शिकंजे में जैविक खेती
जरा सोचिए, देश के किसी दूर-दराज इलाके का छोटा किसान जिसकी रोजी-रोटी एक एकड़ से भी कम खेती पर टिकी है और जो ज्यादा महंगे उरर्वक डालने के बजाए परंपरात खेती के भरोसे है, उसे जैविक खेती करने वाला किसान कहलाने के लिए क्या करना पड़ेगा? वह ज्योग्राफिक पॉजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस)नाम का उपकरण खरीदेगा, दशमलव के दूसरे स्थान तक खेत के अक्षांश और देशांतर नापेगा, एक कंप्यूटर खरीदेगा जिसमें खास सॉफ्टवेयर डालकर खेती से जुड़ी सूचनाएं और आंकड़े फीड करेगा। इतना ही नहीं इस सॉफ्टवेयर के जरिए वह खेत पर आपकी रोजमर्रा की गतिविधियों, जैसे बीज कहां से खरीदा, खाद कहां से लाया फसल की खरीद-बिक्री आदि का रिकॉर्ड उपलब्ध कराएगा। इन सब के अलावा उसको सालाना बेलेंस शीट भी तैयार करनी पड़ेगी। यह बाध्यता भारत सरकार की ओर से किसानों पर लादी जा रही है और इन सब ताम-झाम को पूरा नहीं करने का मतलब है कि उसे जैविक खेती करने वाले किसान का दर्जा नहीं मिलेगा। यह है परिभाषाओं, प्रमाण पत्रों और प्रक्रियाओं के सरकारी झमेले में फांसी जा रही जैविक खेती की स्थिति जिसकी लगाम कृषि मंत्रालय के बजाय वाणिज्य मंत्रालय के हाथों में है। वाणिज्य मंत्रालय तय कर रहा है कि देश में जैविक खेती कैसे की जाएगी और कैसे जैविक खेती का ठप्पा किसान पर लगेगा। भले ही इन दिनों जैविक खेती अभिजात्य शहरी जीवन का नया शगल हो लेकिन असल में यही वह खेती है जो देश के करोड़ों छोटे किसानों के लिए उपयुक्त है। अगर देखा जाए तो देश के आधे से ज्यादा किसान महंगी लागत वाली खेती न कर पाने के चलते ऐसी खेती कर रहे हैं, जिसे जैविक करार दिया जाता है। इनकी खेती बारिश पर निर्भर है और इनके आर्थिक हालत इन्हें महंगे रसायन और उर्वरक डालने की अनुमति नहीं देते। लेकिन अपनी नियति से जैविक किसान बने देश के ऐसे करोड़ों छोटे किसानों की खेती सरकारी मानकों के हिसाब से कतई जैविक नहीं है। और जब तक ये किसान कंप्यूटर के जरिए आंकड़ों की बाजीगरी करना नहीं सीख जाते, यह जैविक हो भी नहीं पाएगी। जैविक खेती की समर्थक और पूर्व पत्रकार भवदीप कांग कहती हैं, 'आज भी योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार देश में 60 फीसदी से अधिक किसान जैविक खेती कर रहे हैं। देश के कुल अनाज भंडार में इनका योगदान 40 फीसदी से भी अधिक है। ये सभी वर्षा-आधारित खेती कर रहे हैं। लेकिन वाणिज्य मंत्रालय इन पर अव्यवाहरिक मानक लाद कर इन्हें प्रमाण पत्र के झंझट में फंसा रहा है। जैविक खेती का प्रमाण पत्र हासिल करने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आम किसान के लिए खेती के साथ-साथ इसे कर पाना संभव नहीं है।Ó सिर्फ निर्यात को ध्यान में रखकर बनाई जा रही ऐसी नीतियां देसी खेती के लिए तो घातक हैं ही, साथ ही जैविक खेती के आंदोलन में शामिल होने से करोड़ों किसानों को वंचित रखने की साजिश का हिस्सा भी हैं। ऐसी नीति जनता को भी सस्ते और अच्छे अन्न से वंचित कर महंगे जैविक फूड का बाजार बढ़ा रही है। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में बिना किसी सरकारी प्रमाण पत्र के जैविक खेती करने वाले किसान शक्ति सिंह कहते हैं कि सरकार की गलत नीतियों के चलते जैविक आंदोलन को धक्का पहुंचा है। उनके जैसे बहुत से किसान तन-मन से जैविक खेती में लगे हैं लेकिन जैविक किसान का प्रमाण पत्र उनके लिए दूर की कौड़ी है। सिंह के मुताबिक, 'प्रमाण पत्र के नियम और शर्तें ऐसी हैं कि इसे हासिल करना छोटे काश्तकार के बस की बात नहीं। उसके लिए अंग्रेजी का ज्ञान अनिवार्य हो गया है। यह पूरी तरह अव्यवहारिक है। दो जून की रोटी को तरसने वाले किसान के साथ भद्दा मज़ाक। प्रमाणित जैविक खेती सिर्फ गिने-चुने बड़े किसानों और निर्यातकों तक सीमित रह गई है। वाणिज्य मंत्रालय के तहत कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देने