केले की उन्नत तकनीकी खेती

विश्व में केला एक महत्वपूर्ण फसल है। भारतवर्ष में केले की खेती लगभग 4.9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में की जा रही है। जिससे 180 लाख टन उत्पादन प्राप्त होता है। महाराष्ट्र में सबसे अधिक केले का उत्पादन होता है। महाराष्ट्र के कुल केला क्षेत्र का केवल जलगाँव जिले में ही 70 प्रतिशत क्षेत्र में केले की खेती की जाती है।देशभर के कुल केला उत्पादन का लगभग 24 प्रतिशत भाग जलगँाव जिले से प्राप्त होता है। केले को गरीबों का फल कहा जाता है। केले का पोषक मान अधिक होने के कारण केरल राज्य एवं युगांडा जैसे देशो में केला प्रमुख खाद्य फल है।केले के उत्पादों की बढती माँग के कारण केले की खेती का महत्व दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
केला उत्पाद निम्न है :- केला चिप्स, केला फिग, केला आटा, केला पापड, केला हलवा, केला जूस, केला पल्प, केला फल केनिंग, केला टाफी, केला मदिरा, केला शेम्पेन इत्यादि सामग्रियाँ तेयार की जाती है।
जलवायु:- केला उत्पादन के लिये उष्ण तथा आर्द्र जलवायु उपयुक्त होती है। जहँा पर तापक्र्रम 20-35 डिग्री सेन्टीग्रेड के मध्य रहता है वहाँ पर केले की खेती अच्छी तरह से की जा सकती है। वार्षिक वर्षा 150-200 से.मी. समान रूप से वितरित होना चाहिये। शीत एवं शुष्क जलवायु में भी इसका उत्पादन होता है। परंतु पाला एवं गर्म हवाओं (लू) आदि से काफी क्षति होती है।
भूमि :- केले की खेती के लिए बलुई से मटियार दोमट भुमि उपयुक्त होती है। जिसका पी. एच मान 6.5-7.5 एवं उचित जल निकास का होना आवश्यक हैं। केले की खेती अधिक अम्लीय एवं क्षारीय भूमि में नही की जा सकती है। भूमि का जलस्तर 7-8 फीट नीचे होना चाहिये।
केले की व्यवसायिक प्रजातियाँ :- 
(1) ड्वार्फ केवेन्डिस (भुसावली, बसराई, मारिसस, काबुली, सिन्दुरानी, सिंगापुरी जहाजी, मोरिस) यह प्रजाति म.प्र., महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार एवं कर्नाटक की जलवायु के लिये बहुत उपयुक्त पायी गयी है। इस प्रजाति से चयन कर गनदेवी सिलेक्शन (हनुमान) अथवा पाडर्से नाम की जातियाँ विकसित की गई है जिनकी उत्पादन क्षमता 20-25 कि. ग्रा. प्रति पौधा है इस प्रजाति का पौधा बोना किस्म का 1.5 - 1.8 मीटर ऊंचा होता है फल बडे, मटमैले पीले या हरेपन लिये हुये पीला होता है। तना मौटा  हरा पीलापन लिये हुये होता है। पत्तियां चौडी एवं पीली होती है औसतन 9-10 हेण्ड प्रति बंच(गुच्छा) होता है। औसत फिंगर की लग्बाई 20 सें.मी. एवं मोटाई 10 से.मी. होती है।
(2) रोबस्टा(एएए):- इसे बाम्बेग्रीन, हरीछाल, बोजीहाजी आदि नामो से अलग अलग प्रांतो मे उगाया जाता है इस प्रजाति को पश्चिमी दीप समूह से लगाया गया है। पौघो की ऊंचाई 3-4 मीटर, तना माध्यम मोटाई हरे रंग का होता है। प्रति पौधे मे 10-19 हेण्ड्स मे फर्टाइल पुष्प होते है जिनमे हरे रंग की फिंगर विकसित होती है बंच का वजन औसतन 25-30 किलो ग्राम होता है फल अधिक मीठे एवं आकर्षक होते है। फल पकाने पर चमकीले पीले रंग का हो जाता है यह प्रजाति सिंगाटोक (लीफ स्पॉट) बीमारी से काफी प्रभावित होती है फलो की  भंडारण क्षमता कम होती है।
