किसानों के सुनहरे भविष्य के लिए लाभकारी टिकाऊ खेती
आज देश में बढ़ती हुयी जनसंख्या को पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. वही बिगत साठ वर्षो से प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से हमने बहुत कुछ खो दिया है. दिन प्रतिदिन नई तकनीकों का प्रयोग करके अधिक उत्पादन की चाह में हमने पर्यावरण प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण को मिट्टी प्रदूषण को बढ़ावा दिया है. एक ही खेत में लगातार धान्य फसलों के सघन खेती करने से तथा असंतुलित उर्वरकों एवं रसायनिक कीटनाशी के प्रयोग से मृदा संरचनाए, वायु संचार की दशा तथा मिट्टी जैविक पदार्थ में लगातार गिरावट आयी है. कृषि में रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से जहां खेती की लागत में वृद्धि हुयी है. वही मिट्टी उर्वरता में निरंतर कमी आ रही है.
एक ही खेत में लगातार धान्य फसलों के सघन खेती करने से तथा असंतुलित उर्वरकों एवं रसायनिक कीटनाशी के प्रयोग से मृदा संरचनाए, वायु संचार की दशा तथा मिट्टी जैविक पदार्थ में लगातार गिरावट आयी है. इसके अतिरिक्त मृदा में पाये जाने वाले सुक्ष्म जीवाणुओं तथा कृषक मित्र केंचुओं की संख्या में कमी हुयी है. इसके फलस्वरूप फसलोत्पादन एवं मिट्टी उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. फसलोत्पादन की वृद्धि दर में गिरावट आई है.
जिसे अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों को बिना क्षति पहुंचाये समाज को खाद्य एवं पोषक तत्वों की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है. दीर्घकाल तक हम इस तरह की खेती पर जीवन व्यतीत कर प्रश्नगत है. अभी हाल ही के दशकों में संसार बहुत तेजी से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, तकनीकी, एवं पर्यावरणीय एवं कृषि पारिस्थितिकी तौर पर बदला है. कारण बढ़ती हुई मानवीय भोजन, वस्त्र, मकान आदि की पूर्ति के लिए भूमि, जल एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन हुआ जिससे टिकाऊ खेती की आवश्यकता महसूस हुई, अत: टिकाऊ खेती वह खेती है मानव की बदलती आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए, कृषि में लगने वाले साधनों का इस प्रकार सफल व्यवस्थित उपयोग किया जाना, ताकि प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास न होने पाए और पर्यावरण भी सुरिक्षत रहे. टिकाऊ खेती कोई एक नारा नहीं है, बल्कि यह एक भविष्य की अनिवार्य आवश्यकता है, जिसमें खाद्यान्न-जनसंख्या, भूमि, जल-पर्यावरण तथा लाभ: खर्च अनुपात में सामंजस्य जरु री है तभी भविष्य में मानव पेट भर सकेंगे.
टिकाऊ खेती
बदलते पर्यावरण अर्थात धरती के तापक्र म में वृद्धि, समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी एवं ओजोन की परत में क्षति आदि नई उत्पन्न विषमताओं में कृषि को टिकाऊपन देने के साथ-साथ बढ़ती आबादी को अन्न खिलाने के लिए उत्पादकता के स्तर पर क्र मागत वृद्धि करना ही टिकाऊ खेती है. दूसरे शब्दों में वह खेती है, जो मानव की वर्तमान एवं भावी पीढ़ी की अन्न, चारे, वस्त्र तथा इंधन की आवश्यकताओं को पूरा करे जिसमें परंपरागत विधियों एवं नई तकनीकों का समावेश हो, भूमि पर दबाव कम पड़े, जैव-विविधता नष्ट न हो, रसायनों का कम प्रयोग, जल एवं मिट्टी प्रबन्ध सही हो, टिकाऊ खेती कहलाएगी.
टिकाऊ खेती के लाभ
- मिट्टी की उर्वरा शक्ति को न केवल बनाये रखता हैं बल्कि उसमें वृद्धि भी करता है.
- पोषक तत्वों को संतुलित एवं दीर्घकालीन उपयोगी बनाता है.
- मृदा में लाभकारी सुक्ष्म जीवों की पर्याप्त जनसंख्या को बनाये रखता है.
- भूमिगत जल स्तर को बनाये रखना.
- रसायनों के अत्यधिक उपयोग से होने वाले प्रदूषण का कम होना.
- प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग पर बल
टिकाऊपन में केंचुओं का योगदान
यद्यपि केंचुआ लंबे समय से किसान का अभिन्न मित्र हलवाहा के रूप में जाना जाता रहा है. सामान्यत: केंचुए की महत्ता भूमि को खाकर उलट-पुलट कर देने के रूप में जानी जाती है जिससे कृषि भूमि की उर्वरता बनी रहती है. यह छोटे एवं मझोले किसानों तथा भारतीय कृषि के योगदान में अहम् भूमिका अदा करता है केंचुआ कृषि योग्य भूमि में प्रतिवर्ष एक से पांच मि.मी. मोटी सतह का निर्माण करते हैं. इसके अतिरिक्त केंचुआ भूमि में निम्न ढंग से उपयोगी एवं लाभकारी है.
- भूमि की भौतिक गुणवत्ता में सुधार
- केंचुए भूमि में उपलब्ध फसल अवशेषों को भूमि के अंदर तक ले जाते हैं और सुरंग में इन अवशेषों को खाकर खाद के रूप में परिविर्तत कर देते हैं तथा अपनी विष्ठा रात के समय में भू सतह पर छोड़ देते हैं. जिससे मिट्टी की वायु संचार क्षमता बढ़ जाती है. एक विशेषज्ञ के अनुसार केंचुए 2 से 250 टन मिट्टी प्रतिवर्ष उलट-पलट कर देते हैं जिसके फलस्वरूप भूमि की 1 से 5 मि.मी. सतह प्रतिवर्ष बढ़ जाती है.
- केंचुओं द्वारा निरंतर जुताई व उलट-पलट के कारण स्थायी मिट्टी कणों का निर्माण होता है जिससे मृदा संरचना में सुधार एवं वायु संचार बेहतर होता है जो भूमि में जैविक क्रि याशीलता, ह्यूमस निर्माण व नाइट्रोजन स्थिरीकरण के लिए आवश्यक है.
- संरचना सुधार के फलस्वरूप भूमि की जलधारण क्षमता में वृद्धि होती है तथा रिसाव एवं आपूर्ति क्षमता बढ़ने के कारण भूमि जल स्तर में सुधार एवं खेत का स्वत: जल निकास होता रहता है.
- मृदा ताप संचरण व सूक्ष्म पर्यावरण के बने रहने के कारण फसल के लिए मृदा जलवायु अनुकूल बनी रहती है.
- पौधों को अपनी बढ़वार के लिए पोषक तत्व भूमि से प्राप्त होते हैं तथा पोषक तत्व उपलब्ध कराने की भूमि की क्षमता को भूमि उर्वरता कहते हैं. इन पोषक तत्वों का मूल स्रोत मृदा पैतृक पदार्थ फसल अवशेष एवं सूक्ष्म जीव आदि होते हैं. जिनकी सिम्मलित प्रक्रि या के फलस्वरूप पोषक तत्व पौधों को प्राप्त होते हैं. सभी जैविक अवशेष पहले सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघिटत किये जाते हैं. सूक्ष्म जीवों तथा केंचुआ सिम्मलित अपघटन से जैविक पदार्थ उत्तम खाद में बदल जाते हैं और भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं.
टिकाऊ खेती के आधार
- विभिन्न फसलों का फसल प्रणाली में समावेश करने से प्रति इकाई लागत को कम किया जा सकता है. इससे विभिन्न प्रकार की खाद्यान्न जैसे धान्य, दाल, तेल इत्यादि आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ मृदा स्वास्थ्य का संरक्षण होता है.
- संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करे. इससे फसलों का गुणवत्ता उत्पादन युक्त भरपूर होगा. यहां पर संतुलित उर्वरक प्रयोग से तात्पर्य सिर्फ यह हैं कि नाइट्रोजन फास्फोरस व पोटाश का सही अनुपात में प्रयोग करें इसके अभाव आवश्यकतानुसार सूक्ष्म पोषक तत्वों का भी प्रयोग करना है. आवश्यक संतुलित उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी में पोषण तत्वों की उपलब्धता में होने वाले असंतुलन भी कम होता है.
- एकीकृत पोषक तत्वों आपुर्ति प्रबन्धन आवश्यक है. इसके अन्तर्गत कार्बिनक खादें जैसे गोबर की खाद, हरी खाद, वर्मी कम्पोस्ट इत्यादि का रासायनिक उर्वरकों के साथ उचित मात्र में प्रयोग किया जाता है. इससे उत्पादकता में वृद्धि के साथ-साथ मृदा स्वास्थ्य में भारी सुधार होता है.
- जल का समुचित प्रयोग करें. फसलों में जल के उचित प्रबंधन से उर्वरक एवं अन्य उत्पादन घटकों की उपयोग क्षमता को बढ़ाया जा सकता है.
- खर पतवारों का एकीकृत नियंत्रण करना. खरपतवार के प्रभावशाली नियंत्रण के लिए नाशी रसायनों जैविक तौर-तरीका भी अपनाया जाए प्रदूषण को भी कम किया जा सकता है.
- रोग एवं कीटों का एकीकृत नियंत्रण करना. रोग एवं कीटों का समिन्वत नियंत्रण करने से कीटों व रोगों का रासायनिक पदार्थों के प्रति होने वाले सहनशीलता को नियन्त्रित किया जा सकता है. तथा साथ-साथ कृषि लागत में भी कमी की जा सकती है.
Dr. Radha kant
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