मौसम के अनुसार अपनाएं कृषि प्रबंधन

इस वर्ष मौसम विभाग द्वारा लगातार यह सूचित किया जा रहा है कि मॉनसून में औसत से कम वर्षा होगी. स्वाभाविक है इस स्थिति से निबटने और इससे होने वाले नुकसान को रोकने के लिए कई तरह की पहल की गयी हैं. इसके तहत भूमिगत जल के दोहन की रोकने की भी पहल शामिल है. भूमि के अंदर पानी को वापस भरने, वर्षा के जल का संचय सही तरीके से करने की जरूरत अब भी है. इसके बगैर समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता. जल प्रबंधन के अभाव में हर साल वर्षा का ज्यादातर पानी बह कर नदियों-नालियों के रास्ते दूर चला जाता है. राज्य के 85 से 90 प्रतिशत भागों में भूमिगत जल का स्तर लगातार गिर रहा है. इस समस्या के समाधान के नाम पर टय़ूबवेल को और अधिक गहराई तक उतारा जा रहा है, लेकिन यह पर्याप्त व्यवस्था नहीं है. अव्वल तो इससे पानी कम मिलता है. दूसरा की भूमिगत जल का स्तर और भी तेजी से नीचे भाग रहा है. तीसरी बात कि इससे सिंचाई की लागत दर बढ़ रही है, जो किसानों के हित में नहीं है. चौथा कि इस पानी की गुणवत्ता भी खराब है. इससे फसलों को नुकसान पहुंच रहा है.

जल उत्पादकता में वृद्धि करें

कृषि विभाग द्वारा फव्वारा सिंचाई, ड्रीप, शुष्क खेती के उन्नत तरीकों की जानकारी, तालाबों का निर्माण तथा जीर्णोद्धार जैसे कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं, परंतु अबतक इसका व्यापक उपयोग नहीं हो पाया है. अब समय आ गया है कि प्रत्येक किसान एवं  आम आदमी को जल संरक्षण के लिए संकल्प लेना होगा. ध्यान रहे पानी की कमी को दूर करने के लिए उपलब्ध जल को जमीन के नीचे संरक्षित करना होगा. अर्थात खेत से कम से कम पानी बह कर जाये, जिससे ज्यादा अवधि तक पानी पशुओं, फसलों एवं आमलोगों को यह उपलब्ध हो सके. आप पानी का निर्माण नहीं कर सकते, परंतु उसके प्रबंधन द्वारा उसे सुरक्षित करें. इससे भू-जल स्तर के साथ कुएं एवं तालाबों के जल स्तर में वृद्धि होगी.दूसरी बात उपलब्ध जल का अधिकतम सदुपयोग की इच्छा शक्ति विकसित करें एवं अंत में कम पानी से अधिक पैदावर की उन्नत तकनीकों का प्रयोग चरणबद्ध तरीके से कर जल उत्पादकता में वृद्धि करें.

खर पतवारों पर नियंत्रण आवश्यक

धान के खेतों में वर्षा जल को करने के लिए खेतों की मेढ़ों को कम से कम 20-30 सेमी चौड़ा तथा 15-20 सेमी ऊंचा रखना होगा. ऐसा करने से अधिक मात्र में जल संग्रह होगा. धान के खेतों में जमाव सिंचाई के दौरान न करें साथ ही सिंचाई की क्यारियों में पहली दरार दिखने पर करें. ऊपरी भूमि में श्रीविधि से मध्यम भूमि में बगैर पलेवा (कदवा) के धान बोआई मशीन से खेती के निचले इलाकों में जीरो टीलेज मशीन द्वारा धान की बुआई सीधे करने के लिए 12 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की आवश्यकता होगी. इसमें खर-पतवारों नियंत्रण के लिए पेंडीमिथिलिन बुआई के तीसरे दिन एक लीटर, 200 लीटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

शाम में ही करें सिंचाई कार्य

सूखा की अवस्था में शाम में ही सिंचाई का कार्य करें. साथ ही रोपनी करने के लिए 4-6 बिचड़ा कम-दूरी अर्थात 10x10 सेमी की दूरी पर करें. ऊपरी क्षेत्रों के लिए तुरंता, प्रभात, धनलक्ष्मी, रिंछारिया, पीएनआर-381, पूसा-205/83/1040/1107 जैसे प्रभेदों के अतिरिक्त नवीन, पंत धान-10, इंदुरी सांभा जैसे  कम अवधि वाले धानों का चयन करें. मध्यम भूमि के लिए सीता, राजेंद्र श्वेता, राजेंद्र श्वेता, राजेंद्र, सुवासिनी, राजेंद्र कस्तूरी, सरोज, संतोष, पूसा सुगंध दो एवं तीन, समृभागी आदि नीचली जमीन के लिए शकुंतला, सत्यम, किशोरी, राजेंद्र मंसूरी, मंसूरी, एमटीयू 7029, स्वर्णा सब-एक, बीपीटी-5204 के अतिरिक्त चौर तथा गहरे पानी के लिए सुधा, जानकी, वैदेही, टीसीए-177, बीआर-8 का प्रयोग किया जा सकता है.

