण किया जाता है।

द्धितीयक नर्सरीद्धितीयक नर्सरी 90 सेमी. चौडी 15 सेमी. ऊंची व इच्छित लम्बाई की हो सकती है। नर्सरी में गोबर की खाद मिलाकर ऊंची क्यारी तैयार कर लेनी चाहिए। प्राथमिक नर्सरी से पौधों को निकालकर द्धितीयक नर्सरी की क्यारी में 15 सेमी. दूरी पर जुलाई-अगस्त में रोपित कर लेना चाहिए। पौधो की ऊंचाई 45 से 60 सेमी. होने पर तथा 2 से 3 शाखाऐ निकल आने पर उन्हें अगले वर्ष जुलाई में मुख्य क्षेत्र/खेत में रोपित करना चाहिए।
उत्तरांचल में द्धितीय नर्सरी हेतु पालीथीन थैले में प्राथमिक नर्सरी के पौधों का प्रत्यारोंपण बेहतर पाया गया है तथा इसी की संस्तुति की जाती है। इससे पौधों के ढुलान में क्षति की सम्भावना कम हो जाती है।

प्रकन्द (स्लिप्स) नर्सी 
प्रकन्द पौध नर्सरी के लिए 15 सेमी. की दूरी 30 सेमी. चौड़ाई 30 सेमी. गहराई तथा इच्छित लम्बाई की खाई बनाकर उसमें वर्धी कलिका युक्त प्रकन्द पौध को 45 सेमी. की दूरी पर जुलाई के महीने में रोपित करना चाहिए। प्रकन्द पौध बीमारी रहित मातृ पौधे से लेनी चाहिए। पौध रोपित करने से पहले गड्ढे मे अच्छी तरह गोबर की खाद मिला लेनी चाहिए व पौध रोपण के पश्चात उसके चारों तरफ सूखी पत्तियों से मलचिंग करनी चाहिए। पौधो पर अन्य शाखायें निकल आने पर नव कलिका युक्त दो शाखाओं के समूह को काटकर मुख्य क्षेत्र में रोपित करना चाहिए।

मुख्य क्षेत्र 
द्धितीयक नर्सरी से पौधों को निकालकर मुख्य क्षेत्र में जुलाई-अगस्त के महीने में रोपित करना चाहिए तथा 30 सेमी. (लम्बाई चौड़ाई व गहराई) का गड्ढा बनाकर ऊपर की 15 सेमी. मिट्टी को निकालकर अलग रख लेना चाहिए व नीचे की 15 सेमी. मिट्टी को भी निकालकर अलग रखने के पश्चात ऊपर की अलग रखी हुई मिट्टी में जंगल की खाद या गोबर बराबर मात्रा में मिलाकर गड्ढे में भगना चाहिए और आस-पास से मिट्टी लेकर गड्ढे भरकर 1.5 x 1.5 मीटर के अन्तराल से पौध रोपित करना चाहिए। एक नाली भूमि में 80 पौधे रोपित किये जाने चाहिए है (400 पौधे/है.)। मुख्य क्षेत्र में उतीस के वृक्षों की छाया इसकी उत्तम वृद्धि एवं अच्छी उपज के लिए उपयुक्त रहती है। इसके अलावा अखरोट, सन्तरा, बाँज लोध व सिरस के नीचे भी इसकी खेती की जा सकती है।

