हक के इंतजार में किसान
साल 2016-17 के लिए धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्रति क्विंटल 5100 रुपये होना चाहिए था। इस पर चौंकने की जरूरत नहीं है। वैधानिक रूप से किसानों को इतनी ही राशि मिलनी चाहिए।
साल 2016-17 के लिए धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्रति क्विंटल 5100 रुपये होना चाहिए था। इस पर चौंकने की जरूरत नहीं है। वैधानिक रूप से किसानों को इतनी ही राशि मिलनी चाहिए। यह और बात है कि कठिन परिश्रम और लगातार दो साल के सूखे के बावजूद सभी किसानों को उनकी हर किस्म की धान की फसल की कीमत प्रति क्विंटल 1470 रुपये तय की गई है, जो कि बहुत ही कम है। देखा जाए तो धान के लिए तय एमएसपी में गत साल के मुकाबले इस साल सिर्फ 60 रुपये ही बढ़ोतरी हुई है। यह बहुत ही मामूली बढ़ोतरी है। यह वृद्धि खाद्य मुद्रास्फीति की तुलना में कम है और घोर भेदभाव का उदाहरण भी है। एक तरफ जब थोक मुद्रास्फीति में स्थिरता के बावजूद सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाले महंगाई भत्ते में हर छह महीने में बढ़ोतरी हो जाती है और इससे भी बढ़कर महंगाई भत्ता उनके मूल वेतन का हिस्सा बना दिया जाता है, तब मुझे किसानों को जानबूझकर गरीब रखने का औचित्य समझ में नहीं आता है?
किसानों को उनकी वैधानिक आय से वंचित करना ही भयानक कृषि संकट का एकमात्र कारण है, जो लगातार गहराता जा रहा है। एक तरफ किसान अपनी फसलों की अधिक कीमत मिलने की उम्मीद पाले हुए हैं, लेकिन दूसरी ओर सरकारें चाहती हैं कि खाद्य महंगाई को नीचे रखने का सारा बोझ किसान उठाएं। किसानों को आर्थिक लाभ की बात तो भूल ही जाएं, दरअसल अनाज पैदा करने के लिए उन्हें एक तरह से दंडित किया जा रहा है। यदि इन बातों पर विश्वास न हो तो इन आंकड़ों पर गौर फरमाएं। 1970 में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रति क्विंटल 51 रुपये था। 2016 में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रति क्विंटल 1470 रुपये तय किया गया है। इस बीच न्यूनतम समर्थन मूल्य में करीब 29 गुना बढ़ोतरी हुई है। इसी अवधि में सरकारी कर्मचारियों, कॉलेज शिक्षकों-प्रोफेसरों, स्कूल शिक्षकों और मध्यम स्तर के कॉरपोरेट कर्मचारियों के मासिक वेतन में क्रमश: 120 से 150 गुना, 150 से 170 गुना, 280 से 320 गुना और 300 गुना बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसमें मैंने 1970 में प्रचलित सिर्फ मूल वेतन और महंगाई भत्ते की गणना की है। गत 25 साल की अवधि में ही विभिन्न संगठित क्षेत्रों में कार्यरत कर्मियों के मासिक वेतन में 120 से 300 गुना बढ़ोतरी दर्ज की गई है। चलिए वेतन वृद्धि का आसानी से मूल्यांकन करने के लिए मूल वेतन में सौ गुना वृद्धि को बेंचमार्क बनाते हैं। यदि किसानों की आय में इसी अनुपात में वृद्धि की गई होती और यदि किसानों की आय की गणना न्यूनतम समर्थन मूल्य में की जाए तो धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5100 रुपये प्रति क्विंटल होना चाहिए था। इस प्रकार किसानों को कम से कम प्रति क्विंटल 3630 रुपये कम मिल रहे हैं। समाज के दूसरे क्षेत्रों के बराबर आय से किसानों को वंचित करने के कारण ही कृषि आज घाटे का सौदा बन गई है। जीवन-यापन के लिए जरूरी आय के अभाव के चलते ही आज किसान कर्ज के दलदल में फंसते गए हैं। बीते बीस सालों से किसानों की आत्महत्या का मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गया है।
सातवें वेतन आयोग में एक चपरासी का मूल वेतन करीब 260 प्रतिशत बढ़कर 7000 रुपये से 18000 प्रति महीने हो गया है। इसके साथ ही कर्मचारियों को 108 तरह के भत्ते मिलेंगे, लेकिन किसानों को उनके एमएसपी के अतिरिक्त एक भी भत्ता नहीं दिया जाता है। यदि एमएसपी के साथ सिर्फ चार भत्ते आवास, डीए, स्वास्थ्य और शिक्षा जोड़े जाएं तो भारतीय कृषि की बदहाल तस्वीर अच्छी हो जाएगी। भारतीय कृषि विकास की धुरी बन जाएगी और खेती एक समृद्ध व्यवसाय बन जाएगी। लेकिन जैसे ही कोई उच्च एमएसपी की मांग करने लगता है वैसे ही अर्थशास्त्री खाद्य महंगाई की ऊंची दर का डर दिखाने लगते हैं। अब सवाल यह खड़ा होता है कि जिन लोगों को महंगाई भत्ता दिया जाता है उनको खाद्य महंगाई से अप्रभावित रखने के लिए किसानों को क्यों कष्ट दिया जाना चाहिए? खाद्य कीमतों को नीचे रखने का बोझ औसत उपभोक्ता क्यों नहीं साझा कर सकते? आखिर अर्थशास्त्री इस बात को क्यों नहीं समझते कि देश में किसान ही एक ऐसा समुदाय है जिसे उसकी वैधानिक आय से वंचित किया जा रहा है? किसानों को कृषि कल्याण के नाम पर लिए जाने वाले 0.5 प्रतिशत सेवा कर की जरूरत नहीं है। उन्हें समाज के दूसरे हिस्से के समान ही उच्च एमएसपी चाहिए। यदि ऐसा नहीं हो सकता तो वित्त मंत्रालय भी सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार करे। एक छोटे हिस्से को संतुष्ट करने के लिए एक बड़े हिस्से की बलि नहीं दी जा सकती है।