किसानों की जीत

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"लागा रे लागा, अब ग्रहण भूमि पर लागा.
जागा रे जागा, आक्रोश किसान का जागा."

यह कानून वास्तविक अर्थो में असवैधांनिक और व्यक्ति के नागरिक अधिकारों को प्रतिवंधित करने वाला है. इस कानून के पारित होने के बाद अगर राज्यपाल इस पर हस्ताक्षर कर देते है तो किसी भी अधिकारी या मंत्री के विरुद्ध न्यायिक प्रकरण दर्ज करना या एफ.आई.आर दर्ज करना कठिन और दुष्कर कार्य हो जायेगा. 

प्रधानमंत्री के मन की बात सुन मुझे अपने कवि मित्र, मनोज दरवेश की यह पंक्तियां याद आईं. भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध में जय किसान आन्दोलन के हमारे संसद मार्च के दौरान यह पंक्तियां मैंने अनगिनत बार सुनी. प्रधानमंत्री ने कहा है कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश अब सरकार चौथी बार वापस नहीं लाएगी. इस पर मेरा मन पूछ रहा था कि क्या भूमि पर लगा ग्रहण अब समाप्त हो गया है? क्या किसान का जागा हुआ आक्रोश अब ठंडा पड़ जाएगा?

इसमें कोई शक नहीं कि मोदी सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापस लेने की घोषणा देश के किसान आन्दोलन के लिए एक ऎतिहासिक विजय है. यह एक ऎसी विजय है, जिसका असर बहुत लम्बे समय तक किसान राजनीति पर महसूस किया जाएगा. भूमि पर लगा ग्रहण खत्म हुआ कि नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा और किसानों का आक्रोश ठंडा होगा या नहीं, यह किसान संगठनों की राजनीति तय करेगी. लेकिन इतना तो तय है कि इस घोषणा से देश के किसान की राजनीति के लिए नई संभावनाएं खुली हैं.

कोई यह कह सकता है कि यह विजय अधूरी है. इसमें कोई शक नहीं कि ग्रहण की छाया अभी पूरी तरह से हटी नहीं है. अभी सरकार ने अध्यादेश वापस लेने की घोषणा की है. सरकार स्वयं कह चुकी है कि इसी कानून को राज्यों के जरिये लाने की कोशिश की जाएगी. इसमें भी शक नहीं कि भूमि अधिग्रहण का सवाल इस देश के अधिकतर किसानों का सवाल नहीं है. इसका असर बहुत छोटी संख्या पर ही पड़ता है.

मुट्ठीभर किसानों को कुछ नया हासिल नहीं हुआ है. बस उन पर से एक खतरा टल गया है. फिर भी यह जीत छोटी जीत नहीं है. खुद प्रधानमंत्री ने भूमि अधिग्रहण विधेयक को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना रखा था. उन्होंने तीन बार चोर दरवाजे से इस अध्यादेश को लाने की कोशिश की. इस कानून के साथ बड़े-बड़े स्वार्थ जुड़े थे. प्रधानमंत्री पर दबाव थे इस देश के बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के. सिर्फ मुंबई-दिल्ली कॉरिडोर को लेकर ही लाखों करोड़ों रूपये का फेर था. जहां स्वार्थ नहीं भी था, वहां भी भूमि अधिग्रहण कानून को सरकार की आर्थिक नीतियों के इशारे के रूप में देखा जा रहा था. इसलिए सरकार का इस सवाल पर घुटने टेकना एक ऎतिहासिक घटना है.

यह भी कहा जा सकता है कि मोदी सरकार सिर्फ किसान आंदोलनों के चलते नहीं झुकी. सरकार के झुकने के पीछे विपक्षी दलों का विरोध था. राज्यसभा में भाजपा और एनडीए का बहुमत न होना था. भाजपा और संघ के अपने संगठनों का विरोध भी इसका एक प्रमुख कारण रहा होगा. और इस पर बिहार के चुनाव का डर. शायद प्रधानमंत्री पर इन सबका दबाव रहा होगा. लेकिन हमें यह ध्यान देने की जरूरत है कि आखिरकार प्रधानमंत्री को किसान विरोधी होने से डर लगा. नरेन्द्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री को भी इस बात का डर महसूस हुआ कि किसान विरोधी होने की छवि के साथ जीना कठिन होगा. एक क्षण के लिए ही सही, लोकतंत्र में लोक-लाज जीता. किसान आंदोलनों की असली जीत यही है.

पिछले बीस बरसों में किसान आंदोलनों ने कुछ स्थानीय सफलताएं भले ही हासिल कीं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ी जीत हासिल नहीं की थी. किसानों को जो कुछ मिला था, वो पार्टियों के अंदरूनी खेल से हासिल हुआ था या फिर कम ही मिला था.

कहीं यूपीए के खेल में कर्जा माफी हो गई. किसी चुनाव से पहले बिजली की दर माफ हो गई. लेकिन यह सब किसान आंदोलनों के चलते नहीं हुआ. किसान आंदोलनों ने जो मांगा वो नहीं मिला. न फसलों के दाम बढ़ सके, न लागत कम हुई, न डब्ल्यूटीओ (विश्व व्यापार संगठन) में भारत का रूख बदला. इसके चलते किसान आन्दोलन बिखरे, किसान नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा. हर कोई मानने लगा कि किसान कुछ कर नहीं सकते, कुछ करवा नहीं सकते.

इसलिए भूमि अधिग्रहण के सवाल पर किसानों की जीत एक ऎतिहासिक जीत है. बहुत साल से किसानों को हारते-हारते किसान आंदोलनों को हारने की आदत पड़ गई थी. इस जीत से एक गुंजाइश बनती है कि हारने की आदत छूटेगी और जीत की आदत बनाई जा सकती है. जीत की आदत बन सकती है, लेकिन अभी बनी नहीं है. एक जीत को जीत की आदत में बदलने के लिए किसान आंदोलनों को अपने तौर-तरीके बदलने होंगे. किसानों के मुद्दों पर अनेक छोटी-छोटी लड़ाइयां लड़नी होंगी और जीतनी होंगी.

किसानों के किसी एक वर्ग की लड़ाई लड़ने की बजाय सभी वर्गो के किसानों को जोड़कर देखना होगा और किसानों को जाति-धर्म में बांटने की कोशिश से बचना होगा. आज देश के किसान के सामने दो रास्ते हैं. एक रास्ता हार्दिक पटेल का रास्ता है- जाति का, जातिवादी गोलबंदी का, किसान के मुद्दों से हटके किसी और मुद्दे का रास्ता. दूसरा रास्ता है भूमि अधिग्रहण के सवाल पर जीत से निकला हुआ रास्ता. भूमि पर लगा ग्रहण तो हट सकता है लेकिन खेती-किसानी पर लगे ग्रहण का मुकाबला करने के लिए एक नई किसान राजनीति की शुरूआत हो चुकी है. जय किसान!

कृषि विशेषज्ञ मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की लगातार आलोचना कर रहे थे. विशेषज्ञों के मुताबिक भारत की बढ़ती आबादी के हिसाब से वर्ष 2025 तक हमें 3500 लाख मीट्रिक टन अनाज की जरूरत होगी. यह जरूरत वर्तमान अनाज उत्पादन से लगभग 100 मीट्रिक टन ज्यादा है. जाहिर है इतने उत्पादन के लिए अधिक कृषि भूमि की जरूरत पड़ेगी. लेकिन सरकारों की नीतियां किसानों से जमीन छीनने की दिशा में बढ़ रही हैं. जानकारों का मानना है कि एक तरफ तो हम कृषि योग्य भूमि को बढ़ाने की स्थिति में नहीं हैं. दूसरी तरफ जल की उपलब्धता भी देश के अधिकांश भागों में कम हो रही है. जमीन पर दबाव बढ़ने से कृषि की लागत बढ़ती जा रही है लेकिन कृषि उत्पादकता नहीं बढ़ रही है.

देश के मुख्य न्यायाधीश एच.एल. दत्तू ने भी किसानों की पीड़ा व्यक्त की थी. उन्होंने कहा था कि सरकार यदि कृषक समुदाय की सही मायने में मदद करना चाहती है तो सबसे जरूरी है कि उद्योगों के लिए उसकी जमीन का अधिग्रहण कम से कम किया जाए. हमें यह ध्यान रखना होगा कि किसान पूर्ण रूप से जमीन पर ही आश्रित होता है, यही उसकी रोजी-रोटी है.... जब आप किसान को जमीन के बदले में मुआवजा देते हैं तो मुझे लगता है कि जिसकी रोजी-रोटी छिन रही हो, वह केवल जमीन के मुआवजे का ही नहीं, कुछ अधिक पाने का हकदार है.

योगेंद्र यादव