(3) रस्थली (सिल्क एएबी):- इस प्रजाति को मालभोग अमृत पानी सोनकेला रसवाले आदि नामो से विभिन्न राज्यों मे व्यावसायिक रूप से उगाया जाता है पौधे की ऊंचाई 2.5-3.0 मीटर होती है पुष्पन 12-14 माह के बाद ही प्रारंभ होता है। फल (फिंगर) चार कोण बाले हरे, पीले रगं के मोटे होते है। छिलेक पतला होता है। पकने के पश्चात सुनहरे पीले रगं के हो जाते है। केले का बचं 15.20 कि.गा्र होता है। फल अधिक स्वादिष्ट सुगन्ध पके सेब जैसी कुछ मीठास लिये हुये होती है केले का छिलका कागज की भांति पतला होता है इस प्रजाति की भण्डारण क्षमता कम होती है।
(4) पूवन (एबी):- इसे चीनी चम्पा, लाल वेल्ची और कदली कोडन के नाम से जाना जाता है इसका पौघा बेलनकार मध्यम ऊंचाई का 2.25 - 2.75 मीटर होता है।रोपण के 9-10 महीने में पुष्पण प्रांरभ हो जाता है। इसमें 10-12 हेण्डस रहते है। प्रत्येक हेण्ड में 14-16 फिंगर आती है, फल छोटे बेलनाकार एवं उभरी चोंच वाले होते है। फल का गूदा हाथी के दांत के समान सफेद एवं ठोस रहता है। इसे अधिक समय तक भण्डारित किया जा सकता है। फल पकने के बाद भी बंच से पृथक नही होते है। 
(5) करपूरावल्ली (एबीबी): -इसे बोन्था, बेन्सा  एवं केशकाल आदि नामों से जाना जाता है। यह किस्म किचिन गार्डन में लगाने लिए उपयुक्त पायी गयी है। इसका पौधा 10-12 फीट लम्बा होता है। तना काफी मजबूत होता है। फल गुच्छे में लगते है। फल पर तीन रिंज (उभार) होते है। एक पोधे में 5-6 पंजे बनते है। जिसमें 60-70 फल होते है। जिनका वजन 18-20 कि. ग्राम. होता है। फल मोटे नुकीले और हरे पीले रगं के होते है। यह चिप्स एवं पाउडर बनाने के लिये सबसे उपयुक्त प्रजाति है।
(6) नेन्द्रन (प्लान्टेन एएबी):- इसकी उत्पत्ति दक्षिण भारत से हुई है। इसे सब्जी केला या रजेली भी कहते है। इसका उपयोग चिप्स बनाने में सर्वाधिक होता है। इसका पौधा बेलनाकार मध्यम मोटा तथा 3 मीटर उँचाई वाला होता है। गुच्छे में 4-6 हेण्डस प्रत्येक हेण्ड में 8-14 फिंगर होती है। फल 20 से.मी. लम्बा, छाल मोटी तथा थोड़ा मुडा एवं त्रिकोणी  होता है। जब फल कच्चा होता है तो पीलापन रहता है। परंतु पकने पर छिलका कड़क हो जाता है।इसका मुख्य उपयोग चिप्स एवं पाउडर बनाने के लिये किया जाता है।

केले की उन्नत संकर प्रजातियाँ:-   
(1) एच-1 (अग्निस्वार ्+ पिसांग लिलिन):- यह लीफ स्पॉट फ्यूजेरियम बीमारी निरोधक कम अवधि वाली उपर्युक्त किस्म है। यह बरोइंग सूत्रकृमि के लिए अवरोधक है। इस संकर प्रजाति का पौधा मध्यम ऊॅंचाई 14-16 कि.गा्र. का बंच होता है। फल लम्बे, पकने पर सुनहरे, पीले रगं के हो जाते है। हल्का खट्टा तथा मीठी खट्टी महक पकने पर आती है। यह किस्म जड़ी फसल के लिये उपयुक्त है। तीन वर्ष के फसल चक्र में चार फसले ली जा सकती है।
