जमीन की उर्वरता को बर्बाद करता है एंडोसल्फान

जमीन की उर्वरता को बर्बाद करता है एंडोसल्फान

जिस तरह सरकारों की चकाचौंध वाली विकास नीति के दायरे में यह बात कोई खास मायने नहीं रखती कि देश का राजस्व कौन किस तरह हड़प रहा है। उसी तरह उनकी कृषि नीति में भी आमतौर पर इस बात का कोई महत्व नहीं होता कि खेतों में कीटनाशकों और रासायनिक खादों का अंधाधुंध इस्तेमाल खेती की जमीन की उर्वरता किस तरह बर्बाद करता है और इंसान की सेहत के लिए भी कितना घातक होता है। यही वजह है कि एंडोसल्फान नामक अत्यंत घातक कीटनाशक के खिलाफ उठ रही चौतरफा आवाजों का हमारी सरकारों पर कोई असर नहीं हो रहा है। भोपाल ने वर्ष 1984 में दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी झेली, जिसमें हजारों लोग काल के गाल में समा गए थे और लाखों लोग जीवनभर के लिए बीमार हो गए। इस मानव निर्मित त्रासदी के दुष्प्रभावों से भी सरकार ने कोई सबक नहीं लिया। कीड़ों से बचाव के लिए खेतों में कीटनाशकों का उपयोग कोई नई बात नहीं है लेकिन एंडोसल्फान को दूसरे कीटनाशकों के बराबर नहीं रखा जा सकता, क्योंकि इसके इस्तेमाल के दौरान और बाद में भी लोगों ने त्वचा और आँखों में जलन तथा शरीर के अंगों के निष्क्रिय होने तक की शिकायतें की हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में कीटनाशक एंडोसल्फान की बिक्री और उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने के निर्देश देने संबंधी एक याचिका पर केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किए हैं। याचिकाकर्ता डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया ने न्यायालय से आग्रह किया कि वह केंद्र सरकार को मौजूदा रूप में एंडोसल्फान की बिक्री और उत्पादन पर रोक लगाने के निर्देश दे। याचिकाकर्ता की दलील है कि अनेक ऎसे अध्ययन सामने आए हैं जिनसे यह पता चलता है कि एंडोसल्फान मानव विकास को भी प्रभावित कर सकता है। इन दलीलों को सुनने के बाद खंडपीठ ने नोटिस जारी करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों से जवाब तलब किया। कपास, कॉफी, मक्का सहित कई फसलों की खेती में कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल होने वाला एंडोसल्फान जीव-जंतुओं और पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। एंडोसल्फ़ान को स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माना जाता है।

इस बीच भारत सहित कई विकासशील देशों को जहरीले कीटनाशक एंडोसल्फान के उत्पादन और इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने के लिए 11 साल का समय मिल गया है। साथ ही उन्हें कई अन्य रियायतें हासिल करने में कामयाबी मिली है। हाल ही में जिनेवा में हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भारत और अन्य देशों ने जिन छूटों की माँग की थी, उन पर सहमति बन गई है। इधर कृषि मंत्री शरद पवार पहले ही कह चुके हैं कि एंडोसल्फ़ान पर राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध लगाना व्यावहारिक नहीं है। सवाल है कि एंडोसल्फ़ान कीटनाशक पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जा सकता ?

इस कीटनाशक के इस्तेमाल से होने वाली घातक बीमारियाँ सैकड़ों लोगों को मौत के मुँह में धकेल चुकी हैं और कई पक्षियों और कीट-पंतगों की प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं। इस कीटनाशक के घातक प्रभाव की सबसे ज्यादा शिकायतें केरल से आई हैं और केरल सरकार को पीड़ितों को मुआवजा तक देना पड़ा है। इसके बावजूद कृषि मंत्रालय ने निष्ठुरतापूर्वक कह दिया है कि इस कीटनाशक पर प्रतिबंध लगाना संभव नहीं है। सवाल उठता है कि आखिर क्यों संभव नहीं है? हाल ही में केरल के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री से मिलकर इस पर पाबंदी लगाने की माँग की थी।

 

इसी माँग को लेकर केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन ने एक दिन का उपवास भी रखा था लेकिन प्रधानमंत्री का रवैया टालमटोल वाला ही रहा। सरकार की दलील है कि इस कीटनाशक पर प्रतिबंध से पैदावार में कमी आएगी। सवाल उठता है कि ऐसी बम्पर पैदावार किस काम की, जो लोगों को बीमार बनाती हो और मौत के मुँह में धकेलती हो। यह मुद्दा मानवीय सरोकारों से जुड़ा है। केन्द्र सरकार और कांग्रेस वामदलों पर मुद्दे का राजनीतिकरण करने का आरोप लगाकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। यह अकारण नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश वीआर कृष्ण अय्यर को भी कहना पड़ रहा है कि इस मामले में प्रधानमंत्री उदासीनता बरत कर संविधान प्रदत्त जनता के जीवन के अधिकार का हनन कर रहे हैं।

 

इस कीटनाशक को 1950 में पेश किया गया था। इसका सब्जियों, फ़लों, धान, कपास, काजू, चाय, कॉफ़ी और तंबाकू जैसी 70 फ़सलों में इस्तेमाल होता है। केरल में इस कीटनाशक पर 2003 से प्रतिबंध है। कर्नाटक सरकार ने भी दो माह पहले इसके इस्तेमाल पर रोक लगा दी है,जबकि आंध्र प्रदेश भी सभी कीटनाशकों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने की प्रक्रिया में हैं। मुमकिन है कि अगले कुछ साल में वहां भी इस रसायन के इस्तेमाल पर पाबंदी लग ही जाएगी। कीटनाशक दवा एंडोसल्फान के खिलाफ केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन द्वारा शुरू की गई मुहिम में मध्य प्रदेश भी खुल कर साथ आ गया है। प्रदेश के कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया भी समूची प्रकृति और इंसानों के लिये घातक साबित हो रहे इस कीटनाशक पर पाबंदी लगाने की पैरवी कर चुके हैं। कुसमरिया ने अच्युतानंदन को पत्र लिखकर उनके अभियान को देश व मानवीय हित में बताते हुए अपना समर्थन जताया है। उनका कहना है कि कृषि क्षेत्र में अत्याधिक जहरीले रसायनों का इस्तेमाल समूची मानव जाति और आसपास के परिवेश पर गंभीर प्रभाव डाल रहा है। इसी हफ़्ते हरदा ज़िले के वन क्षेत्र में खेतों में घुसकर फ़सल खाने से दुर्लभ प्रजाति के चार काले हिरनों की मौत हो गई। कीटों से फ़सलों की हिफ़ाज़त के लिये छिड़के गये कीटनाशक ने इन बेज़ुबानों की जान ले ली।

 

केरल के कृषि मंत्री मुल्लाकरा रत्नाकरन ने केंद्र सरकार से भी एंडोसल्फान के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की गुहार लगाई है, जिससे केरल में इसकी तस्करी नहीं हो सके। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने एंडोसल्फान पर प्रतिबंध की मांग कर रहे राज्यों को भरोसा दिलाया कि अगर अध्ययन में इसके हानिकारक होने के सबूत मिलते हैं तो इस पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। इस पर रत्नाकरन का तर्क है कि क्या जहर को जहर साबित करने के लिए सबूतों की जरूरत होती है? अध्ययन से सिर्फ यह पता चल सकता है कि फलां रसायन से क्या नुकसान हो सकता है। रत्नाकरन कहते हैं कि केरल में इस रसायन के असर के आधार पर इन देशों ने अपने यहां एंडोसल्फान की बिक्री पर रोक लगा दी है लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि भारत में हम इस पर प्रतिबंध लगाने के लिए अभी तक सबूतों का इंतजार कर रहे हैं। यह फलां रसायन हानिकारक है यह साबित करने के लिए क्या आधे देश का मरना जरूरी है ? कृषि मंत्री शरद पवार ने इस नुकसान के लिए केरल के किसानों को ही जिम्मेदार ठहराया है। पवार के अनुसार सरकारी दिशानिर्देशों के उलट केरल के किसानों ने एंडोसल्फान का हवाई छिड़काव करना जारी रखा।

 

पिछले दो दशक के दौरान कई देशों ने एंडोसल्फ़ान के स्वास्थ्य पर पडने वाले नुकसान को स्वीकार किया है। एंडोसल्फान दवा के इस्तेमाल पर दुनिया के अनेक देशों में प्रतिबंध है। ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया और इंडोनेशिया उन 80 देशों की सूची में शामिल हैं, जिन्होंने एंडोसल्फान के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई हुई है। 12 अन्य देशों में इसके इस्तेमाल की अनुमति नहीं है। यहा तक कि बाग्लादेश, इंडोनेशिया, कोलम्बिया, श्रीलंका सहित अन्य देशों ने भी इसे सर्वाधिक प्रतिबंधित दवाओं की सूची में शामिल किया है। इसके बावजूद एंडोसल्फान भारत के अधिकतर राज्यों में धड़ल्ले से बिक रही है। इसके बेजा उपयोग से इंसानों और पर्यावरण पर बहुत बुरा असर हो रहा है। कीटनाशक पर पाबंदी की माँग करने वालों का आरोप है कि सरकार लोगों के बजाय कंपनियों को बचाने की कोशिश कर रही है। एंडोसल्फान का निर्माण बेयर और हिंदुस्तान इंसेक्टिसाइड्स लिमिटेड जैसी नामी कंपनियां करती हैं। देश में एंडोसल्फ़ान का सालाना उत्पादन 9,000 टन है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के स्टॉकहोम सम्मेलन के तहत 12 कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाया गया है। ये सभी कीटनाशक सतत जैविक प्रदूषक का काम करते हैं। अब इन प्रतिबंधित 12 कीटनाशकों की सूची में एंडोसल्फान को भी शामिल करने पर विचार किया जा रहा है।

 

केरल में एंडोसल्फान के इस्तेमाल से कासरगोड़ में कई सौ लोगों के दिमाग में खराबी आने के सबूत मिले हैं और इसी आधार पर राज्य ने इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया है। एंडोसल्फ़ान के खिलाफ़ संघर्ष करने वाले कासरगोड जिले में लोगों के स्वास्थ्य पर पड़े इसके खतरनाक प्रभावों का उदाहरण देते हैं। कासरगोड जिले के गाँवों में बच्चों पर अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने पाया है कि एंडोसल्फ़ान के संपर्क में आने से लडकों की यौन परिपक्वता में देरी आ रही है। जिन गाँवों में एंडोसल्फान का छिड़काव किया जाता है, इसके इस्तेमाल से वहां रहने वाले लोगों के मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। बच्चों का शारीरिक विकास रुक गया है और दिमागी विकास दर भी बेहद कम हो गई है। इनका दावा है कि पहाड़ी क्षेत्रों में काजू की खेती में एंडोसल्फ़ान एकमात्र रसायन है जिसका इस्तेमाल 20 वर्षों से होता रहा और इसकी वजह से गांव का पर्यावरण दूषित हो गया है। यह रंगहीन ठोस पदार्थ अपनी विषाक्तता, जैव संग्रहण क्षमता और, अंतस्रावी ग्रंथियों की कार्य प्रणाली में बाधा पहुंचाने में भूमिका के लिए काफ़ी विवादास्पद कृषि रसायन के तौर पर उभरा है। गौरतलब है कि केरल के कासरगोड जिले में श्री पद्रे ने काजू के पेड़ों पर एंडोसल्फ़ान नामक रसायन नहीं छिड़कने सम्बन्धी अभियान को सफ़लतापूर्वक चलाया और किसानों को इसके खतरों तथा उसकी वजह से फ़ैल रहे जल प्रदूषण और स्वास्थ्य संबंधी खतरों के सम्बन्ध में समझाया तथा इसका छिड़काव रुकवाने में सफ़लता हासिल की। इसी वजह से एण्डोसल्फ़ान के दुष्प्रभावों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना गया।

 

पंजाब में एंडोसल्फान के इस्तेमाल का औसत राष्ट्रीय औसत से भी कई गुना अधिक है। पंजाब में हुए एक शोध के मुताबिक खेती में कीटनाशकों के इस्तेमाल से लोगों के डीएनए को नुकसान पहुँच सकता है। पटियाला विश्वविद्यालय के शोध के मुताबिक खेत में काम कर रहे मजदूरों में कैंसर का कारण भी यही कीटनाशक हो सकते हैं। इस नए अध्ययन में पंजाब के किसानों के डीएनए में परिवर्तन पाया गया जिससे उन्हें कैंसर होने की संभावना ब़ढ़ जाती है। इस शोध का निष्कर्ष चिंता का सबब है। किसान खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। किसानों को विकल्प मुहैया कराना सरकार के लिए चुनौती है। आधी दुनिया के मर जाने का इंतजार करने के बजाय सतर्कता बरतते हुए इस पर प्रतिबंध लगाना ज्यादा बेहतर है। जहर का इस्तेमाल करने के बजाय हज़ारों विकल्प हो सकते हैं। किसानों को ये स्वस्थ विकल्प मुहैया कराना सरकार और वैज्ञानिकों की जिम्मेदारी है और किसान इस बात से सहमत ही होंगे।

