भारत में कृषि की बढती चुनौतियाँ एवं समस्याएँ
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की केन्द्रबिन्दु व भारतीय जीवन की धुरी है। आर्थिक जीवन का आधार, रोजगार का प्रमुख स्रोत तथा विदेशी मुद्रा अर्जन का माध्यम होने के कारण कृषि को देश की आधारशिला कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। देश की कुल श्रमशक्ति का लगभग 52 प्रतिशत भाग कृषि एवं कृषि से सम्बन्धित क्षेत्रों से ही अपना जीविकोपार्जन कर रही हैं। अतः यह कहना समीचीन होगा कि कृषि के विकास, समृद्धि व उत्पादकता पर ही देश का विकास व सम्पन्नता निर्भर है।
स्वतन्त्रता के पश्चात कृषि को देश की आत्मा के रूप में स्वीकारते हुए एवं खेती को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करते हुए देश के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु ने स्पष्ट किया था कि "सब कुछ इन्तजार कर सकता है मगर खेती नहीं।" इसी तथ्य का अनुसरण करते हुए भारत सरकार कृषि क्षेत्र को विकसित करने एवं कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने हेतु अनेक कार्यक्रमों, नीतियों व योजनाओं का संचालन कर रही है। सरकार ने वर्ष 1960-61 में भूमि सुधार कार्यक्रम का सूत्रपात किया जिससे किसानों को भूमि का मालिकाना हक प्राप्त हुआ। इसी प्रकार सरकार ने भू-जोतों की अधिकतम सीमा तथा चकबन्दी जैसे कार्यक्रमों को प्राथमिकता प्रदान की जिससे कृषक वर्ग लाभान्वित हो सके।
इसी क्रम में, कृषि विकास में वित्त की भूमिका को दृष्टिगत रखते हुए सरकार ने किसानों को उचित ब्याज दरों पर, सही समय पर ऋण उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत साख व्यवस्था को प्राथमिकता प्रदान की। इसके लिए सहकारी ऋण व्यवस्था, बैंकों के राष्ट्रीयकरण, नाबार्ड व क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना जैसे प्रभावी कदम उठाए गए। ज्ञातव्य है कि वर्ष 1950-51 में कृषि साख में संस्थागत साख का योगदान मात्र 3.1 प्रतिशत था जो कि वर्तमान में बढ़कर 55 प्रतिशत से अधिक हो गया है। किसानों को आसानी से अल्पावधि ऋण उपलब्ध कराने हेतु वर्ष 1998-99 में ‘किसान क्रेडिट योजना’ प्रारम्भ की गई। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट 2009-10 के मुताबिक इस योजना के तहत अब तक 3,50,80,000 किसान क्रेडिट कार्ड जारी किए जा चुके हैं जिनकी कुल ऋण आवँटन सीमा 1,97,607 करोड़ रुपए है।
स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से भी नाबार्ड किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने हेतु प्रयासरत है। इसी प्रकार ग्राम आधारित विकास फण्ड की स्थापना गाँवों में आधारभूत संरचना को सुदृढ़ करने हेतु की गई ताकि किसान वर्ग इससे लाभान्वित हो सके तथा कृषि विकास को सुनिश्चित किया जा सके। ज्ञातव्य है कि वर्ष 2008-09 में कृषि ऋण की राशि 2,87,000 करोड़ रुपए दर्ज की गई। वर्ष 2009-10 के लिए कृषि वित्त हेतु 3,25,000 करोड़ रुपए के ऋण प्रवाह का लक्ष्य रखा गया था जिसे बढ़ाकर 2010-11 में 3,75,000 करोड़ रुपए कर दिया गया है। इन सबके कारण किसान महाजनों व साहूकारों के ऋण जाल से कुछ सीमा तक मुक्त हुए हैं तथा कृषि विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
