आखिर किसान ही सभी वर्ग के निशाने पर क्यों हैं ?
सरकार ने हाल ही में उच्चतम न्यायालय में स्वीकार किया कि मुख्य रूप से नुकसान और कर्ज की वजह से पिछले चार वर्षों में लगभग 48,000 किसान अपनी ज़िन्दगी खत्म कर चुके हैं। सरकार के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों से पता चलता है कि यही प्रवृत्ति 1997-2012 के दौरान रही, इस दौरान करीब 2,50,000 किसानों ने अपना जीवन गँवाया, इस अवधि के बाद सरकार विवरण देना बंद कर दिया। खर्चों को पूरा करने के लिए किसानों को बैंकों से या स्थानीय ऋणदाताओं से अपनी फसलों को बोने के लिए उधार लेना पड़ता है। ज़्यादातर मामलों में स्थानीय ऋणदाता होते हैं जो कर्ज देते हैं। एनएसएसओ आँकड़ों के मुताबिक 52% से अधिक किसान औसतन 47,000 रुपए प्रति परिवार कर्ज़दार हैं। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में लगभग 93% और 89% किसान प्रति परिवार क्रमशः 1,23,400 और 93,500 रूपए के कर्ज़दार हैं। पिछले कुछ सालों में भारत में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित कई राज्यों में किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया। किसानों के इस तरह के असंतोष में देश भर से 182 किसानों के संगठन एक साथ आए हैं ताकि किसान मुक्ति यात्रा (किसान लिबरेशन रैली) के बैनर तले देशभर में अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का गठन किया जा सके। उन्होंने किसानों को एकजुट करने और उनकी मदद करने के लिए लाभकारी कीमतों और कृषि नीति की माँग को लेकर तीन रैलियाँ की। पूर्वी भारत में तीसरा चरण प्रगति पर है। 20 नवंबर को बड़े पैमाने पर विरोध करने के लिए सभी किसान दिल्ली में इकट्ठा हुए। भारत में कृषि वाले बड़े समुदाय में यह गुस्सा कृषि क्षेत्र में बढ़ती कठिनाइयों का प्रत्यक्ष परिणाम है क्योंकि भूमिहीन मालिकों को छोड़कर कृषि बड़े पैमाने पर किसानों के लिए बहुत अधिक घाटे वाला हो गया है। इस संकट के अन्य उल्लेखनीय लक्षण वर्षों से किसानों द्वारा आत्महत्या और कृषि छोड़ने की बढ़ती संख्या हैं। जनगणना के आँकड़ों के मुताबिक कृषि संकट का एक अन्य लक्षण यह है कि 2001 और 2011 के बीच 90 लाख किसानों ने खेती करना छोड़ दिया। इसी अवधि में कृषि श्रमिकों की संख्या 3.75 करोड़ बढ़ी, यानी कि 35% की वृद्धि हुई।