 

पूरे विश्व में अनाज, सब्जियां, फल, फूल और वनस्पतियों की सुरक्षा करने का नारा देकर कई प्रकार के कीटनाशक और रसायनों का उत्पादन किया जा रहा है; किन्तु इन कीटों, फफूंद और रोगों के जीवाणुओं की कम से कम पांच फीसदी तादाद ऐसी होती है जो खतरनाक रसायनों के प्रभावों से जूझ कर इनका सामना करने की प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर लेती है। ऐसे प्रतिरोधी कीट धीरे-धीरेअपनी इसी क्षमता वाली नई पीढ़ी को जन्म देने लगते हैं जिससे उन पर कीटनाशकों का प्रभाव नहीं पड़ता है और फिर इन्हें खत्म करने के लिये ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा जहरीले रसायनों का निर्माण करना पड़ता है। कीटनाशक रसायन बनाने वाली कम्पनियों के लिये यह एक बाजार है। लेकिन भरपूर पैदावार पाने की चाह देश के अन्नदाताओं के लिये जानलेवा साबित हो रही है।

 

इस स्थिति का दूसरा पहलू भी है। जब किसान अपने खेत में उगने वाले टमाटर, आलू, सेब, संतरे, चीकू, गेहूँ, धान और अंगूर जैसे खाद्य पदार्थों पर इन जहरीले रसायनों का छिड़काव करता है तो इसके घातक तत्व फल ,सब्जियों एवं उनके बीजों में प्रवेश कर जाते हैं। फिर इन रसायनों की यात्रा भूमि की मिट्टी, नदी के पानी, वातावरण की हवा में भी जारी रहती है। यह भी कहा जा सकता है कि मानव विनाशी खतरनाक रसायन सर्वव्यापी हो जाते हैं। हमारे भोजन से लेकर के हर तत्व में ज़हर के अंश पैर जमा चुके हैं, फ़िर चाहे वो अनाज हो या फ़्ल-सब्ज़ियाँ। वास्तव में पानी और श्वांस के जरिये हम अनजाने में ही जहर का सेवन भी करते हैं। यह जहर पसीने, श्वांस , मल या मूत्र के जरिये हमारे शरीर से बाहर नहीं निकलता है बल्कि कोशिकाओं में जड़ें जमाकर कई गंभीर रोगों और लाइलाज कैंसर को जन्म देता है।

 

साल दर साल किसानों की आर्थिक दशा बद से बदतर होती जा रही है। साथ ही कृषि भूमि किसानों के लिए अलाभकारी होकर उनकी मुसीबतें बढ़ा रही है। रासायनिक खाद के अत्यधिक इस्तेमाल से मिट्टी जहरीली हो रही है। अनुदानित हाइब्रिड फसलें मिट्टी की उर्वरता को नष्ट कर रही हैं और भूजल स्तर को गटक रही हैं। इसके अलावा इन फसलों में रासायनिक कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल न केवल भोजन को विषाक्त बना रहा है, बल्कि और अधिक कीटों को पनपने का मौका भी दे रहा है। परिणामस्वरूप किसानों की आमदनी घटने से वे संकट में आर्थिक संकट के दलदल में फ़ँस रहे हैं। खाद, कीटनाशक और बीज उद्योग किसानों की जेब से पैसा निकाल रहा है, जिसके कारण किसान कर्ज में डूबकर आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर हैं। कर्ज के इस भयावह चक्र से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि किसान हरित क्रांति के कृषि मॉडल का त्याग कर दें। हरित क्रांति कृषि व्यवस्था में मूलभूत खामियां हैं। इसमें कभी भी किसान के हाथ में पैसा नहीं टिक सकता।

सरिता अरगरे