कृषि का विकास व सम्पन्नता कृषि उत्पादन वृद्धि के साथ ही उत्पादित उपज के उचित मूल्य प्राप्ति पर भी निर्भर है। गौरतलब है कि देश के अधिकांश छोटे किसान गरीबी के दुष्चक्र में जकड़े हुए हैं। गरीबी तथा ऋणग्रस्तता के कारण किसान अपनी उपज कम कीमतों पर बिचौलियों को बेचने के लिए बाध्य हैं। इन बिचौलियों के जाल से किसानों को मुक्त करवाने तथा विपणन व्यवस्था में सुधार लाने हेतु सरकार ने नियन्त्रित मण्डियों के विस्तार, कृषि उपज के श्रेणीकरण व प्रभावीकरण, माल गोदामों की व्यवस्था, बाजार एवं मूल्य सम्बन्धी सूचनाओं का प्रसारण व सहकारी विपणन व्यवस्था का प्रबन्धन जैसे महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। राष्ट्रीय कृषि विपणन संस्थान की स्थापना भी इसी दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है। यह संस्थान कृषि विपणन में विशिष्ट शिक्षण, प्रशिक्षण एवं अनुसन्धान की सेवाएँ प्रदान करते हुए कृषि विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
इसके अतिरिक्त कृषि उपज की विपणन व्यवस्था को सरल व सुचारू बनाने हेतु गाँवों को निकटवर्ती शहरों से जोड़ने हेतु ‘भारत निर्माण’ योजना के अन्तर्गत ग्रामीण सड़कों के निर्माण पर सर्वाधिक जोर दिया जा रहा है। गौरतलब है कि भारत निर्माण योजना के अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों के सिंचाई, सड़क, जलापूर्ति, आवास, विद्युतीकरण व दूरसंचार विकास को प्राथमिकता प्रदान की जा रही है ताकि कृषि के विकास व उत्पादकता हेतु आधारभूत संरचना को सुदृढ़ किया जा सके। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत इन सब सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने का प्रावधान भी रखा गया है जो कि वित्त के अभाव के कारण अधर में लटकी हुई है।
भारतीय कृषि जोखिमभरा है। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए सरकार कृषि उत्पादों की कीमतों में गिरावट के कारण सम्भाव्य हानि से किसानों को सुरक्षा प्रदान करने हेतु प्रति वर्ष समर्थन मूल्यों की घोषणा करती है। इसी प्रकार किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा प्रदान करने हेतु ‘फसल बीमा योजना’ प्रारम्भ की गई जिसे बाद में ‘व्यापक फसल योजना’ तथा वर्तमान में ‘राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना’ के रूप में क्रियान्वित किया जा रहा है। यही नहीं कृषिगत निर्यातों के विकास हेतु कृषि निर्यात क्षेत्रों को भी स्थापित किया गया है। चिन्ता का विषय यह है कि देश में प्रति वर्ष 21 प्रतिशत फसल कीड़े-मकोड़े व बीमारियों के कारण नष्ट हो जाती है जिसको नियन्त्रित करने हेतु ‘पौध संरक्षण कार्यक्रम’ का सूत्रपात किया गया तथा कीटाणुनाशक दवाइयों के उपयोग पर बल दिया गया। कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी बनने तथा उत्पादकता बढ़ाने हेतु कृषि में ‘यन्त्रीकरण’ को प्रोत्साहित किया गया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसानों को कम ब्याज दर पर ट्रैक्टर, पम्पसेट व मशीनरी आदि खरीदने के लिए ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है तथा कृषिगत यन्त्रों की किराया क्रय पद्धति व्यवस्था करने हेतु ‘कृषि उद्योग निगम’ की स्थापना की गई है।