वाली संस्था एग्रीकल्चर एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट यानी एपीडा की ओर से दिए जाने वाले जैविक खेती के प्रमाण पत्र की फीस और कागजी कार्यवाही का खर्च ही करीब एक लाख रुपये सालाना आता है। इसके अलावा कंप्यूटर खरीदने, इंटरनेट कनेक्शन लेने, आंकड़े उपलब्ध कराने, जीपीएस और अंग्रेजी में दस्तावेज तैयार करने के लिए का झंझट अलग। चूंकि छोटे किसान यह सब नहीं कर पाएंगे इसलिए जैविक खेती के सिद्धांत पर खेती के बावजूद उनके उत्पाद जैविक अन्न के तौर पर बाजार में नहीं बिकेंगे। इस दुष्चक्र के चलते छोटे किसानों का मोह जैविक खेती से भंग हो रहा है। जबकि विश्व बैंक का अध्ययन बताता है कि भारत और चीन में जब किसानों ने जैविक खेती अपनाई है उनकी आमदनी और जीवन स्तर सुधरा है। देसी खेती और जैविक खेती के बीच बन रहे इस फासले की शुरुआत उस सरकारी परिभाषा से हुई जिसके मुताबिक जिस खेती को प्रमाण पत्र हासिल नहीं है, वह जैविक नहीं है। यहां तक कि बिना ऐसे प्रमाणपत्र के उत्पाद घरेलू बाजार में भी जैविक कहकर नहीं बेचे जा सकते हैं। एपीडा की जैविक संबंधी मामलों की सलाहकार डॉ. पीवीएसएम गौरी कहती हैं कि उत्पाद के विदेशों को निर्यात के लिए प्रमाण पत्र बुनियादी जरूरत है। जैविक फूड के प्रमुख ग्राहक देश ऐसे प्रमाण पत्र के बगैर उत्पाद स्वीकार नहीं करते। घरेलू और अन्तर्राष्टï्रीय बाजार में प्रमाणित जैवित फूड की मांग और कीमत दोनों ही ज्यादा होती है। किसानों के बीच खेती का स्तर बढ़ाने में मदद मिलती है। छोटे किसानों को समूह में प्रमाण पत्र देने और इस पर आने वाले खर्च पर सब्सिडी देने जैसी सुविधाएं दी जा रही हैं। लेकिन संयुक्त राष्टï्र का खाद्य और कृषि संगठन यानी एफएओ भी भारत सरकार की इस कारगुजारी की आलोचना कर चुका है। एफएओ का साफ कहना है कि भारत सरकार ने जैविक खेती का प्रमाणन इतना महंगा बना दिया है कि उपभोक्ताओं के लिए जैविक खाद्य खरीदना खासा महंगा हो गया है। एफएओ की रिपोर्ट का तो यहां तक कहना है कि ऐसी प्रक्रिया छोटे किसानों के हितों के खिलाफ है जबकि बड़े कृषि कारोबार को फायदा पहुंच रहा है। दरअसल, यह समस्या जैविक खेती के निर्यातोन्मुख होने से पैदा हुई है। इसके कारण सरकार ने इस खेती व्यवस्था को ही प्रमाणीकरण केंद्रित बना दिया है। इसीलिए देश की 10 करोड़ हेक्टेयर से अधिक जैविक खेती में से सरकार सिर्फ 10 लाख हैक्टेयर को ही जैविक का दर्जा देती है। सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि देश में जैविक प्रमाणीकरण की जिम्मेदारी कृषि मंत्रालय की न होकर, वाणिज्य मंत्रालय की है। इसके लिए जो नियम बनाए गए हैं वे अमेरिका एवं यूरोपीय यूनियन से ज्यों की त्यों टीप लिए गए हैं। वहां पांच हजार एकड़ वाला किसान जैविक खेती करता है और यहां पांच एकड़ वाला तो जैविक खेती ही करता है। इसके बावजूद एपीडा के आला अधिकारी जैविक खेती के लिए प्रति एकड़ मिलने वाली दस हजार रुपये की सब्सिडी और कुछ अन्य सरकारी योजनाओं के बूते जैविक खेती की इस चुनौती को झूठलाने का दावा करते हैं। वास्तव में जैविक खेती अजीब विरोधाभास के बीच पीस रही है। कृषि अर्थशास्त्री और नीति-नियामक इस बहस में उलझे हुए हैं कि अगर देश में सारी कृषि प्रणाली जैविक हो जाए तो देश का पेट कैसे भरेगा। एग्रो-केमिकल लॉबियां यह साबित करने में जुटी हुई हैं कि जैविक खेती से देश में अन्न का संकट पैदा हो जाएगा। जबकि गैर-सरकारी संगठन और कुछ सरकारी अधिकारी किसानों को समझाने में जुटे हैं कि जैविक खेती करोगे तो उपज की कीमत ज्यादा मिलेगी। तुम्हारा माल निर्यात होगा, डॉलर के भाव बिकेगा। इसके जरिये वे देश में दूसरी हरित क्रांति की दिशा ढूंढ रहे हैं। इस विरोधाभास के बीच बड़े किसानों और कंपनियों के महंगे ऑर्गेनिक फूड और जैविक खेती का ठप्पा देने वाली कंपनियों का कारोबार खूब फल-फूल रहा है।