रोपण सामग्री (फसल उत्पादन तकनीकी):-केला रोपण हेतु तलवारनुमा आकार के अतंभूस्तरीय जिनकी पत्तियाँ संकरीं होती है। जिनको बीज के उपयोग मे लाया जाता हैं। तीन माह पुराना सकर्स जिसका वजन 700 ग्राम से 1 कि.ग्राम तक रोपण के लिए उपर्युक्त होते  हैं। 
वर्तमान में केले के टिश्यूकल्चर पौधे व्यवसायिक रूप से उत्पादको ध्दारा उपयोग में लाये जा रहे है। क्यों कि इनको जेनिटिक इंजीनियरिंग द्वारा बीमारी रहित उत्तम गुणवत्ता वाले अधिक उत्पादक मातृ वृक्षों से ऊतक निकालकर प्रवर्धित किया जाता है। टिशुकल्चर पौधें टू-टू दि टाईप जिनोटाइप चयनित ऊतक को विट्र्रोकल्चर पद्ति से वर्धित किया गया है। टिशु पौधों का स्वभाव दैहिक होता है फसल एक साथ परिपक्व होती है इसकी जडी (रेटून) से भी अच्छा उत्पादन प्राप्त होता है।
भूमि की तैयारी एवं रोपण पद्ति :- खेत की जुताई कर मिट्टी को भूर भूरी बना लेना चाहिये जिससे भूमि का जल निकास उचित रहें तथा कार्बनिक खाद ह्यूमस के रूप मे प्रचुर मात्रा मे हो इसके लिये 
हरी खाद की फसल ले।
पौध अंन्तराल :-  कतार से कतार की दूरी 1.8 मीटर पौधे से पौधे की दूरी 1.5 मीटर रखते है तथा   पौधा रोपण के लिये 45 X 45 X 45 सें. मी. आकार के गड्डे खोदे प्रत्येक  गडडे मे 12-15 किग्रा. अच्छी पकी हुई गोबर या कम्पोस्ट खाद रोपण के पूर्व साथ ही  प्रत्येक गडडे मे 5 ग्राम थिमेट दवा मिटटी मे मिला दें।
बीज उपचार:- प्रकंदो को उपचार के पूर्व साफ करें तथा जडों को प्रथक कर दें 1 प्रतिशत बोर्डो मिक्चर तैयार कर प्रकंदों को उपचारित करें इसके बाद 3-4 ग्राम बाबिस्टीन प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर प्रकंदो को 5 मिनिट तक उपचार करें।
रोपण का समय:-
1 मृग बाहार (ग्रीष्म) अप्रेल से मई
2 कंदा बाहार अक्टूबर
कांदा बाहार की अपेक्षा मृग बाहार की (ग्रीष्म) की फसल से अधिक उत्पादन मिलता है।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा एवं देने की विधि :-केले की फसल अपने पूरे जीवन चक्र मे रोपण 5 - 7¬¬  माह के अन्दर प्रति पौधा नत्रजन 200 ग्राम, स्फुर 40-50 ग्राम ओर पोटाश 250-300 ग्राम, कम्पोस्ट खाद 5 कि.ग्रा. एवं कपास या महुए की खली प्रति पौघा के हिसाब से दें। कम्पोस्ट खाद एवं फास्फोरस की पूर्ण मात्रा पौधा लगाते समय नत्रजन एवं पोटाश एक माह के अन्तराल से सात से आठ माह के अन्दर सात से आठ बार मे दें ।
अन्तरवर्तीय फसल :-
मृग बहार :- इस फसल की रोपाई मई जून महीने में की जाती है। जिसमें केले के साथ , मँग, भिण्डी, टमाटर, मिर्च, बैग़न इत्यादि फसले लें सकते हैं।
कांदा बहार :- इस बहार के अन्तर्गत आलू, प्याज, टमाटर, धनियाँ, बैग़न की फसले ली जा सकती हैं। 
केले की फसल में सस्य क्रियाऐं :- केले की फसल में पौधों की जड़ों पर मिटटी चढ़ाना आवश्यक है। क्योंकि केले की जड़े अधिक गहरी नहीं जाती हैं। इसलिये पौधों कों सहारा देने के लिए मिटटी चढ़ाना जरूरी है। कभी कभी कंद बाहर आ जाते है। जिससे पौधे की वृध्दि रूक जाती है। इसलिए मिटटी चढ़ाना जरूरी है।
मल्चिंग :- जमीन से जल वाष्पीकरण तथा खरपतवार ध्दारा हास होता है। तथा भूमि से पोषक तत्व भी खरपतवारों द्वारा लिये जाते है भूमि जल के वाष्पीकरण एवं खरपतवारों के नियंत्रण हेतु प्लास्टिक सीट पौधे की जड़ों के चारों ओर लगाने से उपरोक्त क्षति से बचाव हो जाता है। इसके अतिरिक्त गन्ने के छिलके, सूखी घास, सूखी पत्तियॉ एवं गुड़ाई करने से जल हास कम हो जाता है। प्लास्टिक की काली पोलीथिन की मल्चिंग करने पर उत्पादकता में वृध्दि होती है।
अतंभूस्तरी (सकर्स) निकालना:- जब तक केले के पौधे में पुष्प गुच्छ न निकल पाएं तब तक सकर्स को नियमित रूप से काटते रहे। पुष्पण जब पूर्ण हो जावे तो एक सकर्स को रखा जाए तथा शेष को काटते रहे। यह ध्यान रखे कि एक वर्ष की अवधि तक एक पौधे के साथ एक सर्कस को ही बढ़ने दिया जाए वह जड़ी (रेटून) की 
फसल के रूप में उत्पादन देगा, बंच के निचले स्थान में जो नर मादा भाग है इस काटकर उसमें 
बोर्डोपेस्ट लगा दिया जाए।
सहारा देना :- जिन किस्मों में बंच का वजन काफी हो जाता है। तथा स्युडोस्टेंम के टूटने की संभावना रहती है। इसे बल्ली का सहारा देना चाहियें, केले के पत्ते से उसके डंठल को ढ़क दिया जाये। 
पौधों को काटना :- केला बंच पुष्पण से 110 से 130 दिनों में काटने योग्य हो जाते है। बंच काटने के पश्चात पौधों को धीरे -धीरे काटें, क्योंकि इस क्रिया से मातृप्रकंद के पोषक तत्व जड़ी बाले पोधें को उपलब्ध होने लगते है। फसलस्वरूप उत्पादन अच्छा होने की संभावना बढ़ जाती है।
जलप्रबंधन :- केले की फसल को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। केले के पत्ते बड़े चौड़े होते है। एक पौधे के पत्तों का कुल क्षेत्रफल 50-60 वर्गमीटर होता है। इसलिए बड़े पैमाने पर पानी की वाष्पीकरण उत्सर्जन होने से केले को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। केले के पूर्ण वर्धित झाड़ों को प्रतिदिन 12-15 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। ड्रिप पध्दति से सिचाई करने पर 60 प्रतिशत पानी की बचत होती है।
फसल संरक्षण :-
1 पनामा बिल्ट या उकठा रोग :- यह बीमारी फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम नामक फफूंद के द्वारा फेलती है पौधे की पत्तियां मुरझाकर सूखने लगती है केले का पूरा तना फट जाता है प्रारंभ मे पत्तियां किनारो से पीली पडती है प्रभावित पत्तियां डण्ठल से मुड़ जाती है प्रभावित पीली पत्तियां तने के चारो ओर स्कर्ट की तरह लटकती रहती है आधार पर (निचले भाग) तने का फटना बीमारी का प्रमुख लक्षण है। बैस्कूलर टिश्यू जड़ों और प्रकंद में पीले, लाल एवं भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते है पौधा कमजोर हो जाता है। जिसके कारण पुष्पन फलन नहीं होता है। इस बीमारी की फफूंद जमीन में अनुकूल तापक्रम, नमी एवं पी. एच. की स्थिति में लम्बी अवधि तक रहता है। 
नियंत्रण :- 
1-    गन्ना एवं सूरजमुखी के फसल चक्र को अपनाने से बीमारी का प्रकोप कम हो जाता है। 
2-    सकर्स को लगाने के पूर्व 0.2 प्रतिशत बाबिस्टीन के धोल में 30 मिनिट तक डुबोकर लगाना चाहिए।
3-    ट्राइकोडर्मा बिरिडी जैविक फफूंद नाशक का उपयोग करना चाहिए।
4-    जिलेटिन केप्सूल मे 50 ग्राम बाबिस्टीन भरके केप्सूल अप्लीकेटर के सहारे कंद मे 45 डिग्री कोण पर रखने से बीमारी पर अच्छा नियंत्रण देखा गया है।

2. लीफ स्पाट (सिंगाटोका) :- यह बीमारी स्यूडोसर्कोस्पोरा म्यूसी फफूंद के कारण होती है। इस बीमारी के प्रकोप से पत्तियों में क्लोरोफिल की कमी हो जाती हैं। क्योंकि टिशू हरे से भूरे रंग के हो जाते है। धीरे-धीरे पौधे सूखने लगते है। प्रारंभ में पत्तियों पर छोटे धब्बे दिखायी देते है। फिर यह पीले या हरी पीली धारियों में बदल जाते है। जो पत्तियों को दोनों सतहो पर दिखायी देते है अंत में यह धारियाँ भूरी एवं काली हो जाती है। धब्बों के बीच का भाग सूख जाता हैं। 

नियंत्रण :- प्रभावित सूखी पत्तियों को काटकर जला देना चाहिए। फफूंद नाशक दवाऐं जैसे डाइथेन एम-45, 1250 ग्राम /हेक्टेअर या बाबिस्टीन 500 ग्राम / हेक्टेयर या प्रोपीक्नोजोल 0.1 प्रतिशत का छिड़काव टिपॉल के साथ अक्टूबर माह से 3-4 छिड़काव 2-3 सप्ताह के अतंराल से करने से बीमारी पर नियंत्रण रखा जा सकता है। 

3. एन्थ्रेक्नोज :- यह बीमारी कोलेट्रोट्राईकम मुसे नामक फफंॅूद के कारण फैलती है। यह बीमारी केले के पौधे में बढ़वार के समय लगती है। इस बीमारी के लक्षण पौधो की पत्तियों, फूलों एवं फल के छिलके पर छोटे काले गोल धब्बों के रूप मे दिखाई देते है। इस बीमारी का प्रकोप जून से सितम्बर तक अधिक होता है क्यों कि इस समय तापक्रम ज्यादा रहता है।

नियत्रण:- 
1-    प्रोक्लोराक्स 0.15 प्रतिशत या कार्वेन्डिज्म 2 ग्राम प्रति लीटर पानी का धोल बनाकर छिडकाव करें।
2-    केले को 3/4 परिपक्वता पर काटना चाहिये। 
4 शीर्षगुच्छारोग :- (बंचीटाप) : पत्तियों की भीतरी मिडरिब की ध्दितीयक नसों के साथ अनियमित गहरी (मोर्सकोड) धारियां शुरू के लक्षण के रूप मे दिखाई देती है ये असामान्य लक्षण गहरे रंग की रेखाओं मे एक इंच या ज्यादा लम्बे अनियमित किनारों के साथ होते है। पौधों का ऊपरी सिरा एक गुच्छे का रूप ले लेता है। पत्तियां छोटी व संकरी हो जाती है। किनारे ऊपर की ओर मुड जाते है डण्ठल छोटा व पौधे बौने रह जाते है और फल नही लगते है। इस बीमारी के विषाण्ाु का वाहक पेन्टोलोनिया नाइग्रोनरवोसा नामक माहू है।
नियत्रण:- 1. रोग ग्रसित पौधो को निकालकर नष्ट कर देना चाहिये। 
2. रोग वाहक कीट नियंत्रण के लिये मेटामिस्टॉक्स 1.25 मि.ली. या डेमेक्रान 0.5 मि.ली. दवा प्रति लीटर पानी मे घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिये।
3. रोग रहित सकर्स का चुनाव करें।
5. केले का धारी विषाणु रोग :- इस बीमारी के कारण प्रारंभ मे पौधो की पत्तियों पर छोटे पीले धब्बे जो बाद मे सुनहरी पीली धारियों मे बदल जाते है। क्लोरोटिक धारियां पत्तियों के लेमिना पर काला रूप लिये नेक्रोटिक हो जाती है। घेर का बहार न निकलना बहुत छोटी घेर निकलना एवं फलों मे बीज का विकास प्रभावित पौधों के प्रमुख लक्षण है।इस रोग का विषाणु मिलीबग एवं प्लेनोकोकस सिट्री के द्वारा फेलाया जाता हैं।
नियंत्रण :- प्रभावित पौधों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिये तथा मिलीबग के नियंत्रण के लिये कार्बोफ्यूरान की डेढ किलो ग्राम मात्रा प्रति एकड के हिसाब से जमीन मे डाले।
कीट एवम् उनका नियंत्रण :- 
(1) केला प्रकंद छेदक  (राइजोम बीबिल) :- यह कीट केले के प्रकंद में छेद करता है। इसको इल्ली प्रकंद के अन्दर छेद करती है। परन्तु वह बाहर से नहीं दिखायी देती है। कभी -कभी केले के स्यूडोस्टेम में भी छेद कर देता है। इन छिदों में सड़न पैदा हो जाती है।
नियंत्रण :- प्रकंदों को लगाने से पहले 0.5 प्रतिशत मोनोक्रोटोफास के धोल में 30 मिनिट तक डुबोकर उपचारित करें। अत्याधिक प्रकोप होने पर 0.03 प्रतिशत फास्फोमिडान के घोल का छिड़काव करें।
(2) तना भेदक :- तना भेदक कीट का मादा वयस्क पत्तियों के डंठलों में अण्डे देती है।जिससे इल्ली निकलकर पत्तियों एवं तने को खाती है। प्रारंभ में पौधे के तने से रस निकलता हुआ दिखायी देता है। फिर कीट की लार्वी ध्दारा किये गये छिद्र से गंदा पदार्थ पत्तियों के डंठल पर बूँद-बूँद टपकता है। जिससे तने के अन्दर निकल रहे पुष्प प्रोमोडिया शुष्क हो जाता हैं। इसका प्रकोप वर्ष भर होता है।
नियंत्रण :- 1. मोनोक्रोटोफास की 150 मि.ली. मात्रा 350 मि.लीटर पानी मे घोलकर तने मे इंजेक्ट करें।
2. घेर को काटने के बाद पौधों को जमीन से काटकर कीट नाशक दवा कार्वोरिल 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करने से अण्डे व कीट नष्ट हो जाते है।
(3) माहू :- यह कीट केले की पत्तियों का रस चूसकर हानि पहुंचाता है। तथा बंचीटाप वाइरस को फेलाने का प्रमुख वाहक है। इस माहू का रंग भूरा होता है। जो पत्त्यिों के निचले भाग या पौधे के शीर्ष भाग से रस चूसती है। 
नियत्रण :- फास्फोमिडान 0.03 प्रतिशत या मोनोक्रोटोफास 0.04 प्रतिशत के घोल का छिडकाव करें। 
(4) थ्रिप्स :- तीन प्रकार की थ्रिप्स केला फल (फिंगर) को नुकसान पहुंचाती है। थ्रिप्स प्रभावित फल भूरा बदरंग, काला तथा छोटे-छोटे के्रक आ जाते है। यदपि फल के गूदे पर प्रभाव नही पडता परन्तु बाजार भाव ठीक नही मिलता। 
नियंत्रण :- मोनोक्रोटोफास 0.05 प्रतिशत का घोल बनाकर छिडकाव करें तथा मोटे कोरे कपडे से बंच को ढंकने से भी कीट का प्रकोप कम होता है। 
(5) लेस विंगस बग :- यह कीट सभी केला उत्पादक क्षेत्रों मे पाया जाता है। इस कीट से प्रभावित पत्तियां पीली पड जाती है। पत्तियों के नीचले भाग मे रहकर रस चूसती है।  
नियंत्रण :- मोनोक्रोटोफास की 1.5 मि.ली. दवा प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करें।
(6) पत्ती खाने वाली इल्ली :- इस कीट की इल्ली नये छोटे पौधों की बिना खुली पत्तियों को खाती है। पत्तियों मे नये छेद बना देती है।
नियंत्रण :- थायोडान 35 ई. सी. का छिडकाव(1.5 मि. ली. प्रति लीटर पानी) पत्तियों पर करने से प्रभावी नियंत्रण देखा गया है।

 बी.एस. राजपूत, डॉ अजीत सिंह, श्री ईश्‍वर सिंह, श्रीमती प्रीति पटेल 
कृषि विज्ञान केन्द्र बुरहानपुर (म. प्र.)

organic farming: 
जैविक खेती: