सिट्रोनेला (जावा घास) की खेती

सुगंधित पौधों के वर्ग में मुख्य रूप से जो पौधे हैं, वे हैं – लेमन ग्रास, सिट्रोनेला, तुलसी, जिरेनियम पामारोजा/रोशाग्रास। नींबू घास की दो प्रजातियाँ – सी. फ्लेसुसोयम – भारत में पाई जाती है, जबकि सी. स्टेरिट्स – दक्षिणी पूर्वी देशों में पाई जाती है।

प्रकृति ने हमें सुगन्धित पौधों का अनमोल खजाना प्रदान किया है जिनकी विधिवत खेती और तेल के आसवन से आज हमारे देश में हजारों किसान लाभान्वित हो रहे हैं। इन सुगन्धित पौधों से निकाले गए सुवासित तेल विभिन्न प्रकार की सुगन्धियों के बनाने के अतिरिक्त एरोमाथिरैपी में बहुतायत से प्रयोग किये जाते हैं। लखनऊ स्थित सीएसआईआर के अग्रणी संस्थान केन्द्रीय औषधीय एवं सगन्ध पौधा संस्थान (सीमैप) द्वारा अनेकों ऐसी फसलों के साथ-साथ नींबू घास अथवा (लेमनग्रास) और रोशाघास (पामारोजा) तथा सिट्रोनेला (जावा घास) की उन्नत खेती हेतु कृषि प्रौद्योगिकी व अधिक उपज देने वाली किस्मों का विकास किया गया है। 

जावा घास को जावा सिट्रोनेला के नाम से जाना जाता है, यह बहुवर्षीय सगन्ध पौधा है। इसका सगन्ध तेल सुगन्ध प्रसाधन सामग्री के उत्पादन में प्रयोग किया जाता है। इसका तेल जिरेनियॉल, सिट्रोनेलाल एवं जिरेनियॉल एसीटेट का प्रमुख स्रोत है। विश्व में लगभग 5000 टन सिट्रोनेला तेल का उत्पादन प्रति साल होता है।

जावा घास या सिट्रोनेला सुगन्धित तेल वाली बहुवर्षीय घास है जिसे वैज्ञानिक भाषा में सिम्बोपोगॉन विन्टेरियेनस के नाम से जाना जाता है। इसकी पत्तियों से तेल आसवित किया जाता है। जिसके मुख्य रासायनिक घटक सिट्रेनेलोल, सिट्रोनेलॉल और जिरेनियॉल इत्यादि हैं। इसके तेल का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों, साबुन, सुगन्ध उद्योग व मच्छर भगाने वाले उत्पादों में बहुतायत से किया जाता है। भारत में सिट्रोनेला का उत्पादन उत्तरी पूर्वी राज्यों के अतिरिक्त महाराष्ट्र में किसानों और उद्यमियों द्वारा किया जाता है। उत्पादक देशों में श्रीलंका, चीन, इंडोनेशिया, भूटान इत्यादि प्रमुख देश हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में सिट्रोनेला की खेती लगभग 2000 हेक्टेयर में की जाती है। जिसके द्वारा लगभग 200 टन तेल उत्पादित किया जाता है।

खेत की जुताई व मिट्टी की तैयारी

सिट्रोनेला की खेती के लिये उत्तर पूर्वी क्षेत्र एवं तराई क्षेत्र की समुचित जल निकास वाली भुरभुरी व अच्छी उर्वरा शक्ति युक्त भूमि उपयुक्त रहती है। भूमि का पीएच 5-7 के बीच सर्वोत्तम रहता है। सिट्रोनेला के लिये भूमि को अच्छी तरह 2 से 3 जुताइयाँ करके पाटा लगा देते हैं इसके उपरान्त आवश्यकतानुसार छोटी-छोटी क्यारियाँ बना ली जाती हैं। 

उर्वरक 

फसल को सन्तुलित मात्रा में सभी प्रकार के सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता पड़ती है इसलिये 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद एवं एक महीने पूर्व भूमि में अच्छी तरह जुताई के साथ मिला देनी चाहिए। केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान द्वारा जावा घास की उन्नतशील किस्में सिम-जावा, बायो-13, मंजूषा, मंदाकिनी, जलपल्लवी विकसित की गई हैं। जड़दार कलमों अथवा स्लिप्स को लगभग 50X40 या 60X30 सेंटीमीटर की दूरी पर मिट्टी में अच्छी तरह दबाकर रोपना चाहिए। सामान्यतः इसकी रोपाई फरवरी/मार्च अथवा जुलाई-अगस्त महीने की जाती है।

20 से 25 टन सड़ी हुई गोबर की खाद या 10 से 15 टन वर्मीकम्पोस्ट अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए। 150:60:60 किग्रा क्रमशः नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश (तत्व के रूप में) प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष देना चाहिए। नत्रजन की मात्रा को 4 बार में बराबर मात्रा में देनी चाहिए तथा फास्फोरस एवं पोटाश लगाने के पूर्व अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देते हैं। पहली सिंचाई पौधरोपण के तुरन्त बाद तथा बाद की सिंचाइयाँ आवश्यकतानुसार करनी चाहिए। अधिक एवं कम पानी का फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है यदि पर्याप्त वर्षा हो रही हो तब सिंचाई न करें। 

 

जलवायु और सिंचाई

जावा घास की बढ़वार के लिए पर्याप्त नवमी की आवश्यकता होती है। अतः जहां वार्षिक वर्षा लगभग 200 से 250 से में होती है, अधिक सिंचाइयों की आवश्यकता नहीं पड़ती, परन्तु उत्तर भारत में दिसंबर से जून तक लगभग 6-8 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।

निराई कटाई 

फसल स्थापित होने के पहली अवस्था फसल रोपने के लगभग 20 से 25 दिन बाद पहली निराई तथा दूसरी निराई 40 से 45 दिन बाद करना चाहिए। इस प्रकार से लगभग 1 वर्ष में 4 से 5 निराइयों की आवश्यकता होती है। पहली कटाई रोपण 4-5 माह बाद और इसके बाद तीन माह के अन्तराल पर वर्ष में 3-4 कटाइयाँ करते रहना चाहिए। जमीन से 15-20 सेंटीमीटर की ऊँचाई पर कटाई करनी चाहिए। जावाघास के शाक का वाष्प आसवन या जल आसवन कर तेल प्राप्त करते हैं। इसकी शाक को काटकर अर्द्ध मुरझाई अवस्था में आसवित करते हैं। 

जावा घास का सम्पूर्ण आसवन करने में लगभग 3 से 4 घंटे लगते हैं। जावा घास की बायो-13 प्रजाति से पाँच वर्ष की फसल के आधार पर तेल की उपज 200-250 किग्रा प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष प्राप्त हो जाती है। विभिन्न कृषि कार्यों व आसवन पर व्यय लगभग रुपए 40,000 से 45,000 प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष होता है तथा कुल आय रुपए 1,60,000/- से 2,00,000/- प्रतिवर्ष तथा शुद्ध लाभ औसत रुपए 1,20,000 से 1,60,000 प्रतिवर्ष प्राप्त होती है।

जैविक खेती: