लघु एवं सीमान्त कृषक तथा ग्रामीण विकास
ग्रामीण विकास से तात्पर्य ग्रामीण क्षेत्र की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में संरचनात्मक परिवर्तन से लगाया जाता है जो ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले निम्न आय वर्ग के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए किये जाते हैं। इससे एक ओर तो देश के आर्थिक विकास में अवरोध उत्पन्न करने वाले तत्वों जैसे अत्यधिक गरीबी, अत्याचार, अत्यन्त निम्न उत्पादकता एवं ग्रामीण समाज का शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति दिलाई जाती है तो दूसरी तरफ उनके विकास की प्रक्रिया को तीव्र करने एवं स्वतः सम्पोषणीय बनाने के लिए उन्हें बुनियादी सेवाएँ प्रदान की जाती हैं तथा आधारभूत ढाँचे को सुधारा जाता है। जैसे सिंचाई हेतु पर्याप्त मात्रा में विद्युत आपूर्ति, उचित दामों पर उर्वरकों और कीटनाशकों को उपलब्ध कराना, यातायात एवं भण्डारण सुविधाओं का विकास करना, सरकारी खरीद मूल्य कृषकों के अनुकूल होना, कृषि ऋण, कृषि बीमा और अनुदानों को आसानी से सुलभ कराना और इसके साथ यह भी आवश्यक है कि कृषि अनुपूरक व्यवसायों जैसे पशु-पालन, मत्स्य-पालन का विकास हो। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए ग्रामीण विकास का महत्व और भी बढ़ जाता है जहाँ देश की 60 प्रतिशत आबादी लगभग 115 मिलियन परिवार कृषि क्षेत्र में नियोजित है और यह भारत वर्ष का सबसे अधिक रोजगार प्रदान करने वाला क्षेत्र है।
किन्तु अत्यन्त दुख की बात यह है कि पिछले एक दशक से देखा जाए तो कृषि में सार्वजनिक निवेश कम हो जाने से कृषि जनित अर्थव्यवस्था धीमी पड़ गई। नवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि की विकास दर 2.2 प्रतिशत वार्षिक थी जो कि बढ़कर दसवीं पंचवर्षीय योजना में 2.3 प्रतिशत वार्षिक हो गई। इन आँकड़ों से यह बात स्पष्ट होती है कि पिछले दशक में कृषि की विकास वृद्धि दर मात्र 0.1 प्रतिशत रही। हालाँकि सेवा क्षेत्र और उद्योग क्षेत्र में तो कुछ विकास होता रहा जिसके परिणामस्वरूप भारत का सकल घरेलू उत्पाद पिछले दशक में औसत रूप से 8.6 प्रतिशत की अच्छी स्थिति में रहा। किन्तु इसमें कृषि क्षेत्र का योगदान 2.73 प्रतिशत पर ही रूका रहा।
देश के सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र ने सबसे अधिक लगभग 50 प्रतिशत के आस-पास योगदान प्रदान किया और कृषि क्षेत्र ने मात्र 22 प्रतिशत का योगदान प्रदान किया है। इससे भारत तीव्र विकास करने वाले विकासशील देशों की श्रेणी में तो शामिल हो गया किन्तु देश असन्तुलित विकास के मार्ग पर ही बढ़ता रहा जिसके परिणामस्वरूप महंगाई बढ़ती गई और देश में मुद्रा स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो गई। देखा जाए तो इसी बढ़ती हुई मुद्रा स्फीति ने देश के आपूर्ति पक्ष को कमजोर कर दिया। इसके साथ ही इस असन्तुलित विकास से देश में आय की असमानताएँ भी बढ़ी हैं। सेवा क्षेत्र और उद्योग क्षेत्र में तो लाभ एवं वृद्धियाँ हो रही हैं किन्तु देश के एक अरब से ज्यादा लोगों के पेट को भरने वाला कृषक अब बदहाल स्थिति में पहुँच गया है। जिनमें लघु एवं सीमान्त कृषकों की स्थिति तो अत्यन्त दयनीय एवं चिन्ताजनक हो गई है।
लघु कृषकों से तात्पर्य उन कृषकों से लगाया जाता है जिनकी कृषि जोत का आकार एक हेक्टेयर से दो हेक्टेयर के बीच होता है तथा सीमान्त कृषकों में उन कृषकों को सम्मिलित किया जाता है जिनकी कृषि योग्य भूमि का आकार एक हेक्टेयर से कम हो। यदि हम पिछले कुछ वर्षों के जोत सम्बन्धी आँकड़ों को देखें तो यह एक ऐसे परिवर्तन को प्रदर्शित करता है जो आर्थिक दृष्टि से देश के लिए बिलकुल लाभकारी नहीं है। यह परिवर्तन है सीमान्त तथा छोटी जोतों की संख्या में लगातार वृद्धि और अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि सीमान्त जोत के आकार में यह वृद्धि छोटी जोत की तुलना में अधिक है और वर्तमान समय में लगभग 80 प्रतिशत कृषक परिवार लघु एवं सीमान्त कृषक वर्गों से सम्बन्धित हैं। एक ओर तो इनकी संख्या इतनी अधिक है कि सामाजिक दृष्टि से इनका अत्यधिक महत्व है और दूसरी तरफ कृषि योग्य भूमि का लगभग 52.3 प्रतिशत हिस्सा इनके पास होने से इनका महत्व आर्थिक दृष्टि से अधिक माना जा सकता है। किन्तु देश के लिए सामाजिक एवं आर्थिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले इस वर्ग की आय इतनी कम है कि इनके गृहस्थ स्तर पर क्रय शक्ति की अपर्याप्तता के कारण इनका उपभोग बढ़ने के बजाय निरन्तर गिरता चला जा रहा है और इधर कुछ वर्षों से तो इनके जीवन में अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न होने लगी है।
इस प्रकार देखा जाए तो कृषि के विकास को विराम लग जाने से जहाँ एक ओर समाज का एक बड़ा वर्ग निरीह एवं अभावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर होता जा रहा है वहीं दूसरी ओर यह भी निश्चित रूप से माना जा रहा है कि बिना कृषि के विकास के वर्तमान विकास दर को लम्बे समय तक बनाये रखना अथवा इसमें वृद्धि करना सम्भव नहीं होगा। सैद्धान्तिक रूप से भले ही यह माना जाता हो कि विकास का प्रारम्भ किसी और क्षेत्र जैसे सेवा क्षेत्र या उद्योग क्षेत्र के द्वारा किया जा सकता है किन्तु यथार्थ रूप में ये क्षेत्र अकेले न तो आर्थिक विकास का प्रारम्भ कर सकते हैं और न ही अकेले लम्बे समय तक विकास क्रम को कायम रख सकते हैं और भारत जैसे देश के लिए तो यह बिल्कुल सम्भव नहीं होगा कि वह इस विशाल जनसंख्या का पेट भरने के लिए अनाज का आयात कर सके। अतः हमें स्वयं उत्पादन प्रणालियों में सुधार के माध्यम से कृषि का विकास करना होगा। इससे ग्रामीण विकास के साथ हमारे देश की विदेशी नीति में खाद्यान्न निर्भरता स्पष्ट होगी, माँग एवं पूर्ति में सन्तुलन हो जाने से महंगाई में वृद्धि नहीं होगी तथा बेरोजगारी की मात्रा में भी कमी आएगी और जैसा कि सहस्त्राब्दि विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 2015 तक उत्पादन को बढ़ाकर दोगुना कर लिया जाएगा, कृषि विकास अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
अतः इस समय कृषि सम्बन्धी योजनाओं को द्विआयामी होना आवश्यक है जो पहले तो लघु एवं सीमान्त कृषकों को राहत पहुँचाए जिनकी कृषि में लागत जोखिम लाभ संरचना उल्टी होने से उन्हें आत्महत्या की स्थिति तक पहुँचा दिया है तथा दूसरी तरफ संरचनात्मक परिवर्तन के माध्यम से ऐसी दीर्घकालीन योजनाओं की आवश्यकता है जिससे यह समस्याएँ दोबारा न बढ़े जैसे- ऋण राहत, बकाया ब्याज की माफी, बेहतर ऋण उपलब्धता। लघु एवं सीमान्त कृषकों का असंगठित क्षेत्र से ऋण प्राप्त करना ही दुष्चक्र में फँसना है किन्तु इनके पास ऋण प्राप्त करने का