प्रवर्धन एवं प्रसार
प्रवर्धन मुख्यतः बीजों, प्रकन्द (स्लिप्स) व उत्तक प्रजनन द्वारा किया जाता है। बीजों की बुआई अक्टूबर-नवम्बर में की जाती है। बीजो को 25 प्रतिशत नाइट्रिक एसिड के घोल में 10 मिनट तक रखकर 15-20 मिनट बहते पानी में धोकर छाया में सुखा लेना चाहिए, इससे बीजों का अधिक एवं समय से और एक साथ अंकुरण होता है।
उत्तक सम्वर्धन विधि द्वारा उन्नत किस्म के पौधो को बहुगुणित किया जा सकता है। इस विधि द्वारा उत्पादित पौधे रोगों से लड़ने एवं अधिक उत्पादन देने में सक्षम होते है। बड़ी इलायची पौध की उन्नत किस्म की वर्धी कलिका कृत्रिम विधि के माध्यम से प्रत्यारोपित कर प्रयोगात्मक परिस्थितियों में परिवर्तित किया जाता है। लगभग 3 माह के अन्तराल में प्रत्यारोपित वर्धी कलिकाओं से जड़ एवं तने सहित पौधों का समूह उत्पादित होता है। इन पादपों को अलग-अलग कर अनुकूलीकरण हेतु रखा जाता है। अनुकूलित पादपों को द्धितीयक नर्सरी में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। 5 से 7 महीने पश्चात इसे मुख्य खेत में रोपित कर दिया जाता है। ऊतक सम्वर्धित विधि द्वारा प्राप्त बड़ी इलायची पौध की रोग रोधी क्षमता गुणवत्ता एवं फलतः पारम्परिक विधि से उत्पादित पौध से अधिक होता है।
 

पोषक तत्व प्रबंधन

 

प्राथमिक तथा द्धितीयक दोनों नर्सरियों को तैयार करने से पहले उचित मात्रा में कम्पोस्ट खाद या गोबर की खाद मिला लेना चाहिए। मुख्य क्षेत्र में साल में कम से कम दो बार कम्पोस्ट खाद या गोबर की खाद डाल देना चाहिए। अच्छी उपज के लिए प्रति नाली एक किलोग्राम माइक्रो भुपावर , एक किलो माइक्रो फर्टी सिटी कम्पोस्ट , एक किलो सुपर गोल्ड मैग्नीशियम , एक किलो सुपर गोल्ड कैल्सी  फर्ट , एक किलो माइक्रो नीम इन सब खादों को अच्छी तरह मीलाकरमिश्रण तैयार कर    जुलाई तथा नवम्बर माह में मुख्य क्षेत्र में डालना चाहिए।
 

जल एवं सिंचाई प्रबंधन

 

प्राथमिक नर्सरी में बीजों को बोने के पश्चात् बीजों के अंकुरण के पहले दिन से कम से कम दो बार सिंचाई करनी आवश्यक है व भूमि में उपयुक्त नमी बनी रहनी चाहिए। द्धितीयक नर्सरी में भूमि की नमी बनाये रखने के लिए दिन में दो से तीन बार सिंचाई करनी चाहिए। मुख्य क्षेत्र में पौध रोपण के पश्चात सिंचाई करनी चाहिए ताकि भूमि में उपयुक्त नमी बनी रहे है। 
 

खरपतवार प्रबंधन

 

बीज अंकुरण के पश्चात प्राथमिक नर्सरी में कम से कम दो बार सावधानी पूर्वक खरपतवार निकालने चाहिए तथा द्धितीयक नर्सरी में भी गुड़ाई करना व खरपतवार निकालना आवश्यक है तथा मुख्य क्षेत्र में प्रथम तथा द्धितीय वर्ष में कम से कम तीन बार गुड़ाई करनी तथा खरपतवार निकालने चाहिए।
 

बीमारी प्रबंधन

 

मुख्य रूप से इलायची की पौध में “सिरके” तथा “फुरके” दो विषाणु जनित बीमारियां लगती है। फुरके नामक बीमारी में अधिक से अधिक शाखायें निकलती है तथा शाखाओं का समूह बौना हो जाता है। जबकि सिरके बीमारी में पत्तियों में पीले रंग के धब्बे बन जाते है। (क्योंकि उस भाग में हरित लवक नष्ट हो जाता है) व पत्तियां सूख जाती है।
विषाणु जनित सिरके तथा फुरके बीमारियों की रोकथाम हेतु सम्पूर्ण पौधे को उखाड़ कर जमीन में दबा देना चाहिए या पौधे को उखाड़ कर जला देना चाहिए।
अन्य बीमारियों की रोकथाम के लिए रसायनो के प्रयोग से बचना चाहिए क्योंकि इससे उपज की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता सकता है।

आवश्यक होने पर नीम का काढ़ा या गौ मूत्र का माइक्रोझाइम के साथ मीलाकर तर - बतर कर छिड़काव करना चाहिए इससे पौधा निरोग रहेगा |

