देश की कृषि व्यवस्था फसी बड़े संकट में
भारत में विकास का जो प्रारूप विकसित हुआ, उसमें मनुष्य के साथ प्रत्येक जीव व् जड़ प्रकृति की आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया था। मनुष्य के केवल भौतिक पक्ष की ही चिंता करने की बजाए उसके सामाजिक, मानसिक और आत्मिक पक्षो की भी चिंता की गई थी। केवल मनुष्य को सुख-सुविधाओं से लैस करने की कभी कोई योजना अपने यहां नहीं बनाई गई, इसलिए देश में एक मुहावरा प्रचलित हुआ "उत्तम खेती, मध्यम बान; निकृष्ट चाकरी, भीख निदान" इसका अर्थ बहुत साफ़ है। नौकरी करने को अपने देश में एक मुहावरा के तौर पर लिया गया अर्थात् नौकरी को कभी महत्ता नहीं दी गई। पशु,भूमि और मनुष्य इस प्रकार पूरी प्रकृति मात्र का पोषण करने वाली खेती को ही सर्वोत्तम माना गया। खेती की इस भारतीय अर्थव्यवस्था में पशु सहायक हुआ करते थे 'बोझ' नहीं, इसलिए किसान के लिए कभी उपयोग में नहीं लाता था।
रोचक बात यह है की गाय जैसे दुधारू पशुओं को व्यवसाय हेतु नहीं पाला जाता था। दूध एक अतिरिक्त उत्पाद था, मुख्य नहीं। मुख्य उत्पाद तो गोबर और गोमूत्र ही माने जाते थे, इसलिए भारत में पशुपालन हो या खेती दोनों जीवन जीने की कला बने ,'उद्योग' नहीं। समस्या ही तब शुरुआत है जब हम किसी भी चीज को उद्योग का दर्जा दे देते हैं। बड़े पैमाने पर इसका उत्पादन करने और किसी एक स्थान पर उसका संग्रह करने की कोशिश करते हैं।
विकास का तात्पर्य समझे बिना इस बात को ठीक से नही समझा जा सकता है। देश में इन्हें विकास का कभी भी पैमाना नहीं माना गया। देश में जिसे विकास माना गया, उसमें न केवल कार्बन का उत्सर्जन नहीं बढ़ता था, बल्कि प्रकृति के साथ एक तारतम्य भी स्थापित होता था।
इंटर गर्वमेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार आज हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए हमारी खानपान सहित जीवनशैली भी जिम्मेदार है, और उसमें परिवर्तन लाए बिना हम इस समस्या का सामना नहीं कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए मांसाहार है, जहां एक किलो मक्का के उत्पादन में 900 लीटर पानी लगता है ,परंतु गाय या भैस के 1 किलो मांस के उत्पादन में 15500 लीटर पानी की जरूरत होती है। आज पशुधन को मांस के नजरिये से ज्यादा और कृषि,पर्यावरण और आजीविका के नजरिये से कम देखा जाता है।
दुनियाभर के अनाज उत्पादन का एक तिहाई का उपयोग मांस के लिए जानवरों के पालने में होता है। एक व्यक्ति एक हेक्टेयर खेती की जमीन से सब्जियां, फल और अनाज उगाकर 30 लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था कर सकता है किन्तु अगर इसी का उपयोग अंडे, मांस,जानवर के लिए किया जाता है, तो केवल 5 से 10 लोगों का ही पेट भर सकेगा। इससे साफ स्पष्ट है की मांसाहार दुनिया की पारिस्थितिकी के लिए बहुत बड़ा खतरा है।
विकास का यह बाजार केंद्रित प्रारूप तात्कालिक तौर पर पारिस्थितिकी और दूरगामी तौर पर मनुष्य जाति के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। यह स्पष्ट है की पारिस्थितिकी में सन्तुलन नहीं रहने पर मानव का अस्तित्व भी खतरे में आ जाएगा।
जलवायु परिवर्तन अपने साथ तापमान और बारिश में बदलाव लाता है जो कीड़ों और बीमारियों में बढ़ोत्तरी करता है। फसलों के उत्पादन को प्रभावित करता है, और वैश्विक जैव विविधता और पारिस्थितिकी के लिए खतरा है और बाद में कृषि के उत्पादन में विभिन्नता ,खाद्य सुरक्षा जैसे मसलों और कुपोषण के तौर पर सामने आता है और आखिर में लोगों के कल्याण पर असर डालता है।
आज किसी भी चीज का मापदण्ड है 'विकास'। राननीति से लेकर प्रशासन तक का केवल एक ही मुद्दा है 'विकास'। इस विकास को नापने का एक पैमाना भी बनाया गया है और वह है 'समृद्धि'। व्यक्ति का विकास मतलब व्यक्ति की समृद्धि और देश का विकास मतलब देश की समृद्धि। समृद्धि का भी अर्थ निश्चित और सीमित कर दिया गया है। पैसों और संसाधनों का अधिकाधिक प्रवाह ही समृद्धि का अर्थ है। पैसे भी संसाधनो से ही आते हैं, इसलिए कुल मिलाकर अधिकाधिक संसाधन चाहिए।
इन संसाधनों के संचयन की होड़ पूरे विश्व में लगी हुई है इसके लिए हमें किसी भी चीज की बलि चढ़ाने में कोई हर्ज नहीं,चढ़ा भी रहे हैं। चूंकि ये संसाधन भी हमें प्रकृति से ही प्राप्त हुए हैं, इसलिए बलि भी प्रकृति की ही चढ़ाई जा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है की हमारी समृद्धि तो बढ़ रही है, लेकिन वास्तविक तौर पर हम गरीब हो रहे हैं। यह गरीबी पर्यावरण और पारिस्थितिकी की है। हमारी जैव विविधता खतरे में हैं हमारा पेयजल खतरे में है। हमारी साफ़ हवा और उपजाऊ जमीन खतरे में है। यही कारण है की आज हमारे सामने कई सवाल खड़े हो गए हैं, जिनके बारे में कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाके बुन्देलखण्ड को ही ले लीजिये यहां की स्थिति बहुत बुरी है। पूरा बुन्देलखण्ड पिछले तीन दशक से लगातार सूखे की मार झेल रहा है और इसके लिए पूर्णतया पर्यावरण असन्तुलन ही जिम्मेदार है। पीने के पानी का स्रोत (कुंओ, तालाब) सूख गए हैं या ज्यादातर का भूजल स्तर 15 सालों में बुरी तरह नीचे गिरा है। इसके कारण यहां के कई इलाकों के लगभग सभी कुएं और हैण्डपम्प सूख गए हैं। इस भूजल स्तर के गिरने का प्रमुख कारण है, विकास के नाम पर तालाबों का बलिदान।
ऐसे में सवाल यह है की क्या हम वाकई में सम्रद्ध हो रहे हैं ? वास्तव में यह सवाल स्वयं को विकसित और विकासशील कहने वालें उन सभी देशो से है, जो प्रकृति से खिलवाड़ और उसके विनाश को ही विकास का पर्याय माने बैठे हैं, जो विकास का अर्थ औद्योगीकरण समझते हैं और औद्योगीकरण का अर्थ प्रकृति व् पर्यावरण विनाशक बड़े-बड़े कल कारखाने जो विकास का अर्थ शहरों से लेते हैं और गांव जिनके पिछड़ेपन और जलालत की निशानी है, जिनके लिए विकास का अर्थ बिजली, सड़क, पानी तक ही सीमित है, चाहे वह किसी भी कीमत पर हासिल किया गया हो।
'भूमि' कृषि प्रधान भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है। देश की दो तिहाई से अधिक आबादी आज भी कृषि, पशुपालन और इससे सम्बंधित व्यवसायों पर निर्भर है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली देश की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पूरी तरह भूमि पर निर्भर है, लेकिन हाल के वर्षों में सरकार भूमि अधिग्रहण से ग्रामीण क्षेत्रों की कृषि योग्य निजी और सार्वजनिक जमीन निरन्तर सिकुड़ती जा रही है।
शहरी विस्तार से जुडी विभिन्न योजनाओं, औद्योगिकरण और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के नाम पर सरकार अधिग्रहण कर देश को जाने-अंजाने में एक बड़े संकट की ओर धकेल रही है। इसमें आने वाले समय में देश की जरूरत के लिए खाद्यान्न और कृषि उत्पादों का संकट पैदा होने की आशंका बढ़ गई है तो दूसरी ओर किसानों और ग्रामीण आबादी को उनकी पुस्तैनी जमीन से बेदखल किए जाने से विस्थापन और सदियों पुरानी ग्रामीण समाज व्यवस्था के नष्ट होने का खतरा बढ़ गया है।
यह स्थिति कम या ज्यादा कमोबेश पूरे देश की है। संक्षेप में कहा जाए तो शहरी विस्तार और अधाधुंध औद्योगीकरण से देश का सामाजिक ताना-बाना भी प्रभावित होता है। अगर हम एक नजर पर्यावरण संकट पर डाले तो स्पस्ट है, कि विश्व की करीब एक चौथाई जमीन बंजर हो चुकी है, अर्थात् इस बंजर जमीन पर कृषि नही की जा सकती है और यही स्थिति रही तो सूखा प्रभावित क्षेत्र की करीब 70 प्रतिशत जमीन कुछ ही समय में बंजर हो जायेगी।
यकीनन यह खतरा इतना भयावह है की इससे 100 से अधिक देशों की एक अरब से ज्यादा आबादी का जीवन संकट में पड़ जाएगा। मेरे सुझावानुसार सरकार को ज्यादा से ज्यादा धन कृषि क्षेत्र की उन्नति में लगाना चाहिए, क्योंकि हमारी एक तिहाई अर्थव्यवस्था इसी पर आश्रित है।
इन सभी भयावह कारणों के बाद हम कह सकते हैं, कि भारत में जीवन जीने की कला को अपनाने और उसके अनुसार विकास के मापदण्डों को तय किए बिना पर्यावरण और पारिस्थितिकी की समस्या नहीं सुलझ सकती और तब तक हमारी कृषि व्यवस्था दुरुस्त नहीं होगी और तब तक हम सच्चे अर्थों में न तो विकसित देश बनेंगे और न ही 'विश्वगुरु'