दूसरा सूत्र न होने से उन्हें यह ऋण असंगठित क्षेत्र से ही लेना पड़ता है। दूसरी तरफ पिछले 5-6 वर्षों से देश के कुछ मण्डलों में सूखा पड़ जाने के कारण भी इन कृषकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। इससे उनकी आर्थिक स्थिति और खराब होती जा रही है। इस बदहाल स्थिति में वे न तो प्राप्त ऋण चाहे वह किसी भी स्रोत से प्राप्त किया गया हो, का भुगतान करने में सक्षम होते हैं और न ही परिवार का खर्च चलाने में। जबकि उन्हें अगली फसल के लिए भी धन की आवश्यकता होती है। ऐसी परिस्थिति में यह आवश्यक हो गया है कि भारत सरकार और अन्य वित्तीय संस्थाएँ अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाएँ अन्यथा व्यापक कुपोषण और सामाजिक विग्रह बढ़ता ही जाएगा।
इन कृषकों के पास अपनी जीविका चलाने के लिए सिवाय कृषि के और दूसरा साधन न होने से भी इनकी समस्याएँ बढ़ जाती हैं। इसके लिए आवश्यक कृषिगत सुधार के साथ-साथ कृषि से सम्बन्धित अन्य गतिविधियाँ जैसे- पशु-पालन, मत्स्य-पालन एवं कृषि के विविधीकरण में सुधार को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। हालाँकि सरकार द्वारा गत वर्ष से पशु-पालन एवं मत्स्य-पालन की गतिविधियों में सुधार के लिए एक वृहत कार्यक्रम प्रारम्भ किया है जो इस दिशा में एक प्रशंसनीय कदम माना जा सकता है। किन्तु कृषि के विविधीकरण के लिए प्रभावशाली विपणन एवं आधुनिक बाजार व्यवहार आवश्यक है क्योंकि सूक्ष्म स्तर पर किये गये कई अध्ययनों से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि लघु एवं सीमान्त कृषकों की बाजार में बिकने योग्य उपज का लगभग 50 प्रतिशत भाग संकटकालीन बिक्री के रूप में निकल जाता है और तत्काल भुगतान प्राप्त करने के लिए यह कृषक 10 प्रतिशत से 15 प्रतिशत तक रियायत देने को भी तैयार हो जाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि भण्डारण सुविधाओं का विकास किया जाए। साथ ही उन्हें नगदी फसलों को उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
अधिकतर देखा गया है कि लघु एवं सीमान्त कृषक फसलों के सम्मिश्रण के बारे में निर्णय केवल किसानों की घरेलू आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाता है जिससे उपलब्ध साधनों का भी अनुकूलतम प्रयोग नहीं हो पाता है। एक बड़ा किसान तो अपने साधनों के दूरुपयोग के परिणामों को सह सकता है परन्तु एक छोटा किसान नहीं। ऐसे किसानों को उत्पादन की एक आदर्श येाजना से अवगत किया जाना चाहिए। यह योजना कृषि विशेषज्ञों द्वारा तैयार की जानी चाहिए। इसके साथ ही ग्रामीण एवं निर्धन परिवारों के लिए बीमा पॉलिसी की योजनाएँ प्रारम्भ की जानी चाहिए जिससे उनके जीवन में आने वाली आपदाओं से कुशलता पूर्वक निपट सकें और इनका जीवन सुरक्षित रह सके। सरकार द्वारा इस दिशा में भी एक सामाजिक सुरक्षा योजना प्रारम्भ की गई है जिसके अन्तर्गत प्रीमियम राशि का 50 प्रतिशत केन्द्र सरकार द्वारा वहन किया जाएगा।
लघु एवं सीमान्त कृषकों को अतिवृष्टि या अनावृष्टि से फसल सम्बन्धी भारी नुकसान उठाना पड़ता है। इससे उनकी आर्थिक स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ती चली जाती है। भारत में मात्र 14 प्रतिशत ऐसे कृषक हैं जिन्हें फसल के बीमे की सुरक्षा प्राप्त है और इनमें लघु एवं सीमान्त कृषकों का प्रतिशत अत्यधिक कम है। अधिकतर बड़े किसान ही अपनी फसल का बीमा कराने में सक्षम होते हैं। जिस तरह की योजना सरकार द्वारा निर्धन परिवार के मुखिया को बीमित करने के लिए प्रारम्भ की गई है। उसी प्रकार की योजना इन लघु एवं सीमान्त कृषकों की फसल के लिए प्रारम्भ की जानी चाहिए जिससे वे प्राकृतिक आपदाओं से आसानी से निपट सकें। इसके लिए एक वृहत योजना बनाने की आवश्यकता हैं जिसमें अधिक से अधिक कृषकों को सम्मिलित किया जा सके और उन्हें फसल सुरक्षा प्रदान की जा सके।
उत्पादन के लिए आदान आवश्यक हैं और इसके साथ यह भी आवश्यक है कि कृषकों को सही समय पर और उचित मूल्यों पर यह आदान उपलब्ध कराये जाए। देश में जनसंख्या के लगातार बढ़ने से खाद्यान्नों की माँग में भी लगातार वृद्धि होती जा रही है परन्तु कृषि के लिए भूमि का क्षेत्रफल निरन्तर कम होता जा रहा है। चूँकि अब कृषि योग्य भूमि के क्षेत्रफल को बढ़ाना असम्भव है इसलिए यह अपरिहार्य होता जा रहा है कि हमें कृषि योग्य उपलब्ध भूमि की प्रत्येक इकाई और सिंचाई हेतु प्राप्त जल की प्रत्येक भूमि का इतना कुशलतम उपयोग करना होगा कि जिससे उत्पादन में अधिकतम वृद्धि की जा सके। हमारे देश में उपलब्ध कृषि योग्य भूमि के मात्र 33 प्रतिशत से 38 प्रतिशत भाग को सिंचाई सुविधा प्राप्त है बाकी भाग या तो भूमिगत जल पर या वर्षा पर सिंचाई हेतु निर्भर रहते हैं।
कई क्षेत्रों में तो भूमिगत जल के अनुचित दोहन के कारण भूमिगत जल की स्थिति काफी गम्भीर हो गयी है और इस समय लगभग 8 करोड़ हेक्टेयर भूमि को सिंचाई सुविधाओं की आवश्यकता है। ऐसी परिस्थिति में देश के कई क्षेत्रों में सूखा पड़ने से खाद्यान्न उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः यदि कृषि हेतु उपलब्ध भूमि पर ही पर्याप्त मात्रा में सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध करा दी जाए तो उत्पादन बढ़ाने में काफी सहायता मिल सकती है। कई बार यह भी देखा गया है कि लघु एवं सीमान्त कृषकों का अज्ञानतापूर्वक फसलों का चुनान करना भी इस दिशा में बाधक सिद्ध होता है। वे उन फसलों को जिन्हें अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है अल्प जल उपलब्धता वाले क्षेत्रों में उगाते हैं जिससे उनका कृषि में जोखिम बढ़ जाता है। इसलिए सिंचाई सुविधाओं के पर्याप्त विकास के साथ इन कृषकों का फसल सम्बन्धी जानकारी होना भी अतिआवश्यक है।
स्वतन्त्रता की प्राप्ति के छः दशक के बाद भी लघु एवं सीमान्त कृषकों को अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उचित दरों पर ऋण उपलब्ध न होना भी एक गहरी चिन्ता का विषय है। हालाँकि अधिकतर लघु एवं सीमान्त कृषक अब उत्पादन के लिए ऋण लेते हैं न कि उपभोग के लिए। फिर भी बैंक इन कृषकों को ऋण देने में झिझकते हैं और मजबूरीवश उन्हें गाँव के ही साहूकारों आदि से ऋण लेना पड़ता है। कुल कृषक परिवारों में से मात्र 28 प्रतिशत कृषकों को बैंकों से ऋण प्राप्त हो पाता है शेष बड़ा वर्ग असंगठित क्षेत्र से ही ऋण प्राप्त करने को विवश हो जाता है और यह असंगठित क्षेत्र के ऋणदाता इनसे 24 प्रतिशत से 36 प्रतिशत तक ब्याज की वसूली करते हैं। वाणिज्य बैंक भी इनमें कोई विशेष योगदान नहीं दे रहे हैं।
यदि इन वाणिज्य बैंकों के पिछले कुछ वर्षों के व्यवसाय को देखा जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पिछले कुछ वर्षों से इन वाणिज्य बैंकों ने अपने कुल व्यवसाय का 11 प्रतिशत से 12 प्रतिशत तक ऋण ही कृषि क्षेत्र को उपलब्ध कराया है और इनमें भी लघु एवं सीमान्त कृषकों का प्रतिशत अत्यन्त कम है। इन लघु एवं सीमान्त कृषकों को संस्थागत स्रोत से ऋण उपलब्ध कराना नितान्त आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक गाँव में कम से कम एक बैंक की शाखा खोली जाए और बैंक अधिकारी एवं ग्राम पंचायत द्वारा लघु एवं सीमान्त कृषक परिवारों को चिन्हित करके उन्हें गाँव में ही आसान दर पर ऋण उपलब्ध कराये जाएँ। हालाँकि इसके लिए ग्रामीण बैंकों की स्थापना की जा चुकी है किन्तु यह ग्रामीण बैंक भी वाणिज्य बैंकों की भाँति ही अपना लाभ कृषि क्षेत्र में भी बड़े किसानों को ऋण उपलब्ध करा रहे हैं।
इसके साथ यह भी आवश्यक है कि कृषि के विकास के लिए ग्रामीण क्षेत्र के आधारभूत ढाँचे को सुधारा जाए और बुनियादी सुविधाओं का विस्तार किया जाए। इससे जहाँ एक ओर ग्रामीण कृषकों के जीवन स्तर में सुधार आएगा वहीं कृषि के विकास में भी भारी मदद मिलेगी। यातायात सुविधाओं के विस्तार से ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के बीच सम्पर्क बढ़ेगा तथा कृषक अपनी फसल को मध्यस्थों के हाथ बेचने के बजाय स्वयं शहर की बड़ी मण्डियों में बेचकर उसका उपयुक्त मूल्य प्राप्त कर सकेंगे। पर्याप्त विद्युत आपूर्ति से वे आवश्यकतानुसार सिंचाई सुनिश्चित कर सकेंगे। कृषकों का शिक्षित होना तो अत्यन्त आवश्यक है जिससे उन्हें सरकारी योजनाओं, बैंक की नीतियों, ब्याज दर सरकारी विपणन प्रणाली और मुख्य रूप से उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग के बारे में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो सके।
यदि हमारे देश का कृषि क्षेत्र मजबूत हो जाए तो हमारे देश की अर्थव्यवस्था विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकती है और हमारे देश तो पहले से ही विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कृषि उत्पादक देश रहा है। आधारभूत ढाँचें में सुधार एवं बुनियादी सेवाओं में विस्तार के माध्यम से इसका और विकास किया जा सकता है। इसीलिए कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामिनाथन ने कहा भी है कि "बिना दूसरी हरित क्रान्ति के देश आगे नहीं बढ़ सकता है और न ही औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में भी बढ़त की वर्तमान दर बदस्तूर बरकरार रह सकती है।” कृषि क्षेत्र में आधारभूत ढाँचे को सुधारने, कृषि के विविधीकरण, बुनियादी सेवाओं और उच्च मूल्य वाली कृषि आपूर्ति श्रृंखलाओं से छोटे किसानों को जोड़ने से निश्चित रूप से लघु एवं सीमान्त कृषकों की आय में वृद्धि हो जाएगी। क्योंकि जब तक समाज का यह बड़ा वर्ग भूख और गरीबी जैसी बीमारियों से पीडि़त रहेगा तब तक हमारे समग्र आर्थिक विकास का कोई महत्व नहीं। एफ.ए.ओ. द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा भी गया है कि यदि लघु एवं सीमान्त कृषकों को पर्याप्त आर्थिक प्रोत्साहन दिये जाए तो ये भी इनसे इतने ही प्रेरित होते हैं जितने कि बड़े किसान। और यह लघु एवं सीमान्त कृषक अधिकतम उत्पादन करके देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें चीन एवं जापान के कृषकों में देखने को मिल सकता है।
चीन में कृषि जोत का औसत आकार मात्र आधा हेक्टेयर है और वह भी आमतौर पर आठ या नौ खण्डों में बँटी हुई है। इसके अतिरिक्त वहाँ के बहुत से कृषि जोतों का आकार इस औसत से भी छोटा है फिर भी पिछले बीस वर्षों में उन खेतों में जिन्हें छोटी खेतों की श्रेणी में सम्मिलित किया गया था, कृषि गतिहीन नहीं रही बल्कि चीन की कृषि के वार्षिक विकास में इन छोटे कृषकों की उपज ने एक आश्चर्यजनक लगभग 60 प्रतिशत का योगदान किया है। इसी तरह जापान में भी देखा जाए तो 94 प्रतिशत खेतों का आकार दो हेक्टेयर से कम है तथा इनके अधीन कृषि क्षेत्र के कुल क्षेत्र का भाग लगभग 70 प्रतिशत है। किन्तु फिर भी वहाँ कृषि का आधारभूत ढाँचा और बुनियादी सेवाएँ इतनी विस्तृत हैं कि चावल जो कि जापान की एक मुख्य फसल है, का उत्पादन 6000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है जबकि यू.एस.ए. में जहाँ कृषि जोत का आकार जापान की अपेक्षा काफी अधिक है वहाँ चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन मात्र 4600 किलोग्राम है।
अतः यदि चीन और जापान के छोटे कृषक कृषि के विकास में इतना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं तो भारत के लघु एवं सीमान्त कृषकों का ऐसा न कर पाने का कोई विशेष कारण दिखायी नहीं देता बस आवश्यकता है तो उन्हें प्रोत्साहित करने और उन्हें प्रोत्साहन देने की। इस सन्दर्भ में हम भारत में ही पश्चिम बंगाल की कृषि की विकास दर का अवलोकन करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि 1982 से 1992 तक के दशक में कृषि की विकास दर पश्चिम बंगाल में देश के सभी राज्यों में सबसे अधिक रही और इसका मुख्य श्रेय यहाँ के लघु एवं सीमान्त कृषकों को ही जाता है। उस समय पश्चिम बंगाल ही देश का एक मात्र ऐसा राज्य था जहाँ भूमि सुधार पूरी गम्भीरता के साथ लागू किया गया था। इसलिए वहाँ कृषकों को फसलों को उगाने के बारे में पूरी स्वतन्त्रता मिल गई थी। इसमें से अधिकतर किसानों ने तिलहन की फसल उगाने का निर्णय लिया जिससे राज्य की विकास दर काफी बढ़ गयी।
किन्तु यह याद रखना होगा कि पिछले 30 वर्षों में ग्रामीण ऋण के बारे में किये गए सभी परिवर्तन एवं सुधार गरीबी पर करारी चोट करने में विफल रहे हैं और न ही वे देश की ग्रामीण जनसंख्या के निम्नतम 70 प्रतिशत की आर्थिक दशा को सुधारने के लिए पर्याप्त ऋण उपलब्ध करा पाए हैं।
पिछले कुछ वर्षों से देश में लगातार किसानों की आत्महत्याएँ बढ़ती जा रही है जिनमें लघु एवं सीमान्त कृषकों में यह स्थिति अधिकतर परिलक्षित हो रही है। लघु एवं सीमान्त कृषकों की आत्महत्याओं पर कई अध्ययन हुए हैं जिनमें इसका सबसे बड़ा कारण खेती में घाटा और कृषि कार्य के जोखिम हैं जिसकी वजह से किसान बूरी तरह कर्जदार हो जाते हैं। हमारी कृषि के इस बुरे दौर को कृषि उपज की मूल्य व्यवस्था और कर्ज व्यवस्था में सुधारों की जरूरत है। दूसरी तरफ इसके मानवीय पक्ष जैसे पीड़ित परिवार की विधवा और बच्चों के लिए पुख्ता व्यवस्था करने जैसी चीजों पर ध्यान देना ही होगा। हमारी कृषि फिलहाल एक भँवर में फँसी है। अगर खेतों का पर्यावरण शास्त्र और अर्थशास्त्र गलत दिशा में गया तो फिर कृषि क्षेत्र में कुछ भी सही दिशा में नहीं जाएगा। खेती को बचाने और काम व आदमी की सुरक्षा के लिए किसानों को फिलहाल जीवनदायी समर्थन की जरूरत है।
(लेखक कानपुर विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में रीडर हैं)