बेलवाली सब्जियों की अगेती खेती

बेलवाली सब्जियां जैसे लौकी, तोरई, तरबूज,खरबूजा, पेठा, खीरा, टिण्डा, करेला आदि की खेती मैदानी भागो में गर्मी के मौसम में मार्च से लेकर जून तक की जाती है. इन सब्जियों की अगेती खेती जो अधिक आमदनी देती है, करने के लिए पॉली हाउस तकनीक में जाड़े के मौसम में इन सब्जियों की नसर्री तैयार करके की जा सकती है. पहले इन सब्जियों की पौध तैयार की जाती है तथा फिर मुख्य खेत में जड़ो को बिना क्षति पहुँचाये रोपण किया जाता है. इन सब्जियों की पौध तैयार करने से अनेक लाभ हैं जो इस प्रकार हैं.

एक से डेढ़ माह अगेती फसल ली जा सकती है.

वर्षा, ओला, कम या अधिक तापमान, कीड़े व रोगो से पौध सुरक्षा कर सकते है.

पौधों के लिए आवश्यक वातावरण प्रदान कर समय से पौधे तैयार किये जा सकते है.

बीज दर कम लगती है जिससे उत्पादन लागत कम होती है.

पौध तैयार करने की विधि

जाडे क़े मौसम में अर्थात दिसम्बर और जनवरी के महीने में इन सब्जियों की नर्सरी तैयार करने के लिए बीजों को पालीथीन की थैलियों में बोया जाता है. पालीथीन की छोटी-छोटी थैलिया जिनका आकार 10x7 सेमी. या 15x10 सेमी. और मोटाई 200-300 गेज हो का चयन करते है. इन थैलियो में मिट्टी, खाद व बालू रेत का मिश्रण 1:1:1 के अनुपात में बनाकर भर लिया जाता है. मिश्रण भरने से पहले प्रत्येक थैली की तली में 2-3 छेद पानी के निकास के लिए बना लेते है. थैलियों को भरने बाद एक हल्की सिंचाई कर देते है. बेलवाली सब्जियों के बीजों की थैलियों में बुआई करने से पुर्व इनका अंकुरण कराना आवश्यक है क्योकि दिसम्बर -जनवरी में अधिक ठण्ड के कारण जमाव बहुत देर से होता है. बुआई करने से पहले बीजों को केप्टान (2 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज) से उपचारित कर लेना चाहिए. अंकुरण कराने के लिए सर्वप्रथम बीजो को पानी में भिगोते है तत्पश्चात उन्हे एक सुती कपड़े या बोरे के टुकड़े में लपेट कर किसी गर्म स्थान पर रखते है जैसे बिना सड़ी हुई गोबर की खाद या भूसा या अलाव बुझ जाने के बाद गर्म राख में. बीजो को जमाव के लिए भिगोने की अवधि 3-4 घन्टे (खरबूजा, तरबूज, ककड़ी, खीरा, कुम्हड़ा), 6-8 घन्टे (लौकी, तोरई, पेठा), 10-12 घन्टे (टिण्डा, चिचिण्डा) तथा 48 घन्टे (करेला) है. बीजो की बुआई 25-30 दिसम्बर के आस-पास कर देनी चाहिए.

बुआई के 3-4 दिन बाद बीजों में अंकुरण हो जाता है. इन अंकुरित बीजों का पहले से भरी हुई थैलियों में बुआई कर देते है. प्रत्येक थैली में 2-3 बीजों की बुआई कर देते है. पौधे बड़े होने पर प्रत्येक थैली में एक या दो पौधा छोड़कर अन्य को निकाल देते है. पौधों को निम्न ताप से बचाने के लिए 1-1.5 मीटर की ऊँचाई पर बांस या लकड़ी गाड़ कर पालीथिन की चादर से ढक देना चाहिए ताकि तापक्रम सामान्य से 8-10 डिग्री सेल्सियस अधिक बना रहे और पौधों का विकास सुचारु रुप से हो सके . इस प्रकार दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में बोई गई नर्सरी जनवरी के अन्त तक तैयार हो जाती है. सामान्यत: 5000 पौधें तैयार करने के लिए 9x3.5 मीटर आकार के पॉली हाउस की आवश्यकता होती है जिसका पूरा क्षेत्रफल 31.5 वर्गमीटर होता है. इसमें प्रयुक्त पालीथीन 400 गेज मोटी होती है. पॉली हाउस की ऊँचाई उत्तर दिशा में 2 मीटर तथा दक्षिण दिशा में 1.80 मीटर रखतें है. पॉली हाउस में आने जाने के लिए एक दरवाजा जिसकी चौड़ाई 75 सेमी. तथा ऊँचाई 2 मीटर रखते है .