 नीम का काढ़ा 

२५ किलोग्राम नीम का ताजा पत्ती तोड़कर कुचल कर - पीसकर ५० लीटर पानी में पकाना चाहिए जब पानी २० - २५ लीटर रह जाये तब उतार कर ठंडा कर आधा लीटर प्रति पम्प तथा माइक्रो झाइम २५ मिलीलीटर पानी में  मीलाकर तर बतर कर छिड़काव करना चाहिए |

गौ मूत्र 

देसी गाय का ताजा गौमूत्र लेकर किसी पारदर्शी बर्तन प्लास्टिक या कांच के बर्तन में लेकर १० - १५ दिन धुप में रखकर आधा लीटर प्रति पम्प तथा माइक्रो झाइम २५ मिलीलीटर पानी में  मीलाकर तर -बतर कर छिड़काव करना चाहिए इस तरह फसल पूर्णतया निरोग रहेगी |

बड़ी इलायची में लगने वाले मुख्य कीटों में कैटर पिलर (पत्तियों को खाने वाला कीड़ा) शूट बोरर (तने में छेद करके तने को खोखला करने वाला कीड़ा) शूट फ्लाई (तने के अन्दर घुसकर छोटे-छोटे छेद करके तने को नष्ट करने वाला कीड़ा) थैरिप्स तथा एफिड आदि हानि पहुंचाते है।
कीटों की रोकथाम के लिए कीटनाशक का प्रयोग करने से बचना चाहिए क्योंकि इससे उपज की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता सकता है।
 आवश्यक होने पर नीम का काढ़ा या गौ मूत्र का माइक्रोझाइम के साथ मीलाकर तर - बतर कर छिड़काव करना चाहिए इससे पौधा निरोग रहेगा 

फसल कटाई

 

तृतीय वर्ष से फल आने पर स्पाइक (शूकिका) में ऊपर व नीचे दोनों फलों के पकने पर ही फल युक्त शाखा को जमीन से 45 सेमी. ऊपर से काटना चाहिए तथा फलों को अलग निकालकर छाया में सुखा लेना चाहिए।
 

 

उत्पादन

प्रथम व द्धितीय वर्ष में पौधा बढता व विकसित होता है तथा तीसरे व चौथे वर्ष में एक हैक्टेयर भूमि से 500-750 किलोग्राम उपज प्राप्त हो सकती है तथा उत्तम उपज का औसत मूल्य रू. 150/- प्रति किलोग्राम के करीब रहता है। तीसरे वर्ष से फल आने पर अगले सात वर्षों तक अच्छी आय प्राप्त होती है।

फसल कटाई के बाद की क्रियाऐ

 

पारम्परिक विधि से फलों को सुखाने हेतु बांस की चटाई में फैलाकर भट्टी में रख दिया जाता है तथा नीचे से आग जलाकर धुयें को चटाई के नीचे से निकाला जाता है। इस प्रक्रिया में दो से तीन दिन लग जाते है तथा प्रत्यक्ष रूप से धुऐं के सम्पर्क मे आने पर इलायची का रंग काला पड़ जाता है व फलों की सुगन्ध नमी व तेल की प्रतिशत मात्रा नियंत्रित नहीं हो पाती है। वर्तमान में नई तकनीक में फलो को धुयें के पाइप वाली भट्टी में इस प्रकार सुखाया जाता है कि भट्टी के नीचे वाले चैम्बर में आग जलाकर धुंआ ऊपर वाले चेम्बर के अन्दर से निकालकर चिमनी के रास्ते बाहर छोड़ा जाता है। पाइपों के ऊपर तार से बनी जाली में फलों को रखा जाता है जिससे ऊपर का चेम्बर गरम होकर फलों को सुखाता है। चेम्बर का तापमान 45-50 डिग्री सेन्टीग्रेड तक होना चाहिए जिससे फलों का रंग हल्का बैंगनी, सुगन्ध, तेल व तत्वों की मात्रा बनी रहे। 
पूर्ण सूखे कैफ्सूल (फलों) को पॉलीथीन से निर्मित बस्तों में भरना चाहिए। बस्तों को लकड़ी के बक्सों में इस प्रकार रखना चाहिए कि इनमें नमी न जा सके तथा फलों को फफूँदी से बचाया जा सके।

जैविक खेती: