ताकि कृषि उत्पादन में कमी न आए
पृथ्वी का बढ़ता तापमान और जलवायु परिवर्तन के आगाज ने विषम परिस्थितियाॅं उत्पन्न कर दी हैं। औसत तापमान, औसत वर्षा और वायु प्रकृति में बदलाव से मौसम में बदलाव का असर अब कृषि में दिखने लगा है। ऐसी स्थितियों के चलते फसलों का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। मौसम की अनिश्चितता को देखते हुए कुछ उपाय अपनाए जा रहे हैं। फसल चक्र में परिवर्तन किया जाकर खाद्यान्न उत्पादन को बरकरार रखा जा रहा है। फिर भी मौसम परिवर्तन की चुनौतियाॅं विकराल होती जा रही हैं। पिछले 10 वर्षों में पृथ्वी का तापमान 1 से 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है। अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन संस्था ने ऐसा आंकलन कर कहा है कि बदली स्थिति में मानव जीवन एवं कृषि पर कुप्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है।
पृथ्वी के बढ़ते तापमान ने शनैः-शनैः ऐसी परिस्थिति में ला खड़ा किया है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में समस्याएॅं उठ खड़ी हुई हैं। धरती का तापमान बढ़ाने वाली ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के वैश्विक समझौतों को गंभीरता से नहीं लिए जाने से कई खतरे हमारे सामने उठ खड़े हुए हैं। विश्व में कृषि क्षेत्र से 50 प्रतिशत मीथेन, 70 प्रतिशत नाइट्रस आक्साइड का उत्सर्जन किया जा रहा है। सर्वाधिक तापमान बढ़ाने वाली कार्बन डाईआॅक्साइड का उत्सर्जन औद्योगिक क्षेत्रों से हो रहा है। परन्तु, आर्थिक विकास को देखते हुए कार्बन डाईआॅक्साइड के उत्सर्जन को अपेक्षाकृत कम नहीं किया जा सका है। इसके चलते पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, जलवायु परिवर्तन हो रहा है और मौसम बदलने से खाद्यान्न उत्पादन में कमी आने लगी है।
एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार 1971-81 के दशक के बाद वर्षा के औसत में गिरावट आई है। मानसून की वर्षा में अनियमितता बढ़ रही है, खंड वृष्टि भी बढ़ रही है। मानसून वर्षा का आगमन सामान्य में 100 मिमी. जल्दी की तरफ बढ़ रहा है। साथ ही साथ इसकी सक्रिय समयावधि भी बढ़ रही है। शीतकालीन वर्षा के औसत में कमी आई है, जबकि मानसून पूर्व की वर्षा का औसत बढ़ रहा है। पिछले कई वर्षों से मौसम की असामान्य परिस्थितियाॅं बढ़ गई हैं। जैसे एक ही दिन में अत्यधिक वर्षा, पाला, सूखे का अंतराल, फरवरी, मार्च माह में तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि, मार्च-अप्रैल माह में तेज बारिश, ओला वृष्टि होने लगी है। सबसे अहम समस्या तो तूफानों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। तूफानों के कारण जनजीवन पर प्रभाव पड़ ही रहा है, पर फसलें बरबाद होने लगी हैं।
जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से कृषि सबसे संवेदनशील क्षेत्र है। पिछले कई वर्षों से मानसून की बदलती प्रकृति, तापमान वृद्धि व तूफानों के चलते गेंहू उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। उत्तरी भारत में गेंहू की फसल कम होने लगी है। कृषि वैज्ञानिक के अनुमान के अनुसार भारत में अगले दशक तक गेंहू उत्पादन 5 से 6 मिलियन टन तक कम हो जाएगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण रबी और खरीफ फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव अब दिखने लगा है। इससे निपटने के लिए फसल चक्र में परिवर्तन किया जाना अब जरूरी हो गया है। मौसम के अनुसार टिकाऊ खेती एवं तापमान के प्रति सहिष्णु किस्मों के प्रयोग से जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव को कम किया जा सकता है।
गेंहू की फसल की उत्पादकता को बनाए रखने के लिए कृषि अनुसंधान ने जो प्रयोग किए हैं, वे सार्थक सिद्ध हुए हैं। गेंहू की फसल में गांठ बनते समय एवं बालियां आने की अवस्था में ऐसे उपाय अपनाए गए हैं। थायोयूरिया (500 पीपीएम), थायोग्लाकोलिक अम्ल (100 पीपीएम) तथा सेलिसाइलिक अम्ल (500 पीपीएम) जैसे जैविक वृद्धि नियामकों के प्रयोग से गेंहू उपज, जड़ की लम्बाई में वृद्धि देखी गई है। मौसम की अनियमितताओं जैसे अधिक तापमान, पाला, सूखा, नमी की कमी इत्यादि से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए कृषि तकनीकी, फसल विविधीकरण एवं अन्तराशस्य भी उपयोगी है।
बहरहाल मौसम बदल रहा है। खाद्यान्न उत्पादन में कमी न आए, इसके लिए फसल चक्र में परिवर्तन करना जरूरी हो चला है। वहीं नवीन अनुसंधानों की तकनीक अपनाकर फसल उत्पादन को बरकरार रखा जा सकता है।
पर्यावरण ऊर्जा टाइम्स
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