खाद एवं उर्वरक

खेत की अन्तिम जुताई के समय 200-500 कुन्टल सड़ी-गली गोबर की खाद मिला देना चाहिए. सामान्यत: अच्छी उपज लेने के लिए प्रति हेक्टेयर 240 किग्रा यूरिया, 500 किग्रा सिगंल सुपर फास्फेट एवं 125 किग्रा म्यूरेट ऑफ पोटास की आवश्यकता पड़ती है. इसमे सिंगल सुपर फास्फेट एवं पोटास की पूरी मात्रा और युरिया की आधी मात्रा नाली बनाते समय कतार में डालते है. यूरिया की चौथाई मात्रा रोपाई के 20- 25 दिन बाद देकर मिट्टी चढ़ा देते है तथा चौथाई मात्रा 40 दिन बाद टापड्रेसिंग से देना चाहिए. लेकिन जब पौधों को गढढ़े में रोपते है तो प्रत्येक गढढ़े में 30-40 ग्राम यूरिया, 80-100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 40-50 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटास देकर रोपाई करते है.

पौधों की खेत में रोपाई

इन सब्जियों की बुआई के लिए नाली या थामला(हिल तथा चैनल) तकनीक अच्छी मानी जाती है. इसके लिए यदि सम्भव हो तो पुरब से पश्चिम दिशा की ओर 45 सेमी चौडी तथा 30-40 सेमी. गहरी नालियां रोपाई से पहले बना लेते है. एक नाली से दुसरी नाली के बीच की दूरी 2 मीटर (खीरा, टिण्डा) से 4 मीटर (कद्दू,पेठा,तरबूज, लौकी, तोरई) तक रखी जाती है. प्रत्येक नाली के उत्तरी किनारे पर थामले बना लेते है. एक थामले से दुसरे थामले की दूरी 0.50 मीटर (चप्पन कद्दु, टिण्डा व खीरा) तथा 0.75 से 1.00 मीटर (कद्दू, करेला, लौकी ,तरबूज) रखते है. इस विधि से खेती करने से खाद,पानी तथा निराई गुडाई पर कम खर्च आता है तथा पैदावार भी अधिक प्राप्त होती है. नालियों के बीच की जगह सिंचाई नही की जाती जिससे बेलो पर लगने वाले फल गीली मिट्टी के सम्पर्क में नही आते तथा खराब होने से बच जाते है.

रोपाई का कार्य फरवरी माह में जब पाला पड़ने का अंदेशा समाप्त हो तब पालीथिन की थैलियों से पौधा मिट्टी सहित निकाल कर तैयार थामलो में शाम के समय रोपाई कर देते है . एक थामले में एक ही पौधा लगाना चाहिए. रोपाई के तुरन्त बाद पौधों की हल्की सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए. रोपण से 4-6 दिन पुर्व सिंचाई रोक कर पौधों का कठोरीकरण करना चाहिए. कद्दूवर्गीय सब्जियों की बेमौसम खेती से अच्छी एवं गुणवत्तायुक्त उपज प्राप्त करने के लिए क्रान्तिक अवस्थाओं (वर्धीय बृध्दि काल की अवस्था, पुष्पन की अवस्था, फल विकास की अवस्था) में सिंचाई अवश्य करना चाहिए. रोपाई के 10-15 दिन बाद हाथ से निराई करके खरपतवार साफ कर देना चाहिए तथा समय-समय पर निराई गुडाई करते रहना चाहिए. पहली गुडाई के बाद जड़ो के आस पास हल्की मिट्टी चढ़ानी चाहिए.

कटाई, छटाई एवं सहारा देना

अधिक उपज प्राप्त करने और फलों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए कद्दूवर्गीय सब्जियों की कटाई छटाई अति आवश्यक होती है जैसे खरबूजा में 3-7 गाँठ तक सभी द्वितीय शाखाओं को काट देने से उपज एवं गुणवत्ता में वृध्दि हो जाती है . तरबूज में 3-4 गाँठ के बाद के भाग की कटाई-छटाई कर देने से फल की गुणवत्ता में अच्छी वृध्दि होती है.

इसी प्रकार इस कुल की सब्जियों में सहारा देना अति आवश्यक है सहारा देने के लिए लोहे की एंगल या बांस के खम्भे से मचान बनाते है. खम्भों के ऊपरी सिरे पर तार बांध कर पौधों को मचान पर चढ़ाया जाता है. सहारा देने के लिए दो खम्भो या एंगल के बीच की दूरी 2 मीटर रखते हैं लेकिन ऊँचाई फसल के अनुसार अलग-अलग होती है सामान्यता करेला और खीरा के लिए 4.50 फीट लेकिन लौकी आदि के लिए 5.50 फीट रखते है .

उपज

इस विधि द्वारा मैदानी भागो में इन सब्जियो की खेती लगभग एक महीने से लेकर डेढ़ महीने तक अगेती की जा सकती है तथा उपज एवं आमदनी भी अधिक प्राप्त की जा सकती है. इस प्रकार खेती करने से टिण्डा की 100-150 कुन्टल, लौकी की 450-500 कुन्टल, तरबूज की 300-400 कुन्टल, कुम्हडा की 800-850 कुन्टल, पेठा की 550-600 कुन्टल, खीरा, करेला एवं आरा तोरई की 250-300 कुन्टल तथा खरबूजा एवं चिकनी तोरई की 200-250 कुन्टल उपज प्रति हेक्टेयर की जा सकती है.

 

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