जैविक कीटनाशक अपनाकर पानी प्रदूषण से बचाएं

जैविक कीटनाशक अपनाकर पानी प्रदूषण से बचाएं

विकास की अंधी दौड़ में हमने अपनी परम्परागत खेती को छोड़कर आधुनिक कही जाने वाली खेती को अपनाया। हमारे बीज- हमारी खाद- हमारे जानवर सबको छोड़ हमने अपनाये उन्नत कहे जाने वाले बीज, रसायनिक खाद और तथाकथित उन्नत नस्ल के जानवर। नतीजा, स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर किसान खाद, बीज, दवाई बेचने वालों से लेकर पानी बेचने वालों और कर्जा बांटने वालों तक के चँगुल में फंस गये। यहां तक की उन्नत खेती और कर्ज के चंगुल में फँसे कई किसान आत्म हत्या करने तक मजबूर हो गये । खेती में लगने वाले लागत और होने वाला लाभ भी बड़ा सवाल है, किन्तु खेती केवल और केवल लागत और लाभ ही नहीं है हमारे समाज और बच्चों का पोषण, मिट्टी की गुणवत्ता, पर्यावरण, जैव विविधता, मिट्टी और पानी कर संरक्षण, जानवरों का अस्तित्व तथा किसानों और देश की सम्प्रभुता भी खेती से जुड़े हुए व्यापक मसले है।

हम तो परम्परागत तौर पर मिश्रित और चक्रीय खेती करते आये हैं। जिसमें जलवायु, मिट्टी की स्थिति और पानी की उपलब्धता के आधार पर बीजों का चयन होता रहा है। हमारे खेतों में हरी खाद एवं गोबर की खाद का उपयोग होता था। हमारे पूर्वज पूर्ण जानकार थे पानी वाली जगहों पर पानी वाली और कम पानी वाली जगहों पर कम पानी वाली फसल करते थे। हमारे खेतों में खेती के अलावा, फल वाले पौधे, इमारती और जलाऊ लकड़ी के पेड़, जानवरों के लिये चारा सब कुछ तो होता था । किन्तु एक फसली उन्नत और आधुनिक कही जाने वाली खेती के चक्रव्यूह में हमने अपनी परम्परागत और उन्नतशील खेती को छोड़ दिया । हमारी खेती केवल अनाज पैदा करने का साधन मात्र नहीं है बल्कि हमारी संस्कृति से जुड़ी हुयी है।

 

हमारी खेती, जल-जमीन-जंगल, जानवर, जन के सहचर्य- सहजीवन और सह-अस्तित्व की परिरचायक है। ये पॉचों एक दूसरे का पोषण करने वाले और एक दूसरे को संरक्षण देने वाले है सबका जीवन और अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है और ये भी सही है कि जन के ऊपर स्वयं के विकास के साथ-साथ बाकी सबके भी संतुलित संरक्षण और संवर्धन की जिम्मेदारी है। हमारी परम्परागत खेती पद्वति सहजीवन और सह अस्तित्व की परिचायक रही है, जबकि आधुनिक खेती संसाधनों के बेहतर प्रयोग के स्थान पर उनके अधिकतम दोहन में विश्वास करती है। अब तो अधिकतर कृषि वैज्ञानिक, जानकार आदि भी मानने लगे है कि हमारी परम्परागत फसल पद्वति ही बेहतर और टिकाऊ है। यह बात तो सही है कि आबादी-बढ़ने के कारण जमीने बँट गयी है और जोत का आकार छोटा हो गया है। किन्तु छोटी जोत का मतलब अलाभकारी खेती तो नही है। खेती का लाभ फसल के उत्पादन के साथ उसमें लगने वाली लागत और फसल पद्वति के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के रूप में ही नापा जा सकता है।

 

हमारी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से एक ओर तो हमें जमीनों उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास करने है और दूसरी ओर खेती में लगने वाली लागत को कम करते हुए पर्यावरण संतुलन को बनाये रखना होगा । हम सब को मिलकर "छोटी जोत अलाभदायक हैं," जैसे दुष्प्रचारों से निपटने के कारगर उपाय भी ढूंढ़ने होंगे । हम सब मिलकर वैज्ञानिक सोच, परम्परागत ज्ञान, और फसल पद्वतियों के संयोजन से लागत कम करते हुये लाभकारी और पर्यावरण हितैषी खेती को अपना कर अपनी फसल, खेत पानी आदि की गुणवत्ता को बढ़ा सकते हैं।

 

अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये हमें अपनी खेती को बेहतर बनाना होगा । रसायनिक खादों, कीटनाशकों, पानी और बीज के अनियंत्रित उपयोग को रोकते हुये एवं टिकाऊ खेती पद्वतियों को अपनाते हुए खेती की लागत कम और उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास करने होंगे । टिकाऊ खेती में ऐसा कुछ नही है जो हम पहले से नहीं जानते हैं- हमें रासायनिक खादों और कीटनाशकों का मोह त्याग कर जैविक खाद (हरी खाद, गोबर की खाद) जैविक कीटनाशक (गोबर, गौमूत्र, नीम, गुड़, तुलसी, खली आदि) का उपभोग बढ़ाना होगा, आवश्यकता के अनुसार कूडवार खेती अपनानी होगी । जिससे न केवल खेती की लागत में कमी आयेगी अपितु कुल उत्पादन में वृद्वि के साथ मिट्टी और पानी का सरंक्षण भी होगा । हम अपनी छोटी जोत की खेती की योजना बनाकर मिश्रित, चक्रिय, जैविक खेती अपनाकर लाभदायक और पर्यावरण हितैषी जोत में परिवर्तित कर सकते है ।