खरुहन विधि से रोपाई

सूखा की अवस्था में अगर अगस्त तक बहुत ही कम पानी के कारण धान की फसल नष्ट हो गयी हो, तब अगर सितंबर में वर्षा की संभावना दिखे तो अल्प अवधि के धानों की रोपनी की जा सकती है. वर्षा न होने की स्थिति में पानी के बेहतर उपयोग के लिए ट्यूबवेल से रबी मौसम के समान पीबीसी पाइपों का प्रयोग करें इससे 30-40 प्रतिशत पानी की बचत होगी. पानी बहने के मुख्य नालों में/आहरों/पइनों में पत्थर-भूंज आदि का प्रयोग कर अवरोध का निर्माण करने से पानी बहने की गति कम हो जाती है. मिट्टी का कटाव रुकता है. साथ ही जमीन में जल का रिसाव बढ़ता है. गांव के तालाब, पोखरा एवं कुओं की सफाई के साथ उन्हें गहरा कर ज्यादा जल संग्रह करना आज के समय की मांग है. इसी प्रकार अगर संभव हो तो खेत के 10-15 प्रतिशत क्षेत्रफल (खेत के मध्य में) कम से एक मीटर गहरा उथला तालाबनुमा गड्ढा खोदवा लें. इसमें वर्षा का जल संग्रहित होगा तथा आवश्यकतानुसार जीवनरक्षक सिंचाई की व्यवस्था सुनिश्चित हो जायेगी.

बेहतर जल प्रबंधन को लेकर तैयारी

बेहतर जल प्रबंधन हेतु खेतों की गहरी सूखी जुताई के साथ ढैंचा की हरी खाद के लिए बीजाई (8-10 किलोग्राम प्रति एकड़) अवश्य करें. सूखा को ध्यान में रखते हुए जुताई सायंकाल में या सूर्योदय से पूर्व करके भारी पाटा होगा अवश्य लगावें जिससे मिट्टी में नमी का संरक्षण लंबी अवधि तक होगा.

सूखे मौसम में पोषक तत्वों का प्रयोग आमतौर पर खेतों में करने से लोग भयभीत रहते हैं. यह गलत है. अधिक तापमान की अवस्था में मृदा में कार्बनिक पदार्थ (ये जड़ो, गिरे-पत्ताें, गोबर खाद, हरी खाद, खर-पतवारों के सड़ने से खल्लियों के प्रयोग से विकसित होती है) नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, सल्फर एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी की बहुलता होती है. सर्वेक्षणों से यह बात सामने आयी है कि 35 प्रतिशत क्षेत्रों में रसायनिक खादों की संतुलित मात्र का प्रयोग प्रति हेक्टेयर 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर (एक हेक्टेयर-2.5 एकड़) कम होने के कारण पैदावर में काफी कमी आ रही है. इन क्षेत्रों के अतिरिक्त सामान्य क्षेत्रों में समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन में टिकाऊ खेती के लिए हरी खाद ढैंचा/मूंग/उड़द, गोबर की खाद, वर्मी कंपोस्ट का प्रयोग करना ही होगा. रसायनिक उर्वरकों में नेत्रजन का प्रयोग संतुलित रूप में करने में ज्यादा वानस्पतिक विकास नहीं होगा साथ ही पत्तियों का क्षेत्रफल सीमित होने के कारण जल का वाष्पोत सर्जन से ह्रास भी कम होगा. इसके विपरीत फॉस्फोरस का समुचित प्रयोग जड़ों तथा फूलों में ज्यादा वृद्धि देगा. पोटाश, सूखा एवं कीट-व्याधियों से लड़ने की अतिरिक्त शक्ति देगा. जिंक, सफल, बोरॉन का प्रयोग मृदा जांच के आधार पर करके उत्पादन में 15-20 प्रतिशत वृद्धि बहुत कम निवेश में प्राप्त होगी.

फसलों में मल्ंिचग का प्रयोग

खेती के प्रचलित पारंपरिक तरीके जैसे धान का छिटकाव या समतल खेतों में धान के अतिरिक्त अन्य फसलों की बुआई से अलग नाली एवं मेढ़ बना कर (रिजबेड) मक्का, सोयाबिन, अरहर, बाजरा, उड़द, मूंग, सब्जियों की खेती खरीफ में करें. इसी प्रकार गेहूं, जौ, चना, मटर एवं सब्जियां रबी में लगावें. रिजबेड पद्धति से फसलें ज्यादा जल जमाव से होने वाले नुकसान से बचते हैं. साथ ही नालियां जल निकास के काम आती हैं. इससे बीज दर न छोड़ कर अन्य फसलों में मल्ंिचग का प्रयोग कर नमी कर भूमि के तापमान (मिट्टी की 10 सेमी की गहराई तक दो से की कमी) में ह्रास के कारण जड़ों का ज्यादा विकास होने से उत्पन्न वृद्धि होगी. इसके लिए फसलों की कतारों के मध्य फसल खतपतवार/पत्ते या पॉलीथिन शीट बिछा कर मृदा किया जाता है.