इसी प्रकार, बागवानी उत्पादों को प्रोत्साहित व प्रेरित करने तथा बागवानी क्षेत्र के समग्र विकास हेतु वर्ष 2005-06 में ‘राष्ट्रीय बागवानी मिशन’ प्रारम्भ किया गया। इस योजना के बदौलत बागवानी में संलग्न किसानों की आय में बढ़ोत्तरी हुई है, कुशल और अकुशल श्रमिकों के लिए रोजगार के द्वार खुले हैं। इस मिशन के अन्तर्गत बागवानी में 6 प्रतिशत वृद्धि का लक्ष्य रखा गया ताकि वर्ष 2010-12 तक बागवानी उत्पादन को दोगुना किया जा सके। वर्ष 2009-10 के दौरान इस योजना के लिए 1,100 करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान रखा गया था। गौरतलब है कि बागवानी क्षेत्र का कृषि में 28.5 प्रतिशत योगदान है।
कृषि व सम्बद्ध क्षेत्रों का सम्पूर्ण विकास सुनिश्चित करने, कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने तथा ग्यारहवीं योजना में कृषि में 4 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हासिल करने के उद्देश्य से वर्ष 2007 में ‘राष्ट्रीय कृषि विकास योजना’ का सूत्रपात किया गया। इस योजना के लिए सरकार ने 25,000 करोड़ का प्रावधान रखा। इस योजना के अन्तर्गत राज्यों को कृषि व सम्बद्ध क्षेत्रों में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने, कृषि व इससे सम्बन्धित क्षेत्रों की योजनाओं के आयोजन व क्रियान्वयन में स्वायत्तता व लचीलापन प्रदान करने की कोशिश की गई है। इस योजना के अधीन वर्ष 2009-10 के दौरान राज्य सरकारों तथा केन्द्रशासित प्रदेश के प्रशासनों को 4,100 करोड़ रुपए जारी किए गए हैं। इसी क्रम में राष्ट्रीय कृषक आयोग की सिफारिशों को दृष्टिगत रखते हुए वर्ष 2007 में राष्ट्रीय कृषक नीति का शुभारम्भ किया गया। इस नीति के अन्तर्गत कृषि उत्पादन, उत्पादकता व किसानों की परिसम्पति में सुधार सुनिश्चित करते हुए उनकी आर्थिक स्थिति को उन्नत करने का लक्ष्य रखा गया। इसके अतिरिक्त, इस नीति में कृषि क्षेत्र में जल के कुशल उपयोग व बीमा सेवाओं के विस्तार तथा नवीन प्रौद्योगिकी के प्रयोग को बढ़ावा देने की दिशा में सार्थक पहल की गई। नयी कृषि नीति में सभी कृषिगत उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने तथा सूखा व वर्षा सम्बन्धी आपदाओं से किसानों की सुरक्षा के लिए ‘एग्रीकल्चर रिस्क फण्ड’ की स्थापना पर जोर दिया गया।
किसानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति को रोकने के लिए सरकार ने वर्ष 2008-09 के बजट में लगभग 4 करोड़ किसानों के कर्ज माफ करने हेतु 60 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया ताकि किसानों का खेती के प्रति रुझान बना रहे। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत भी किसानों को बीज, कृषि मशीनरी, संसाधन अनुरक्षण तकनीकों, मृदा परिवर्तन तथा प्रशिक्षण आदि की उपलब्धता प्रदान करने का प्रयास किया गया ताकि ग्यारहवीं योजना के चावल, गेहूँ व दाल के उत्पादन के अभीष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव हो सके। इस मिशन पर ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दौरान कुल परिव्यय 4,882.5 करोड़ रुपए का रखा गया है तथा यह योजना देश के 17 राज्यों के 312 जिलों में लागू की जा रही है।
छठे दशक के मध्य में प्रारम्भ की गई हरित क्रान्ति की सफलता को दृष्टिगत रखते हुए सन् 2006 में आयोजित सम्मेलन में दूसरी हरित क्रान्ति की संकल्पना रखी गई। इस संकल्पना में नवीन कृषि तकनीक को वर्षाधीन खेती वाले क्षेत्रों में पहुँचाने के साथ ही इन्हें छोटे और सीमान्त कृषकों द्वारा उपयोग में समर्थ बनाने पर भी जोर दिया गया है। इसी क्रम में देश के प्रमुख कृषि वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष डॉ . एम.एस. स्वामीनाथन ने इस ‘एवरग्रीन रिवॉल्यूशन’ के तहत देश के वार्षिक खाद्यान्न उत्पादन को वर्तमान के 2.10 करोड़ टन के स्तर से दुगुना करके 4.20 करोड़ टन करने का लक्ष्य रखा। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने कृषि में विज्ञान की सर्वश्रेष्ठ तकनीकों के उपयोग व जैविक कृषि में शोध को बढ़ावा देने पर जोर दिया। इसके साथ ही मिट्टी के स्वास्थ्य को सुधारने तथा वर्षा जल-संरक्षण को अनिवार्य बनाने तथा उचित मूल्यों पर किसानों को साख उपलब्ध कराने की दिशा में सार्थक कदम उठाने की आवश्यकता प्रतिपादित की।
भारतीय कृषि क्षेत्र को मजबूत आधार प्रदान करने के लिए सरकार कृषि क्षेत्र में अधिक निवेश करने, राज्यों के बजट में कृषि को प्राथमिकता देने हेतु प्रोत्साहित करने, नवीन कृषि तकनीक के उपयोग को प्रेरित करने तथा कृषि उत्पादन में आने वाली समस्त बाधाओं का निवारण करने हेतु सतत प्रयास कर रही है। राष्ट्रीय किसान आयोग (2004-06) ने देश में कृषि की प्रगति सुनिश्चित करने हेतु जलवायु के अनुकूल कृषि आर्थिक तकनीकों के इस्तेमाल तथा हरित क्रान्ति से लाभान्वित प्रदेशों में अनाज संरक्षण की व्यवस्था अपनाने पर जोर दिया है, जिस पर क्रियान्वयन प्रारम्भ कर दिया गया है। कृषि को समुन्नत बनाने हेतु ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में मृदा-संरक्षण, जल-संरक्षण, जल-स्रोतों के पुनरुद्धार, ऋण व बीमा सुधार, विपणन व्यवस्था एवं प्रौद्योगिकी व आगत आपूर्ति में सुधार पर जोर दिया गया है। फसल की उत्पादकता में मिट्टी की किस्म, पोषक तत्व व जलग्रहण क्षमता के महत्व को दृष्टिगत रखते हुए गाँवों में सचल मिट्टी परीक्षण इकाइयाँ स्थापित की गईं। इसी प्रकार किसानों को कृषि, पशुपालन, मत्स्य-पालन आदि से सम्बन्धित सूचनाएँ शीघ्र व समय पर उपलब्ध कराने हेतु ग्राम संसाधन केन्द्रों की स्थापना की गई है।
इन सब प्रयासों व योजनाओं के क्रियान्वयन के बावजूद वर्तमान में कृषि अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। वैश्वीकरण के इस प्रतिस्पर्धी युग में कृषि व कृषकों पर खतरे के बादल मण्डरा रहे हैं। विडम्बना है कि राष्ट्रीय आय में कृषि का अंश उत्तरोत्तर कम होता जा रहा है जबकि कृषि में संलग्न कार्यशील जनसंख्या का अनुपात लगभग स्थिर-सा है। दोषपूर्ण भू-धारण प्रणाली, उप-विभाजन एवं अपखण्डन के परिणामस्वरूप अनार्थिक जोतों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। ज्ञातव्य है कि देश की लगभग 78 प्रतिशत कृषि जोतें 2 हेक्टयर से कम की हैं। इसी प्रकार अभी भी कृषिगत भूमि का दो-तिहाई भाग मानसून का जुआ है, केवल एक-तिहाई भाग ही सिंचित है। ऐसी निराशाजनक स्थिति में सूखा, तूफान, बाढ़ व ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं का कहर भी किसानों को झेलना पड़ता है तथा इन अप्रत्याशित संकटों के कारण किसान ऋण जाल में फंस जाते हैं। निराशाजनक तथ्य यह है कि ऋण जाल के दुष्चक्र में फंसे किसानों में आत्महत्या की घातक प्रवृत्ति बढ़ रही है जो कि देश में विकास के नाम पर कलंक है।
जनवरी 2010 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरों ने अपनी रिपोर्ट में यह चिन्ताजनक अनुमान प्रस्तुत किया कि वर्ष 1997 से वर्ष 2008 के मध्य देश के लगभग 2 लाख किसानों को ऋण व अन्य विभिन्न कारणों से आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ा। कृषि वित्त, भण्डारण एवं विपणन की अपर्याप्त एवं दोषपूर्ण व्यवस्था के कारण भी अधिकांश लघु किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है जिसके कारण किसान के लिए परिवार का पेट पालना दुष्कर होता जा रहा है। इसी भाँति, कृषिगत आगतों की बढ़ती कीमतें, गिरते भू-जल स्तर एवं भूमि की घटती उर्वरता के कारण कृषि घाटे का सौदा बन गई है। इसी कारण खेती से किसानों का मोहभंग हो रहा है, खेती के प्रति किसानों की उदासीनता बढ़ती जा रही है जो कि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे का संकेत है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण में भी इस तथ्य को पुष्ट करते हुए बताया गया है कि देश के 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़कर अन्य वैकल्पिक रोजगार पाना चाहते हैं।
देश में कृषि की धुँधली तस्वीर के लिए कृषि की उत्पादकता का निम्न स्तर भी जिम्मेदार है। ज्ञातव्य है कि हमारे देश में कृषि की उत्पादकता अन्य देशों की अपेक्षा काफी कम है। उदाहरण के तौर पर देश में चावल की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता जापान की अपेक्षा एक-तिहाई है जबकि गेहूँ की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता फ्रांस की तुलना में एक-तिहाई है। इसी प्रकार हमारे देश में कृषि क्षेत्र में प्रति श्रमिक उत्पादकता अमेरिका की तुलना में 23 प्रतिशत तथा जर्मनी की तुलना में मात्र 33 प्रतिशत ही है। यही कारण है कि सकल आय में कृषि का अंश उत्तरोत्तर कम होता जा रहा है। वर्ष 1950-51 में कृषि का अंश 55.4 प्रतिशत था जो कि वर्ष 2009-10 में घटकर लगभग 14.6 प्रतिशत रह गया है।
ज्ञातव्य है कि वैश्वीकरण व उदारीकरण की लहरें भी कृषि अर्थव्यवस्था पर कुठाराघात कर रही हैं। देश में कृषि की विकास दर अस्सी के दशक की अपेक्षा नब्बे के दशक में कम हो गई है। आठवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि की विकास दर 4.7 प्रतिशत दर्ज की गई जो कि घटकर नौवीं पंचवर्षीय योजना में मात्र 2.1 प्रतिशत रह गई। वर्ष 2002-03 में कृषि विकास दर ऋणात्मक रही जबकि वर्ष 2004-05 में कृषि विकास दर मात्र 1.1 प्रतिशत रही जो कि सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर 6.9 प्रतिशत से काफी कम थी। वर्ष 2009 के दौरान व्यापक सूखा पड़ने के कारण कृषि विकास दर में 0.2 प्रतिशत गिरावट आ गई। ज्ञातव्य है कि 2010-11 वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में कमजोर मानसून के कारण कृषि उत्पादन में वृद्धि मात्र 0.9 प्रतिशत ही दर्ज की गई है जिसे बढ़ाने के लिए प्रभावी कदम शीघ्र उठाने की आवश्यकता है।
वैश्वीकरण व उदारीकरण की नीतियों के तहत भारतीय बाजार के द्वार विदेशी कृषि उत्पादों के लिए खोल दिए जाने पर देश की कृषि व्यवस्था पर संकट के बादल छा रहे हैं। उच्च लागत व उच्च कीमतों के कारण हमारे कृषि उत्पाद विदेशी प्रतिस्पर्द्धा का सामना नहीं कर पा रहे हैं। इसके अतिरिक्त, विकसित देशों के द्वारा अपने किसानों व कृषि उत्पादों से सम्बन्धित विविध कम्पनियों को भारी मात्रा में अनुदान दिया जा रहा है जिसके कारण हमारे बाजारों में भी विदेशी कृषि उत्पादों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। विश्व व्यापार संगठन की नीति को मूर्तरूप प्रदान करते हुए भारत में भी कॉर्पोरेट खेती को प्राथमिकता दी जा रही है जिसके कारण कृषि की बागडोर बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथों में पहुँच रही है। इन सबके कारण देश में लघु व सीमान्त किसानों की आजीविका पर प्रश्नचिह्न लग गया है। लाखों किसान खेतों में मजदूरी करने के लिए विवश हो गए तथा अनेक गाँवों से शहरों की तरफ रोजगार की तलाश में पलायन करने को मजबूर हैं। इस सन्दर्भ में यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि ये कम्पनियाँ लाभ को अधिकाधिक करने हेतु बहुतायत में रासायनिक उर्वरकों व कीटाणुनाशकों का इस्तेमाल करके भूमि की उर्वरा को समाप्त करने पर तुली हैं। भूमि की बंजरता बढ़ने के कारण देश में कृषि उत्पादकता शनैःशनैः कम होती जा रही है जिस पर शीघ्र ध्यान देने की आवश्यकता है। कृषि में सरकारी निवेश में कमी आने से छोटे व सीमान्त कृषकों की स्थिति निराशाजनक हो गई है। ज्ञातव्य है कि वर्ष 1993-94 में कृषि क्षेत्र के कुल निवेश में सरकारी निवेश का अंश लगभग 33 प्रतिशत था जो कि घटकर 1998-99 में 23.6 प्रतिशत तथा वर्ष 2001 में 21 प्रतिशत रह गया।
जलवायु परिवर्तन के कारण भी कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव परिलक्षित हो रहे हैं। तापमान में वृद्धि के कारण धान के उत्पादन में कमी दर्ज की जा रही है, जल संकट की विभीषिका बढ़ती जा रही है, सिंचाई हेतु पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं होने के कारण फसलें बर्बाद हो रही हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण अर्द्धशुष्क क्षेत्रों व शुष्क क्षेत्रों में कृषि व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा तथा सिंचाई हेतु जल प्राप्त नहीं होने से कृषि चौपट हो जाएगी। इसी सन्दर्भ में हमें इस तथ्य पर भी ध्यान देना होगा कि जलवायु परिवर्तन के साथ उचित जल प्रबन्धन व जल उपयोग व्यवस्था विद्यमान नहीं होने के कारण देश में भू-जल स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। डार्क जोन एरिया में वृद्धि हो रही है जिसके कारण कृषि व्यवस्था की स्थिति निराशाजनक होती जा रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण मिट्टी की उर्वरा में कमी आने, लवणता बढ़ने तथा जैव-विविधता में ह्रास होने की वजह से कृषि व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है।
वैश्वीकरण के इस युग में कृषि को प्रतियोगी बनाकर ही इनके सम्भावित खतरों से बचते हुए कृषि को लाभदायक क्षेत्र के रूप में परिवर्तित करना सम्भव है। परिवर्तन व प्रतियोगिता समय की माँग है, इसी तथ्य का अनुसरण करते हुए कृषि व्यवस्था में सुधार करने, कृषि तकनीक व्यवस्था में परिवर्तन करने तथा जलवायु परिवर्तन के कहर से बचने के लिए प्रभावी व्यूहरचना का क्रियान्वयन जरूरी है। कृषि को विकास पथ पर अग्रसर करने एवं प्रतियोगी बनाने हेतु निम्न सुझावों पर क्रियान्वयन जरूरी है :
1. केवल परम्परागत फसलों को उगाकर ही किसान समृद्ध नहीं हो सकते, बदलती माँग व कीमतों के अनुरूप फसल प्रतिरूप में परिवर्तन भी आवश्यक है। प्राकृतिक विधि व जैविक खाद के उपयोग से उगाए गए खाद्य पदार्थों की माँग अमेरिका, यूरोप व जापान में तेजी से बढ़ रही है। इस बढ़ती माँग के अनुरूप उत्पादन करके किसानों को लाभ उठाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। शुष्क खेती, जल-संरक्षण, कुशल व दक्ष सिंचाई व्यवस्था, जैविक खेती व कृषि शोध एवं विस्तार पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। किसानों को छिड़काव सिंचाई विधि का प्रयोग बढ़ाने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
2. अनाज, तिलहन, दाल, गन्ना व कपास की फसलों की उत्पादकता वृद्धि के लिए अधुनातन विधियों को अपनाने के लिए किसानों को प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि वे अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में टिक सकें। भारत का विश्व में फलों व दुग्ध उत्पादन में प्रथम व सब्जियों के उत्पादन में दूसरा स्थान होने के बावजूद इनके उत्पादन के केवल दो प्रतिशत भाग का ही प्रसंस्करण होता है। अमेरिका में किसानों को उनकी आय का 70 प्रतिशत, मलेशिया में 80 प्रतिशत, ब्राजील में 70 प्रतिशत व थाईलैण्ड में 30 प्रतिशत कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण से मिल रहा है जबकि भारत में किसानों को प्रसंस्करण से अपनी आय का केवल 2 प्रतिशत अंश प्राप्त होता हैं। अतः गाँवों में ही विभिन्न फलों व सब्जियों की प्रसंस्करण इकाइयों की एक श्रृंखला स्थापित करके किसानों के लाभ में वृद्धि किया जाना सम्भव है। गाँवों में कृषि आधारित उद्योगों का जाल बिछाकर कृषि में अपेक्षित सुधार किया जाना सम्भव है।
कृषि उत्पाद नाशवान हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में शीतगृहों की सुविधा उपलब्ध नहीं होने के कारण 15 से 20 प्रतिशत उत्पाद सड़ जाता है। 55 प्रतिशत गाँवों में बीज भण्डारण व्यवस्था नहीं है, 80 प्रतिशत गाँवों में कृषि औजारों के मरम्मत की सुविधा नहीं है व 60 प्रतिशत गाँवों में बाजार केन्द्र नहीं है। इन आधारभूत सुविधाओं के अभाव में किसान उदारीकरण व वैश्वीकरण- जनित प्रतियोगिता का सामना करने में सक्षम नहीं है। अतः ग्रामों में गोदामों, शीतगृहों व बीज भण्डारण की व्यवस्था को प्राथमिकता देनी होगी साथ ही कृषि उत्पाद को लाने-ले-जाने के लिए वातानुकूलित वाहनों की व्यवस्था पर भी ध्यान देना अपेक्षित है।
कृषि में जोखिम अधिक है अतः इससे किसानों को सुरक्षा कवच प्रदान करने के लिए फसल बीमा योजना को व्यापक व तार्किक बनाते हुए बीमा प्रीमियम दर कृषकों की आय के अनुपात में रखना न्यायसंगत होगा। इसके साथ विकसित देशों का मुकाबला करने के लिए कृषि को उद्योग का दर्जा देते हुए उसे व्यावहारिक बनाने की कोशिश करनी चाहिए। ग्रामीण अधोसंरचना के विकास को प्राथमिकता देकर ही कृषि को अधिक प्रतियोगी व लाभप्रद बनाना सम्भव है। ग्रामीण विकास के इस महाभियान में पंचायती राज संस्थाओं व ग्राम सभाओं को भी वृहद जिम्मेदारियाँ निभानी होगी।
चूँकि विकास दर बढ़ाने का मूलमन्त्र कृषि ही है अतएव इस क्षेत्र के लिए ठोस व प्रभावी नीतियों के क्रियान्वयन से ही सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था की धुँधली होती तस्वीर को उजला बनाना सम्भव है। हमें विश्व व्यापार संगठन के तहत किए गए समझौतों, वैश्वीकरण व उदारीकरण की प्रक्रियाओं का कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव का बारीकी से विश्लेषण करने के पश्चात ही लागू करना चाहिए। हमें विकसित देशों के द्वारा दिखाए गए दिवास्वप्नों से दिग्भ्रमित नहीं होते हुए यथार्थ व व्यावहारिक नीतियों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
अनीता मोदी
(लेखिका चिड़ावा, राजस्थान के जी.एस.एस. गर्स्र (पी.जी.) कॉलेज में अर्थशास्त्र की विभागाध्यक्ष हैं)