बैज्ञानिक तरीके से करें बाजरे की खेती
बाजरे की खेती प्रागैतिहासिक काल से अफ्रीका एवं एशिया प्रायद्विप में होती रही है. तमाम मौसम संबंधित कठोर चुनौतियों का सामना खासकर सूखा को आसानी से सहने के कारण राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्रा, ओडीसा, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं अन्य सुखा ग्रस्त क्षेत्रों की यह महत्वपूर्ण फसल है. समस्त अनाजवाली फसलों में सूखा के प्रति सर्वाधिक प्रतिरोधक क्षमता बाजरा में पायी जाती है. इसके दानों में 12़4 प्रतिशत नमी, 11़6 प्रतिशत प्रोटीन, 5 प्रतिशत वसा, 67 प्रतिशत काबरेहाइड्रेट एवं 2़7 प्रतिशत मिनरल (लवण) औसतन पाया जाता है. इसे चावल की तरह या रोटी बनाकर खाया जा सकता है. यह मुर्गीपालन व पशुपालन में भी दाना एवं चारा के तौर पर काफी उपयोगी है.
जलवायु एवं मिट्टी
इसकी खेती लगभग सभी प्रकार की भूमि पर हो सकती है परंतु जल जमाव के प्रति इसकी संवेदनशीलता के कारण इसकी खेती के लिये बलुआही दोमट मिट्टी जिसमें जल निकास अच्छा हो, सर्वाधिक अनुकूल पायी गयी है. इसकी खेती गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में जहां 400-650 मिली मीटर वार्षिक वर्षापात हो, करना लाभदायक है.
इसके परागण के समय वर्षा होने पर पराग के धुलने एवं उत्पादन में ह्रास की संभावना रहती है. सामान्यतया अधिक तीव्र धूप एवं कम वर्षा के कारण जहां पर ज्वार की खेती संभव नहीं है वहा के लिये बाजरा एक अच्छी वैकल्पिक फसल है. बाजरा के विकास के लिए 20-30 सेंटीग्रेट तापक्रम सर्वाधिक उचित है . यह अम्लीय मिट्टी के प्रति संवेदनशील है.
प्रभेद
प्रभेदनाम अवधि उचाईऔसत उत्पादकता वर्षा धारित खेती के लिए उपयरुक्त
संकर (हाइब्रीड)एचएचबी - 6262 दिन मध्यम 30-32 किलोग्राम /हेक्टेयरसिंचित
एमबीएच - 11085 दिन मध्यम 35-40 किलोग्राम/हेक्टेयर सिंचित
बीडी-16385 दिन मध्यम 30-40 किलोग्राम/हेक्टेयर सिंचित
पीएचबी-216883 दिन 210 सेंटीमीटरी035-40 किलोग्राम/हेक्टेयर डाउनी मिल्ड्यु प्रतिरोधी
86 एम 84/86/8890 दिन लंबा प्रभेद 35-40 किलोग्राम /हेक्टेयर सिंचित/वर्षाधारित
स्ंकुल (कंपोजिट)पीसीबी - 16480 दिन 207 सेंटीमीटर 35-38 किलोग्राम/हेक्टेयर डाउनी मिल्डयू के लिए अत्यधिक प्रतिरोधी
भूमि की तैयारी
एक गहरी जुताई के बाद दो हल्की जुताई एवं पाटा लगाना आवश्यक है . अच्छे अंकुरण के लिए खेतों में ढेला नहीं रहना चाहिए. भूमि समतिलकरण में ध्यान रहे कि भूमि में जल निकासी बाधित नहीं हो. अगर संभव हो तो अच्छे जलधारण क्षमता संर्वधन के लिए खेत तैयारी के 15 दिन पूर्व खेतों में दो ट्राली (ट्रैक्टर के) सड़ी गोबर की खाद प्रति एकड डालना चाहिए .
बीज एवं बोआई
चार-पांच किलोग्राम/हेक्टेयर . पौधा से पौधा 12-15 सेंटीमीटर तथा कतार से कतार 45-50 सेंटीमीटर. बीजों के बोने के लिए वर्षा का ज्ञान होना आवश्यक है. जहां कम वर्षा होती है वहां पर बोआई जुलाई के शुरूआत में करना उचित होगा . जहां थोड़ी ज्यादा वर्षा होती है वहां पर जुलाई के अंत में बोआई करने से मौनसूनी वर्षा के परागण पर होने वाले दुष्परिणाम फसल बची रहती है . सामान्यतौर पर बीजों की बोआई छिटकावां विधि से की जाती है . वैसी परिस्थिति में बोआई के तीन सप्ताह बाद पौधा से पौधा 15 सेंटीमीटर एवं कतारों के मध्य 45-50 सेंटीमीटर की दूरी रखकर पौधों की बछनी व छटाई कर देनी चाहिए . जहां पर जगह रिक्त हो वहां पर उखाड़े गये पौधों की रोपाई भी कर देनी चाहिए . वैसे अब बाजरा की बोआई के लिए बाजरा सीड ड्रील भी बनने लगे है. इनके प्रयोग से अच्छी बोआई संभव है .
खर-पतवार नियंत्रण
बोआई के तीन से पांच सप्ताह के बाद पतली खुरपी से खर-पतवार की निराई करना उचित रहता है . परन्तु कई बार श्रमिकों की कमी एवं खेत की नमी इस कार्य में बाधा पहुचाती है . अत: रसायनिक खर पतवार नियंत्रण एक अच्छा विकल्प है. इसके लिए एट्राजीन (50 डब्लयूपी) का 500 ग्राम (हल्की मिट्टी) एवं 750 ग्राम (दोमट अथवा भारी मिटी) को 250-300 लीटर पानी में घोलकर बाजरा बोआई के दो-तीन दिनोंे के अंदर खेतो में छिड़काव करें. इससे चौड़ी व सकरी दोनों तरह की खर-पतवार का प्रभावी नियंत्रण होता हैं.
सिंचाई एवं जल प्रबंधन
सामान्य तौर पर यह वर्षाधारित फसल है . परन्तु विशेष परिस्थिती में इसे दो सिंचाई दी जा सकती है . पौधों के विकास की अवस्था में इसका विशेष महत्व है . इसे जल जमाव बर्दाश्त नहीं होता है . अत: ज्यादा वर्षा होने पर इसमें से कुछ घंटों के अंदर ही जल निकास सुनिश्चित कर देना चाहिए .
कीट एवं व्याधि नियंत्रण के उपाय
दीमक-सूखे इलाके का महत्वपूर्ण कीट है . फसल बुआई के समय काबरेफ्यूरान (तीन जी) का 10 किग्रा या कॉरटाप हाइड्राक्लोराइड (चार जी) का 7़5 किग्रा/एकड़ प्रयोग करना चाहिए . इसके अतिरिक्त क्लोरपाइरीफॅास (20 ईसी) का 1़25 लीटर प्रति एकड वालू (20-25 ) में मिलाकर खेत में प्रयोग करना चाहिए.
जड़ में लगनेवाला गीडार-पौधे की प्रारंभीक अवस्था में क्षति पहुंचाता है . बचाव दीमक के समान. टीड्डा/वाली कीट-इमीडाक्लोरपीड (17़8 एसएल) का 125 मिली प्रति हेक्टेयर अथवा 50 मिली/एकड़ छिड़काव करें .
शूटफ्लाई - तीन सप्ताह के पौधो पर पतों के नीचले सतह पर मक्खियां अंडे देती है . दो-तीन दिनों में बच्चे बाहर आकर पौधो के आधार के छीद्र बनाकर कोमल हिस्से को खाते है . तना खोखला हो जाता है बीच का भाग सूख जाता है जिसे मृतकेन्द्र कहते हैं . इसे आसानी से नहीं खीच सकते है . नियंत्रण के लिए काबरेफ्यूरान का 8-10 किलोग्राम दाना एक एकड़ में प्रयोग करें .
बाजरे में लगने वाले रोग
हरा वाली या डाउनी मिल्डयू-स्केलेरोस्पोरा जर्मीनीकोल नामक फॅफूद के कारण पतों पर पीली, उजली, लंबी धारियॉ बनती है जो वाद में भूरी होकर टूट जाती है. बाली मुड़ी हुई पत्तियों के रूप में दिखाई देती है . बचाव के लिए बीजोपचार, संक्रमित पौधो को उखाड़ कर जला देना तथा प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग श्रेयस्कर रहता है.
इरगोट बिमारी
क्लेभिसेप्स फ्यूजोफॉरमींस नामक फफूंद के संक्रमण के कारण बाजरा की बालियों से शहद की तरह गीला श्रव होता है . जो बाद में बाली पर चिपक जाता है . यह क्षारीय प्रवृति का होता है तथा मानव स्वास्थ्य के लिए काफी नुकसान देह होता है . बचाव के लिए पीछात बोआई से बचना चाहिए . इस प्रकार के पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए . बीजोपच्चार के साथ ही गर्भावस्था में मैंकोजेब का 600-800 ग्राम/एकड़ 10 दिनों के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें . इस रोग से ग्रसित पौधों के बालियां तनो का प्रयोग पशु आहार में न करें .
कलिका रोग
टालीपोस्पोरियम पेनिसिलारिया फफूंद के संक्रमण से बाजरा बालियों में दाने सामान्य से बड़े एवं हरे रंग के दिखाई देते हैं . बचाव के लिए तीन वर्षिय फसल चक्र, गहरी जुताई, बीजोपच्चार एवं इरगोट के समान मैण्कोजेब 600-800 ग्राम/एकड़ 10 दिनों के अंतराल पर दो-तीन छिड़काव करें.
बाजरे की पौधशाला
बाजरा की पौधशाला -500-600 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में दो किलोग्राम बीज से एक एकड़ की पौधशाला के लिए 1़20 मीटर चौड़े एवं 7़50 मीटर लंबे बेड बनाए जाते है . बीज को 10 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में लगाया जाता है . तीन सप्ताह के बाद बीचड़े रोपनी के योग्य हो जाते है . पौधें के उचित विकास के लिए 25-30 किलोग्राम कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट का प्रयोग पौधशाला में किया जा सकता है . बीचड़ा उखाड़ने के समय पौधो की नमी बनाए रखना चाहिए. नर्सरी के उपरी हिस्सों को काट देने से नमी का ह्रास कम हो जाता है . बीजोपचार के लिए -दो ग्राम कार्वेडाजीम अथवा तीन ग्राम कैप्टान प्रति किलोग्राम बीज प्रयोग करना चाहिए.
खाद एवं उर्वरक-स्थानीय प्रभेदों के भोजन की आपूर्ति 10-15 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गोबर की खाद से हो जाती है. पर अधिक उपज वाली प्रभेदों के लिए मिट्टी जांच के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करना ज्यादा लाभदायक होगा . सामान्य तौर पर सिंचित अवस्था में 100-120 किग्रा0 नेत्रजन, 40-60 किलोग्राम फास्फोरस, 30-40 किग्रापोटाश की आवश्यकता होती है . वर्षाधारित खेती में उपर की खाद की लगभग आधी मात्र की आवश्यकता होती है . अर्थात सिंचित खेती में 70 किलोग्राम यूरिया, 55 किग्रा डीएपी अथवा 90 किग्राम यूरिया, 150 किग्रा0 सिगल सूपर फॉस्फेट प्रति एकड आवश्यक है . इसमें आवश्यकतानुसार पोटाश का प्रयोग किया जा सकता है ं नेत्रजन की आधी मात्र एवं फास्फेट तथा पोटाश की पूरी मात्र खेत तैयारी में प्रयोग करें .बाद एवं पुन: बालियों के निर्माण की अवस्था में उपरिवेशन करें.
डॉ प्रवीण कुमार द्विवेदी