बोआई की नयी मशीनों का प्रयोग

आजकल एक नयी बोआई की मशीन काफी प्रयोग में आ रही है. यह है टिल सीड ड्रील. इनके प्रयोग से धान, गेहूं, बाजार, मूंग, चना, मटर, मक्का, अरहर की खेती की जा रही है. उनसे निश्चित गहराई पर बीज एवं उसके बगल में ही गहराई पर उर्वरकों (दानेदार का ही प्रयोग करें) को डाला जाता है. इनसे बोआई खेतों की अत्यधिक जुताई की आवश्यकता नहीं है. खर-पतवार खेतों में पाराक्वेट नामक रसायन का एक लीटर प्रति एकड़ 200 लीटर घोल कर छिड़काव करें.  24 घंटों में सारी खत-पतवार समाप्त होती है. उसी प्रकार मोथा, झाड़ी, कांस्युक्त खेतों में एक -पांच अनुपात से ग्लाइफोसेट एवं एक -पांच किलोग्राम अमोनियम सल्फेट को 100 लीटर पानी में एक साथ घोल कर फ्लैट जेट नोजल को नैपसेक छिड़काव यंत्र में लगा कर प्रति एकड़ छिड़काव करें. ध्यान रहे खेतों में पर्याप्त नमी (वर्षा या सिंचाई से) होनी चाहिए. दवा के छिड़काव के एक सप्ताह बाद जो भी फसल लगानी हो साफ खेत आपको उपलब्ध हो जायेगा. इसलिए खेती करने पर लागत मूल्य एवं सिंचाई के ऊपर 1700-2000 रुपये प्रति एकड़ बचत देखा गया है. शुष्क पारिस्थितिकी में अरहर, मक्का, उड़द संकर, बाजरा-तील, ज्वार, सूरजमुखी खरीफ में तथा जौ-चना, मसूर, रबी के लिए उपयुक्त है.

अन्य फसलों, सब्जियों व फूल की खेती

अर्धशुष्क अवस्था में अरहर चावल, मक्का, उड़द, ज्वार-बाजार अंडी, सब्जी (अगात गोभी, बोदी, सेम,  टमाटर, मिर्च, अदरख हल्दी) गेंदा, रजनीगंधा, सूरजमुखी आदि खरीफ में लगावें. रबी में गेहूं, सरसों, गन्ना, चना, मसूर, मंगरैला, सब्जी, मटर, आलू (मध्य अवधि) को अपनी योजना में शामिल करें. उप आद्र्र परिस्थितिकी में खरीफ मौसम में चावल, मक्का, अंडी (कॉस्टर), मोटे अनाज व सभी सब्जियों की खेती हो सकती है. रबी में तीसी गेहूं, गन्ना, आलू, तोरी, तंबाकू, सभी सब्जियां मसाले वाली फसलें के साथ सभी मौसमी फूलों की खेती की जा सकती है.

 फसलों की अंतरवर्तीय खेती

इसके अतिरिक्त फसलों की उत्पादकता एवं लागत मुल्य में कमी के लिए अंतरवर्तीय खेती को बढ़ावा देना आवश्यक है. जैसे ज्वार व अरहर (2 : 1 कतार), मक्का व लोबिया और उरद (1 : 2 कतार), अरहर व सोयाबीन (1 :2 कतार) मक्का व मूंगफली (1 : 3 कतार) अच्छे विकल्प है. ध्यान रखें अत्यधिक सूखा की अवस्था में अगस्त के बाद उड़द के अलावा संकर बाजरा के एसएचबी-62, एमएचबी-110, बीडी 103, पीएचबी 2168, एम-84/86/88 आदि का प्रयोग उचित होगा. सूखा के मौसम में पशुओं को विशेष देखभाल के साथ उनके भोजन की चुनौती रहती है. अत: पशुपालक भाइयों को अनाज के साथ चारा फसल के रूप में दीनानाथ घास, हाइब्रिड नेपियर (हाथी घास), सूडान मक्का और लोबिया के साथ व्यस्क पशुओं के लिए सुब्बूल जैसी फसलों को खरीफ में लगाना उचित होगा.

डॉ प्रवीण कुमार द्विवेदी

(लेखक कृषि वैज्ञानिक हैं.)

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