सेम की व्यावसायिक खेती
सेम सब्जियों के अंतर्गत रोहिलखंड क्षेत्र की एक महत्वपूर्ण फसल है। यहां लगभग 15500 हेक्टेयर क्षेत्रफल में सेम की खेती सफलतापूर्वक की जाती है। सब्जियों में सेम एक दलहनी सब्जी के अंतर्गत आती है, इसलिए पोषण के दृष्टिकोण से बाजार में इसकी बहुत मांग है। सेम की खेती यदि व्यावसायिक रूप से, व वैज्ञानिक विधि से की जाए तो एक तरफ जहां प्रति इकाई क्षेत्रफल में लागत कम आती है, वही दूसरी तरफ कीट बीमारी प्रबंधन के एकीकृत तकनीकों को अपनाकर कृषक अपनी लागत कम करके आय में अधिक वृद्धि कर सकते हैं। साथ ही जो उत्पाद बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध होगा वह खाने के लिए सुरक्षित होगा। सेम लगाने के लिए ऐसी जगह का चुनाव करें जहां वर्षा का पानी ना ठहरता हो, जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो। सेम एक बेल वाली फसल है। किसको बहु वर्षीय रूप में व 1 वर्ष के रूप में भी लिया जा सकता है।
सेम का उत्पादन बलुई दोमट, मृदा जिन का पीएच मान 6 से 7.5 हो उपयुक्त रहता है। सेम लगाने का उपयुक्त समय 15 मई से 15 जून है। वैसे कुछ क्षेत्रों में फरवरी-मार्च के महीने में भी सेम लगाई जाती है । गर्मियों में सेम बुवाई करने से सितंबर अक्टूबर से पैदावार मिलना प्रारंभ हो जाती है और यदि फसल की भली प्रकार देखभाल की जाए तो मई-जून तक अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है। सेम की उन्नतशील प्रजातियों में पूसा अर्ली प्रोलिफिक, पूसा सेम 2, पूसा सेम 3 है। यह तीनों किस्में विषाणु रोग, एंथ्रेक्नोज, मांहू, जैसिड, फल छेदक कीट के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखती हैं। आईआईएचआर 93 एवं 140 हिसार एचडी 18 किस्में भी बहुत अच्छी हैं। यह किस्में रस्ट रोधी व अधिक उपज वाली और उच्च गुणों वाली फलियों वाली होती है।
भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी द्वारा विकसित प्रजातियों में काशी हरीतिमा एक विपुल उत्पादन देने वाली बेल वाली प्रजाति है। काशी शीतल छोटे कद की प्रजाति है जो ठंड एवं विषाणु रोगों के प्रति सहनशील है। इस प्रजाति में प्रोटीन ज्यादा होता है। काशी कुशल छोटे कद की प्रजाति है। इसकी फलियां मुड़ी हुई, गहरे हरे रंग की होती हैं. यह प्रजाति भी विषाणु रोगों के प्रति सहनशील है। उपरोक्त तीनों प्रजातियां 300 से 350 कुंतल प्रति हेक्टेयर पैदावार देती हैं।
सेम की बुवाई के लिए 10-15 किलोग्राम बीज (थांवला विधि), 20-30 (कूंड विधि) प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है। बुवाई से पूर्व बीज का शोधन 2 ग्राम कार्बेंडाजिम नामक फफूंदीनासी का प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से करने के उपरांत इमिडाक्लोप्रिड नामक दवा का पांच मिली प्रति 10 लीटर पानी में घोल बनाकर बीजों को 10 मिनट तक शोधित करने के उपरांत व छांव में सुखाकर बुवाई करने से अनेक रोग एवं कीट फसल की प्रारंभिक अवस्था में ही नहीं लग पाते हैं ।
सेम की बुवाई प्रायः एक से डेढ़ मीटर की दूरी पर, लाइनों में वह लगभग 1 मीटर की दूरी पर पौधे से पौधा के हिसाब से जमीन से लगभग 15 सेंटीमीटर ऊंचे थावले में करना चाहिए।
एक थावले में 4 से 5 बीजों की बुवाई करनी चाहिए। लगभग 1 सप्ताह में संपूर्ण बीज जमकर बाहर आ जाते है। जमाव के 25 से 30 दिन बाद एक स्प्रेइमिडाक्लोप्रिड नामक रसायन का 0. 5 मिली 1 लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहिए। क्योंकि इस समय या तो वर्षा चल रही होती है या वर्षा होने वाली होती है और कई तरह के रस चूसने वाले कीटों का प्रकोप हो जाता है।जिससे फसल में वायरस बीमारी फैलने का खतरा रहता है।
पूरे खेत में खाद उर्वरक का प्रयोग करने के स्थान पर, फसल बुवाई के 20 दिन पूर्व प्रत्येक धावले में लगभग 10 किलोग्राम गोबर की खाद 100 ग्राम डीएपी, 80 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश, साथ में 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा व 200 ग्राम नीम की खली मिलाकर थावलो की मिट्टी भर देना चाहिए। 20 दिन उपरांत थावलों के गुड़ाई करके उसमें 50 ग्राम यूरिया मिला देना चाहिए व सांय 3:00 बजे के बाद बीजों की बुवाई कर देनी चाहिए।
बुवाई के समय थावलों में पर्याप्त नमी रहनी चाहिए। इससे बीजों का जमाव एक साथ होता है। खेत में थांवला विधि से आवश्यकता अनुसार समय-समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए। थावलों की समय पर निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए व खेत के बीच में उत्पन्न घांस को, खरपतवारो की मल्चिंग विधि (पलवार विधि) द्वारा समाप्त करते रहना चाहिए।
जब पौधे दो से 3 फीट के हो जाएं। तब खेत में बॉस एवं मुलायम तार की मदद से मचान बना देना चाहिए। मचान की ऊंचाई जमीन से 4.5 फीट ऊंची रहनी चाहिए। बेलों को सहारा देकर मचान पर चढ़ाते रहना चाहिए । जिन थावलों में बीज का जवाब नहीं हुआ है या पौधे नष्ट हो गए हैं, वहां तुरंत नया बीज या पहले से तैयार पौध की रोपाई कर देनी चाहिए।
फसल बढ़वार की अवस्था में यलो बीन मोजैकवायरस आने की संभावना रहती है। यदि पत्तियों के ऊपर पीले रंग के चितकबरे धब्बे दिखाई दे तो तुरंत इमिडाक्लोप्रिड का फसल के ऊपर छिड़काव कर देना चाहिए । यदि पौधे इस रोग से बहुत प्रभावित हो चुके हैं तो ऐसे पौधों को खेत से उखेड़कर दूर नष्ट कर देना चाहिए।
चूर्णिलआशिता फफूंदी जिसे पाउडरीमिलड्यू भी कहते हैं, का प्रकोप भी कभी-कभी फसल पर हो जाता है। इसके लिए थाँवले में बुबाई के समय ही 10 ग्राम सल्फर का प्रयोग करना चाहिए। रोग आने पर खड़ी फसल पर यदि मौसम ठंडा है तो सल्फैक्स पाउडर 3 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। यदि मौसम गर्म है, यानी 25 डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा तापमान है तब कैराथेन अथवा कैलिक्सीन नामक रसायन का 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहिए।
सेम की फसल सबसे ज्यादा फली छेदक कीट व निमेटोड से प्रभावित होती है। क्योंकि यह एक दलहनी फसल है इसलिए कीटों का प्रकोप बहुत अधिक होता है। निमेटोड के नियंत्रण के लिए पूर्व में बताई गई थांवलाट्रीटमेंट विधि को अपनाना चाहिए। निमेटोड प्रभावित पौधों की बढ़वार रुक जाती है, फंलियां छोटी रहने लगती हैं, छोटी फंलिया ही पीली पड़ने लगती हैं। पौधे पीले पड़ने लगते हैं। ऐसे पौधों को जमीन से समूल उखेड़ देना चाहिए और जड़ों में यदि निमेटोड की ग्रंथियां दिखाई दे तो पूरे खेत में निमेटोड नियंत्रण के उपाय करने चाहिए। इसके लिए खाने योग्य फलियों को तोड़ने के उपरांत थाँवलों में कार्बोफ्यूरान 3G, 5 ग्राम प्रति थावला मिलाना चाहिए।
फली छेदक कीट के नियंत्रण हेतु Neem oil 4 ml / लीटर पानी के हिसाब से गोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। हल्के रसायनों में प्रोफेनोफॉस 1.5 मिलीलीटर 1 लीटर पानी में गोल बनाकर छिड़काव करने से कीट के साथ-साथ उसके अंडे भी नष्ट हो जाते हैं। कभी-कभी फसल पर माहू का प्रकोप देखा जाता है। मांहू के नियंत्रण के लिए सुबह-सुबह जब फसल पर ओस है उस समय प्रभावित टहनियों पर गेहूं की मैदा का छिड़काऊ करने से, माहू की क्रियाशीलता बहुत कम हो जाती है। खेत की पश्चिम दिशा से लगातार निगरानी करते हुए प्रभावित टहनियों को काटकर नष्ट करने से भी माहू का प्रकोप कम हो जाता है। खेत में यलोस्टीकीट्रेप का 10 से 12 ट्रैप प्रति हेक्टेयर प्रयोग करने से माहू पर प्रभावी नियंत्रण हो जाता है। सुरक्षित रसायनों में इमिडाक्लोप्रिड 5 मिलीलीटर 10 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से भी मांहू का नियंत्रण हो जाता है।
किसी भी कीटनाशकों/फंफूंदीनाशी के प्रयोग करने के उपरांत कम से कम 15 से 20 दिन बाद ही फलों को तोड़कर बाजार में बिक्री हेतु भेजना चाहिए।
खेत के पास मधुमक्खी के कम से कम 10 डिब्बे प्रति हेक्टेयर रखने से पैदावार में उल्लेखनीय वृद्धि होती है । साथ ही फूल में थ्रिप्स के प्रकोप से फूल गिरने की समस्या को मधुमक्खी काफी कम कर देती हैं। इस प्रकार फलियों की सेटिंग अच्छी होती है और फसल में गुच्छे के गुच्छे, फलियां आने से, पैदावार व फसल की गुणवत्ता बहुत बढ़ जाती है।
वैज्ञानिक विधि से सेम की खेती करने से प्रति हेक्टेयर लगभग 200 से 300 कुंटल तक सेम की फलिया उपज के रूप में प्राप्त होती है। यदि इनका बाजार भाव ₹1000 प्रति कुंटल माना जाए तो लगभग दो लाख से तीन लाख तक की कुल आय प्राप्त होती है। संपूर्ण फसल में प्रति हेक्टेयर लगभग 60 से 80 हजार रुपए का मात्र खर्चा आता है। ऐसे में सेम की खेती एक नगदी फसल के रूप में विकसित हो रही है ।
सेम की फसल बहुमंजिला फसल ( मल्टीटायरक्रॉपिंग (के रूप में भी ली जा सकती है इसके लिए मचान बनाने के लिए जहां बांस गाड़े जाते हैं, वहां पर सहजन के पौधे लगा दिए जाए। एक वर्ष में पौधे पूर्ण रूप से तैयार हो जाते हैं ।इन पौधों को सहारा देते हुए सेम की फसल के मचान बनाए जाएं और मचान पर जब सेम की बेलें पूरी तरह से फैल जाती हैं, तब अप्रैल से सितंबर माह तक धनिया, पालक आदि फसलों के अतिरिक्त खेती की जा सकती है। इस मौसम में इन फसलों के बाजार भाव बहुत ज्यादा मिलते हैं। एक हेक्टेयर सहजन के पौधों से लगभग 20 कुंटलफलियां प्राप्त होंगी ।जबकि 200 कुंटल तक धनिया या 300 कुंटल तक पालक प्राप्त किया जा सकता है। एक ही जगह पर अलग-अलग ऊंचाई पर तीन फसलें लेने से बहुमंजिला फसल के रूप में कृषकों को बहुत फायदा होता है । इस प्रकार एक हेक्टेयर सेम की बहुमंजिला खेती करने से कृषक 4 से 5 लाख प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष आए कमा सकते हैं।
सेम की फलीओं की प्रत्येक तुड़ाई के बाद यदि सूक्ष्म पोषक तत्वों का एक पत्तो पर छिड़काव करने व फरवरी मार्च माह में थाँवलों में 5 किलोग्राम गोबर की खाद, 80 ग्राम डीएपी, 40 ग्राम में रेट ऑफ पोटाश ,30 ग्राम सल्फर 30 ग्राम कॉपरसल्फेट का प्रयोग करने से, ना केवल फसल में पैदावार बढ़ती है, बल्कि अगले वर्ष के लिए भी पौधे पूरी तरह से हरे भरे व तरोताजा रहते हैं।इससे यह फसल 2 से 3 वर्ष तक आसानी से ली जा सकती है । फलियों की तोड़ाई से पूर्व खेत में सिंचाई कर दें। साथ ही तुड़ाई करते समय इस बात का ध्यान रखें के फूल के गुच्छे साथ में ना टूटें। एवं कच्ची फलियां भी ना टूटे।
केवल तैयार बिक्री योग्य फलियों की ही तोड़ाई करें। इससे तोड़ी गई फलियों का वजन भी ज्यादा रहता है साथ ही नई फलियां बहुत जल्दी तैयार होती रहती हैं। तुड़ाई के पश्चात फलियों की छंटाई करें। कीट ग्रस्त, बीमारी ग्रस्त फलियों को अलग कर दें। और उन को नष्ट कर दें । बिक्री योग्य फलियों को टोकरियों में भरकर बिक्री के लिए आढ़त पर भेजें। बोरों में भरकर फलियां कभी नहीं भेजनी चाहिए। इससे फलियों में चोट लगती है व रगड़ लगती है साथ ही दुकान पर बिक्री करते समय ऐसी फलियां जल्दी खराब होती हैं।
रंजीत सिंह, विषय वस्तु विशेषज्ञ (उद्यान )
डॉ आर के सिंह, अध्यक्ष कृषि विज्ञान केंद्र बरेली
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